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" बस चितवन से पलभर निहारा उन्हें "

24 अक्टूबर 2018

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कविता मेरी कलम से

तुम जो आए तो आई चमन में बहार
सुप्त कलियाँ भी अंगड़ाई लेने लगीं
चूस मकरंद गुलों के मस्त भ्रमरे हुए
कूक कोयल की अमराई गूंजने लगीं ।

फिर महकने लगी ये बेरंग ज़िन्दगी
जब से ख़ुश्बू तेरी मिल गई साथ है
हरसू लगने लगीं अब तन्हाईयाँ भी
जबसे उर घुला मखमली एहसास है ।

फासले ऐसे नदारद हुए ज़िन्दगी से
खुशनुमा-खुशनुमा हर पल आज है
जबसे आए हो इस वीरां ज़िन्दगी में
तब से सारा शहर लगता आबाद है ।

भयभीत होती नहीं हो घनेरा तिमिर
चाँद सा हसीं महबूब का अन्दाज़ है
उनसे रूठना भी अब ना गवारा लगे
बाद अरसे के सुर को मिला साज है ।

हर आहट पे हृदय के ऐसे हालात हैं
लगे उर्वी से मिलने उतरा आकाश है
अब तो विराम दो मेरी आकुलता को
चौखट थामें खड़ी आतुर भुजपाश हैं ।

फिर हृदय में अभिप्सा उमगने लगीं
नयन में चित्र फिर संजीवित हो उठे
मृदु स्पन्दन,उन्मुक्त सिहरनें गात के
पा आलिंगन पुन: पुनर्जीवित हो उठे ।

स्वप्न पलकों के आज इन्द्रधनुषी हुए
निशा नवगीत सप्तस्वर में गाने लगी
उर के द्वारे आह्लाद का मज़मा लगा
चाँदनी और शोख़ हो मुस्कराने लगीं ।

अधर प्यासे जो सींचे अधर सोम से
मन के अंगनाई शहनाई बजने लगी
बस चितवन से पलभर निहारा उन्हें
भोर की तत्क्षण अरुणाई उगने लगी ।

अभिप्सा--प्रबल इच्छा, गात--देह, उर्वी--पृथ्वी
शैल सिंह
सर्वाधिकार सुरक्षित

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