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प्रेम तो हमारी संस्कृति का आधार है

10 मार्च 2015

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प्रेम तो हमारी संस्कृति का आधार है (१४ फ़रवरी २०१२)/ हमारी संस्कृति, हमारी धर्म हमें यह बतलाता है कि हमारी संस्कृति में प्यार शब्द सदियों व युगों से जुड़ा हुआ है। हम जब भी भगवान श्रीकृष्ण की बात करते हैं और उनके जीवन सार पर जब एक नज़र डाले तो भगवान के रासलिले और राधा के संग प्यार का भी एक हिस्सा हमें पढ़ने व जानने को मिलता है। भगवान शिव व पार्वती के विषय में पढ़ते हैं तो यह बताया जाता है कि माता पार्वती जो कि भगवान शिव से प्यार करती थीं, उन्होंने उनसे विवाह के लिये तप किया और फिर तप से खुश होकर विवाह किया, जैसे कई किस्से हमारे संस्कृति व धर्म के साथ जुड़े हुए हैं, लेकिन इसके बावजुद हमारा समाज आधुनिक प्यार को स्वीकारना नहीं चाहता। प्यार के कुछ इसी उधेड़बुन के बीच डरे-सहमे प्रेमी जोड़े के लिये वेलेन्टाइन-डे का दिन बड़ा ही भयानक होता है। लेकिन इन सब के बीच किसी ने शायद इस प्यार के लिये ठिक ही कहा है - जरूरत ही नहीं अल्फाज की, प्यार तो चीज है बस एहसास की, पास होते तो मंजर ही क्या होता, दूर से ही खबर है, हमें आपकी हर सांस की। आज सुबह से ही बैठकर विभिन्न न्यूज चैनलों, समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्यार के इजहार का पश्चिमी पर्व वेलेन्टाइन डे के विषय में पढ़ रहा था। शायद ही ऐसा कोई पत्र-पत्रिका या न्यूज चैनल होगा जिसने इस प्यार के पर्व के विषय में नहीं छापा और युवा जोड़ों की प्रेम कहानियों को स्थान नहीं दिया। लेकिन इन सब के बीच एक चीज और थी जो कि लगभग सभी समाचार माध्यमों में प्रसारित कि जा रही थी। वह थी हमारी उस पीढ़ि की दर्द जो आज इस सभ्यता और इस प्यार के इजहार के पर्व को ढकोसला व पश्चिमी बता रहे थे। मैं सुबह से ही फेसबुक, ऑरकुट और ट्यूटर जैसे तकनीक के माध्यमों पर भी नज़र रखे हुए था। सभी में लोग एक दूसरे से प्यार का इजहार करते नज़र आ रहे थे। लेकिन यहां पर भी हमारी वह पीढ़ि जो कि आज या तो हमारे दादा-नाना के उम्र के हैं या फिर हमारे पिता व चाचा के उम्र के सभी इसका विरोध कर रहे थे। मैंने कई ऐसे टिप्पणी इन तकनीक के माध्यमों पर देखी जिसमें लोगों ने यह लिखा था कि वेलेन्टाइन -डे इज माय फूट। कुछ ने लिखा था आज के युवा पश्चिमी का अनुसरण कर रहे हैं और नये-नये त्योहार भारतीय संस्कृति पर थोप रहे हैं। कुछ लोगों की दलील थी कि हम अंग्रेजी कलेण्डर की देखा-देखी अपने संस्कृति व त्योहार बना रहे हैं और अपने पंचांग जैसे पुराने कलेण्डर को भुला रहे हैं। इन शब्दों और इस तरह की कई टिप्पणी को देखकर मुझे हंसी भी आ रही थी और हमारे संस्कृति में पश्चिमी सभ्यता के अनुसरण व हृास होते भारतीय सभ्यता को लेकर एक गुस्सा भी था। लेकिन इन सब पर प्रश्न था तो हमारी उस पीढ़ि से जिसने समय पर इसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठाया और आज सारा गुस्सा युवाओं पर उतारते रहते हैं। जब हम अपने पिछे छुट चुके इतिहास पर नज़र डालेंगे तो हम पायंेगे कि हमारे तिज-त्यौहार में विदेशियों का दखल तभी शुरू हो गया था, जब मुगलों ने हमारे देश में अधिपत्य जमाया। उनके आने के साथ ही कई नये-नये त्यौहार हमारे देश में शुरू हुए। उनके द्वारा बनाये गये कलेण्डर भी देश में शुरू हुए। इसके बाद जब फ्रांसिसी आये तो उन्होंने भी अपनी सुविधा के अनुसार अपना कलेण्डर शुरू किया और जब अंग्रेज आये तो उन्होंने तो ना सिर्फ हमारे कलेण्डर बदले। बल्कि हमारी संस्कृति, भाषा, शिक्षा, कलेण्डर यहां तक कि लोगों को भी बदला और यह सिलसिला अंग्रेजों के जाने के बाद भी बदसतुर जारी है। हमें इतिहास में यह पढ़ाया जाता है कि अंग्रेजों ने हमें सौ साल तक गुलाम बनाये रखा और उन्होंने देश में अधिकतर वहीं कार्य किये जिसमें उन्हें अपनी सुविधा दिखी। यदि हमारी पीढ़ि ने चाहा होता तो गुलामी की जंजीरों के साथ ही इन संस्कृतियों व बराईयों को भी फेकने की जहमत उठाई होती तो आज ये सब देखने को नहीं मिलता। क्योंकि हम एक ऐसे देश में रहते हैं जहां पर अतिथि देवता के रूप में पूजा जाता है, जहां हम अतिथि के अच्छे कार्यों को तो ग्रहण नहीं करना चाहते, लेकिन बुराई को ग्रहण करना हमारा इतिहास रहा है। देश में गुलामी के समय से ही वेलेन्टाइन-डे की परंपरा शुरू हुई है जो आज तक चल रही है, यहीं नहीं फ्रेण्डस-डे, मदरस-डे, फादरस-डे सहित कई ऐसे त्यौहार है, जिसे कबूल कर पाने में हमारा वह तबका जो कि अपने आप को सच्चा देशभक्त व भारतीय संस्कृति से जुड़ा हुआ मानता है, वह स्वयं अंदर से कट्टरवाद व संकुचित मानसिकता का व्यक्ति है जो ना तो स्वयं इस विषय पर कुछ कर पाता है और ना ही खुद के घर को सुधार पाता है, अपने मन की भढ़ास निकालने इस तरह बयानबाजी करते रहना ऐसे लोगों का शौक है। ऐसे लोगों को चाहिए कि जब ये संस्कृति इतने ही गंदे हैं, खराब हैं तो ना सिर्फ आवाज़ उठाये, आंदोलन करें, देश को हिन्दू राष्ट्र घोषित करें, सांसद में ऐसा कानून बनवायें जहां पर जिंस पहनना, टी-शर्ट पहनना, लड़कियों-महिलाओं के लिये छोटे-कपड़े पहन कर सार्वजनिक स्थलांे पर घूमना प्रतिबंधित हो, शिक्षा का स्तर सुधरे, फिल्म ऐसे न बनें जहां पर नग्नता का प्रदर्शन हो, देश में पॉर्न फिल्म को प्रतिबंधित किया जाये जो कि विभिन्न वेबसाईट के माध्यम से हर घर के कम्प्यूटर में पहुंच रहे हैं। आज हमारे बीच वे लोग जो इन त्यौहारों के विरोध में आवाज उठाते हैं, स्वयं धोती-कुर्ता नहीं पहन सकते, अपने घर के बच्चों व महिलाओं को भारतीय परंपरा अनुरूप वेश-भूषा धारण नहीं करा सकते। वो समाज को सुधारने आवाज उठाते हैं, उनके स्वयं के बच्चें विदेशों में रहते हैं, बड़े शहरों में रहते हैं और वो उनकी पुछ-परख तक नहीं करते इसलिए अपने घर के गुस्से को दूसरे पर उतारते हैं और पश्चिमी सभ्यता के नाम पर हो हल्ला करते हैं। हमारी पिछली पीढ़ि यह क्यों नहीं मानती कि हमें इस तरह के पश्चिमी तीज त्यौहार, नग्नता के प्रदर्शन से समाहित फिल्में, भ्रष्टाचार सहित वे सब मुद्दे जो संस्कृति व सभ्यता के खिलाफ है वो तो हमें अपनी पीढ़ि से ही मिली है और यदि इसका विरोध ये पहले किये होते तो आज देश में ऐसी स्थिति नहीं होती जब युवाओं तक ये पहुंचते ही नहीं तो फिर ये दुर्गुण होते ही नहीं। आप सभी देश, धर्म, जाति की संस्कृति से जुड़ना भी चाहते हों और देश के लिये यह रहे कि पूरी संस्कृति भारतीय रहे तो यह सम्भव नहीं है आज के इस आधुनिकता के दौर में। जबकी असलियत तो यह है कि प्यार और प्रेम जैसे शब्दों ने आज समाज को एक दिशा दे दी है, दहेज प्रथा से लड़ने की, जाति के बंधन को तोड़कर स्वच्छंद उड़ने की। समाज आज दहेज प्रथा जैसी समस्या से इस तरह जकड़ गया है कि जिन धर्मों व जातियों में कुछ समय तक इसकी प्रचलन तक नहीं थी, वहां भी आज उपहार के नाम पर दहेज लिये जा रहे हैं। दहेज के लिये कई बेटी-बहुएं आत्महत्याएं कर रही हैं तो कहीं पर उन्हें जला दिया जा रहा है। लेकिन प्रेम विवाह ने इन सभी बंधनों को तोड़ने का साहस दिखाया है। इसके बावजूद प्रेम विवाह व प्रेम को पश्चिमी संस्कृति कह कर इसका विरोध करते हैं। लेकिन वहीं जब राधा व मीरा की बात आती है तो हम उनकी पुजा करते हैं। कुल मिलाकर मेरा जो विचार है वह यहीं है कि भगवान यदि करे तो पूजा और हम करें तो सजा।
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मैं देश का नव जवान हूँ।

9 मार्च 2015
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वर्ष 2015 की ये दूसरी कविता युवाओं की समस्या और उनके संघर्ष को समर्पित.........अंचल ओझा मैं देश का नव जवान हूँ। आवारा हूं कातिल भी, मजनू हूं,दीवाना भी। सड़कों पर फिरता, घरों को लूटता, नोकरी की सनक में, दर-दर फिरता, मैं देश का वर्तमान हूं। गरीबी की मार सहकर, अपनों की दुत्कार सह कर, ढूंढ रहा हूं अपन

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क्यू हाथ खड़ी कर दी अब

10 मार्च 2015
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बिहार में आयी कोसी की बाढ़ के समय जब मैं वहां पर गया था, तब वहां की विनाशलिला और लोगों की समस्याओं को देखकर कई तरह के विचार मन-अंर्तमन में आये और उसी समय वहां से वापस आने के बाद मैंने यह कविता लिखी थी। यह कविता दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक समाचार पत्र स्टिंग इण्डिया में छप चुकी है। कोसी का बाढ़ औ

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आओ खरीदो, चुन लो

10 मार्च 2015
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आओ खरीदो, चुन लो - अंचल ओझा रूपयों की इस भीड़ में, मेरी कीमत तुम सही आंको। हजारों की अब पुछ नहीं कहीं, मेरी कीमत लाखों-करोड़ों में आंको। बेटी पैदा कर किया है तुमने पाप, धन नहीं तो लिया सर क्यों यह शाप। रूपयों की इस भीड़ में, मेरी कीमत तुम सही आंको। हजारों की अब पुछ नहीं कहीं, मे

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क्या यही है देश की तकदीर

10 मार्च 2015
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क्या यही है देश की तकदीर - अंचल ओझा, अम्बिकापुर जहां रिश्वत, प्रलोभन, लोभ और वोट के बाजार में, पैदा होता देश का तारणहार है, जहां सत्ता की भूख से, कुर्सियों की दौड़ में, वोट का करता वह नोट से व्यापार है। क्या वो देश को चला पायेगा, इस तरह के लोभ में मतंगियों को, कौन राह दिखायेगा ? क्या भार

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संसदीय लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों का व्यवहार और संवैधानिक संस्थाओं की पवित्रता

10 मार्च 2015
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रविवार, 13 जुलाई 2014 संसदीय लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों का व्यवहार और संवैधानिक संस्थाओं की पवित्रता सबसे बड़ी बात जो अभी वर्तमान की ही है वह है संसदीय लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि का व्यवहार। पिछले दिनों संसद में तृणमुल के सांसद तापस पाल ने जिस तरह से असंसदीय भाषा का प्रयोग किया क्या वास्तव में वह

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सच तो यहीं है, स्वीकार करना होगा।

10 मार्च 2015
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सच तो यहीं है, स्वीकार करना होगा। (२६ अगस्त २०१४)/ देश एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जहां चारों ओर धर्म, जाति व धार्मिक स्थलों व ईश्वर को लेकर विवाद हो रहा है। कहीं पर धार्मिक स्थल को लेकर दंगे हो जाते हैं तो कहीं लव जेहाद के नाम पर बवाल जारी है, वहीं दूसरी ओर सांई भक्तों पर मानों पहाड़ टूट पड़ा है। अब

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प्रेम तो हमारी संस्कृति का आधार है

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