रविवार, 13 जुलाई 2014
संसदीय लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों का व्यवहार और संवैधानिक संस्थाओं की पवित्रता
सबसे बड़ी बात जो अभी वर्तमान की ही है वह है संसदीय लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि का व्यवहार। पिछले दिनों संसद में तृणमुल के सांसद तापस पाल ने जिस तरह से असंसदीय भाषा का प्रयोग किया क्या वास्तव में वह एक जनप्रतिनिधि के लिये सही है या फिर हमने संसदीय मर्यादा को ताक में रख दिया है। जिस संसद को हम लोकतंत्र के मंदिर की संज्ञा देते हैं, क्या वहां पर ऐसे व्यवहार व भाषा का प्रयोग उचित है ? आज यह सबसे बड़ा प्रश्न है? किन्तु जो लोग संसद में इस तरह के व्यवहार को लेकर टी.वी. चैनलों पर बैठ कर टिका टिप्पणी करते हैं और संसद में इस तरह की भाषा का उपयोग करने वाले माननीय सांसदों को कोसते हैं। उनसे मेरा एक सवाल है कि जब आप चोर, उच्चके, बलत्कारी, हत्यारा और अपराध में डुबे लोगों को संसद में पहुंचाएंगे तो संसद की गरिमा और मर्यादा का यही हश्र होगा। जब ऐसे अपराधी चुनाव लड़ते हैं तो उनको चुनकर कोई दूसरा नहीं यहीं जनता संसद तक पहुंचाती है और फिर संसद में इस तरह के व्यवहार के बाद टीका टिप्पणी करती है, यह मेरे समझ से परे है।
एक कहावत है जैसा बीज बोओग, फल वैसा ही मिलेगा, आज अपराधियों को संरक्षण देने। उन्हें टिकट देकर जीताने में कोई भी दल पिछे नहीं है, सभी ने भाईचारा निभाते हुए संसद को अपराधियों से सींचा है। ये अपने आप को सही बताने केवल हमारी पार्टी सांसद के इस बयान से इत्तेफाक नहीं रखती, यह उनका व्यक्तिगत बयान है कहकर ही केवल पिछा छुड़ाना जानती है। लेकिन वास्तव में ऐसे लोगों पर कार्यवाही करने की क्षमता किसी भी दल में आज नहीं है। ना ही संसद के अंदर ऐसे लोगों पर इस तरह कुछ कार्यवाही आजतक हुई ताकि संसद में आने वाली आगे की पिढ़ी के लिये यह सबक रहे कि यदि संसद की मर्यादा और गरिमा को दूषित किया तो इसकी सजा व्यापक है। जबकि होना तो यह चाहिए था कि विशेषाधिकार के हनन के लिये हाउस को एक्शन लेना चाहिए। न तो चुनाव आयोग के पास ऐसे कोई अधिकार हैं कि ऐसे लोगों पर कार्यवाही कर सके।
दूसरा ऐसा ही विषय है संवैधानिक पदों पर नियुक्ति को लेकर, जिस पर अभी काफी बहस चल रहे हैं। पिछले दिनों एक समाचार पत्र में छपे कार्टून ने मस्तिष्क पर बल दिया आखिरकार क्यों देश में सत्ता में बैठने वाली किसी भी पार्टी की सरकार पुरे प्रशासनिक अमले की सर्जरी करती है। काॅर्टून छपा था, दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित को लेकर कि यूपीए ने दिल्ली के बाद टाइम पास के लिये केरल भेज दिया था अब तो सरकार बदल गई है, लगता है यहां से भी छूट्टी होनी तय है, मसला था राज्यों में राज्यपाल की पदस्थापना। क्या वास्तव में संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों की नियुक्ति और पवित्रता जनहित में है। पिछले ही दिनों न्यायाधिश की नियुक्ति का मसला भी मिडिया ने काफी उछाला और अब खबर आ रही है कि केन्द्र सरकार ने अमीत शाह के वकिल को इस पद के लिये रखे जाने की सिफारिश कहें या प्रस्ताव माननीय सर्वाच्च न्यायालय में भेजा है, इसके पूर्व केन्द्र सरकार कई उच्च पदों पर नियुक्ति को लेकर कई तरह से नियम कायदों में बदलाव किया है यह भी किसी से छूपी नहीं है। हमने हमेशा देखा है कि मुख्य चुनाव आयुक्त, मुख्य सूचना आयुक्त, चीफ विजलेंस आयुक्त सहित कई संवैधानिक संस्थाओं के प्रमुखों की नियुक्ति में लगातार विरोध व टीका-टिप्पणी होते रहे हैं। इन पदों पर बैठे व्यक्ति हमेशा यह कहते नज़र आते हैं कि लोग अपने अधिकारों का गलत उपयोग कर रहे हैं और संवैधानिक संस्थाओं पर गलत बयानबाजी करते हैं।
जबकि सच्चाई यह है कि चुनाव आयोग से रिटायर व्यक्ति आगे चलकर किसी राजनैतिक पार्टी में शामिल हो जाता है, चुनाव भी लड़ता और फिर मंत्री भी बन जाता है। क्या यह नहीं हो सकता कि जिस चुनाव आयोग से वह रिटायर हुआ है, चुनाव के दौरान उसके वहीं साथी उसे जीताने नियम कायदों को शिथिल कर देंगे। वह भी केवल इसलिये क्योंकि वह कभी उसी विभाग में उनका बाॅस रह चुका है। ऐसे ही कई नियुक्तियां है रिटायरमेंट के बाद भी सरकार अपने चहेतों को विभिन्न विभागों में प्रमुख बनाकर बैठा देती है, राज्यपाल का पद भी ऐसे ही नियुक्तियों के बीच फंसा हुआ है। पिछले काफी समय से जुडीशियल अपांइट कमीशन की मांग की जा रही है ताकि न्यायधिशों की नियुक्ति में राजनैतिक खेल न चलकर पारदर्शिता बनी रहे। लेकिन इस ओर सरकार ध्यान नहीं देती। किन्तु सरकार को इस बात बड़ा दुःख है कि लोग उस पर गलत बयानबाजी करते हैं, लोगों का कहना और बयानबाजी करना 100 प्रतिशत सच है कि रिटायरमेंट के बाद जिस भी सरकार ने जिस भी संवैधानिक पद के लिये जिस नियुक्त किया है वह उसी के इशारे पर ही कार्य करेगा और वहीं करेगा जो कि उसका नियोक्ता कहेगा। इसलिये कम से कम सरकार को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि संवैधानिक पदों पर नियुक्ति के समय इस बात का ध्यान रखा जाये कि रिटायर व्यक्तियों को ऐसे पदों पर नियुक्ति न दी जाये। ऐसे नियुक्तियों के कारण ही लोगों का संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों से विश्वास हट गया है और अब किसी पर भी कुछ भी आरोप लगाना आम हो चुका है। सरकार संवैधानिक पदों की गरिमा की बात करती है लेकिन खुद ही ऐसे पदों पर नियुक्ति के समय अपने आसपास के ऐसे व्यक्तियों को बैठाना चाहती है जो कि उसके इशारों पर कार्य करे।