दूर गगन से तकती अँखियाँ
कहाँ हो धरती पर तुम ?
आ जाओ,अब मिलकर इन
नयनों की प्यास बुझालें हम ।
कहाँ है सौरभ भीनी वो मधुमय भरा
फूलों का सा रस स्मित प्यारा चेहरा
कमल सी मोहक मुश्कानों का सा
चेहरा तेरा नत आगंतुकों सा मान भरा
दूर गगन से तकतीं अखियाँ कहाँ हो........।
सुरभि निरन्तर आती जाती इन
तेरी मधु मधु वाला मुश्कानों में
मनमथ भ्रमित होता आई हो तुम
षट पद की मञ्जुल गुँजारों में
रसपान कररहीं हों सहसअसंख्य
मधुकरियाँ हों सुरभित उद्द्यानों में।
प्रकृति की कृति का सृजन अधूरा
तेरे विन हृदय हा!
प्रफुल्लित क्या वागानों में ?
दूर गगन से तकतीं अँखियाँ कहाँ हो.............
दूर कुहासा में लिपटी हो जैसे ,अन्य
पादपावलियाँ आच्छादित ओढ़े दुकुल
लहराता तेरा शीत पवन के झौंकों से।
ठिठुर रही हो मानों रवि रश्मियाँ हों पौष
मास की कंपकंपाती आती जाती धूप में
दूर गगन से तकतीं अँखियाँ कहाँ हो ..............।
आजाओ अब तो मन करता
तुमको कण्ठ लगा लें
शीत लहर के त्रास में।
दूर गगन से तकतीं अँखियाँ.................।
Written by h.k.joshi