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सच तो यहीं है, स्वीकार करना होगा।

10 मार्च 2015

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सच तो यहीं है, स्वीकार करना होगा। (२६ अगस्त २०१४)/ देश एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जहां चारों ओर धर्म, जाति व धार्मिक स्थलों व ईश्वर को लेकर विवाद हो रहा है। कहीं पर धार्मिक स्थल को लेकर दंगे हो जाते हैं तो कहीं लव जेहाद के नाम पर बवाल जारी है, वहीं दूसरी ओर सांई भक्तों पर मानों पहाड़ टूट पड़ा है। अब तो ऐसा लग रहा है कि काश ये धर्म, सम्प्रदाय व जातियां नहीं होती तो शायद देश की तरक्कि में इतनी देर नहीं होती। इन सब में यदि कोई तबका है जो कि इन बातों को हवा देने में लगा है तो वह है एक ऐसा तबका जो कि अपने आप को समाज से अलग व माया-मोह से मुक्त बताता है और विभिन्न लबादों में लिपट कर अपने आप को विभिन्न धर्म सम्प्रदाओं का मुखिया या यूं कहंे ही अपने आप को सर्वश्रेष्ठ बताता है। कल छत्तीसगढ़ में लगे धर्म संसद में जो निर्णय लिये गये वे कहां तक तर्क संगत हैं। क्या वास्तव में सांई से बढ़कर ये आसाराम, निर्मल बाबा, स्वामी नित्यानंद व ये शंकराचार्य हैं जो कि सांई की अराध्ना पर रोक लगाने का विचार बना रहा है। खैर जैसी उनकी बुद्धि यूं कहा भी गया है कि जैसे-जैसे व्यक्ति वृद्व होते जाता है उसकी बुद्धि भी कमजोर होती चली जाती है। व्यक्ति बात-बात पर नाराज हो जाता है और शायद शंकराचार्च स्वरूपानंद सरस्वती के साथ भी इन दिनों ऐसा ही कुछ हो रहा है, उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो रही है। उनके अगुवाई में आयोजित बैठक में अयोध्या में राम मंदिर बनाने का निर्णय कितना न्याय संगत है जबकि इस विषय में प्रकरण न्यायालय में लंबित है। वैसे भी देश के आमजनों को स्वतंत्रता का अधिकार है और वे जिसकी पूजा चाहे कर सकते हैं, रही बात मंदिरों की तो मंदिरों से सांई की मूर्ति शायद शंकराचार्य न हटा सकेें, क्योंकि तब मुझ जैसा एक तबका वैसा भी उनसे टकरायेगा जो कि मंदिर बनाने में दी गई चंदा वापस मांगेगा तब यह देखने लाजमी होगा कि महान शंकराचार्य सरस्वती किसे-किसे मंदिर निर्माण के लिये दी गई चंदा वापस करते हैं। जिनके कंधों पर समाज को जागृत करने मोह प्रपंच से मुक्त करने का भार है यदि वे समाज को लड़वाने का कार्य करेंगे तो वह दिन अब दूर नहीं कि लोग धिरे-धिरे शंकराचार्यों का सम्मान करना भी भुल जाये। दूसरी बड़ी बात जो कि मिडिया में इन दिनों छायी हुई है वह है लव जेहाद का मामला। इस मामले में जो कुछ तथ्य व घटनायें सामने आयी है, उसे झुठलाया नहीं जा सकता किन्तु क्या दो-तीन ऐसी निंदनीय घटनाओं के कारण हमें यह अधिकार मिल गया है कि हम किसी समाज, किसी धर्म विशेष को निचा दिखाये और सभी पर अगंुली उठायेें। हर धर्म, जाति व सम्प्रदाय मेें कुछ लोग गलत हैं किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि हम पुरे कौम पर अगुंली उठायें। मैं खासकर उस पार्टी विशेष से यह पुछना चाहुंगा जो कि इसे काफी हवा दे रहे हैं क्या आपके घरों में भी इस तरह के प्रकरण है, उसे भी इसी अर्थ के साथ देखा जाये कि वह भी इसी का एक हिस्सा था। आज हम आधुनिकता में इतने आगे निकल चुके हैं कि विवाह के बंधन में बंधने के लिये धर्म, जाति व सम्प्रदाय को अड़ंगा नहीं बनने देना चाहते। कई ऐसे सफल विवाह हुए हैं और हो रहे हैं। धिरे-धिरे समाज जाति, धमर्, सम्प्रदाय व गोत्र जैसे प्रपंचों से बाहर आ रहा है और यदि ऐसा हो रहा है तो यह अच्छा है, सकारात्मक पहल है। किन्तु इसमें कुछ ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो कि विवाह के बंधन को खेल समझते हैं और बहला-फुसला कर पहले विवाह किया फिर अपनी पत्नी को धर्म व जाति परिवर्तन का दबाव डालते हैं ऐसे मामलों पर विराम लगना चाहिए, कार्यवाही होनी चाहिए, किन्तु ऐसे कुछ मामलों को लेकर समुचे समाज व कौम को गलत बताना सही नहीं। तीसरी जो बड़ी बात है वह है धार्मिक स्थलों के निर्माण को लेकर विवाद मुझे समझ ये समझ में नहीं आता कि आखिरकार ये धार्मिक स्थलों का निर्माण कब बंद होगा, खासकर मंदिरों का निर्माण मेरे पाठक मित्र इसे पढ़कर मुझे गालियां भी देंगे और उन्हें मारने का भी मन करेगा। किन्तु मेरे मित्र आप जरा अपने आसपास एक सर्वें करें और पायेंगे कि 100 मंदिरों के पिछे 5-10 चर्च, 3-5 गुरूद्वारा, 3-5 मस्जिद, 1-2 जैन मंदिर और बाकि भी 1-2 के अंदर ही हैं किन्तु यदि इसके परिणाम पर नज़र डालेंगे तो शायद इसका उत्तर यहीं निकल कर सामने आता है कि 100 से भी अधिक मंदिर रखने वाले हिन्दु धर्म व सम्प्रदाय को मानने वाले लोगों का मत कभी एक नहीं होता और संगठन काफी कमजोर हैं, किन्तु वहीं कम संख्या में धार्मिक स्थल बनाने वाले भाईयों की एकता व संगठन की ताकत काफी मजबुत है, आखिर इसका कारण क्या है? क्या कोई भाई मुझे बतला सकता है। एक उदाहरण:- 100 मंदिर में न्युनतम एक वर्ष में एक मंदिर के हिसाब से 1000 रूपये प्रतिमाह मतलब एक महिने में एक लाख अर्थात 12 महिने में कम से कम 12 लाख रूपये दान के रूप में एकत्र होता है किन्तु उसका समाज हित में क्या उपयोग हो रहा है? मंदिर में हम पुजा करने जाते हैं ताकि हम उन्नति करें और आगे बढ़े हम मंदिर में एक हजार का नोट व एक किलो लड्डु चढ़ा कर आते हैं और बाहर बैठे भिखारी को एक मुट्ठी चावल देते हैं।वर्षों से मंदिर के बाहर बैठे भिखारी की स्थिति वहीं रहती हैं किन्तु मंदिर के पुजारी और ट्रस्ट निरंतर प्रगति करते हैं। क्या मुझे कोई इसका उत्तर दे सकता है कि प्रगति किसकी होनी चाहिए। यदि एक-एक मंदिर एक-एक गांव को गोद ले ले तो शायद भारत की स्थिति में परिवर्तन हो जायेगा और तब हमसे अमेरिका और चीन बराबरी करने की सोचेंगे। किन्तु आज खाली हाथ हम चीन और अमेरिका से बराबरी करना चाहते हैं जबकि अपनी सच्चाई क्या है खुद जानते हैं। यह केवल मंदिर के लिये ही नहीं बल्कि सभी धर्मोंे के धार्मिक स्थलों के लिये मेरा मत है। मंदिर का उदाहरण मैंने केवल इस लिये दिया है क्योंकि मंदिरों की संख्या आज स्कूल, काॅलेजों से अधिक होते जा रही है, जिस पर सोचना देश के उन युवाओं के लिये आवश्यक है जो कि देश के वर्तमान और भविष्य दोनों हैं। हम युवाओं के कंधों पर ही देश के नव निर्माण की जिम्मेदारी है तो आईये हाथ बढ़ाईये देश को आगे बढ़ाईये। जात, पात, धर्म, प्रपंच के बंधनों से मुक्त हो ऐसा भारत बनायें।
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मैं देश का नव जवान हूँ।

9 मार्च 2015
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वर्ष 2015 की ये दूसरी कविता युवाओं की समस्या और उनके संघर्ष को समर्पित.........अंचल ओझा मैं देश का नव जवान हूँ। आवारा हूं कातिल भी, मजनू हूं,दीवाना भी। सड़कों पर फिरता, घरों को लूटता, नोकरी की सनक में, दर-दर फिरता, मैं देश का वर्तमान हूं। गरीबी की मार सहकर, अपनों की दुत्कार सह कर, ढूंढ रहा हूं अपन

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क्यू हाथ खड़ी कर दी अब

10 मार्च 2015
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बिहार में आयी कोसी की बाढ़ के समय जब मैं वहां पर गया था, तब वहां की विनाशलिला और लोगों की समस्याओं को देखकर कई तरह के विचार मन-अंर्तमन में आये और उसी समय वहां से वापस आने के बाद मैंने यह कविता लिखी थी। यह कविता दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक समाचार पत्र स्टिंग इण्डिया में छप चुकी है। कोसी का बाढ़ औ

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आओ खरीदो, चुन लो

10 मार्च 2015
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आओ खरीदो, चुन लो - अंचल ओझा रूपयों की इस भीड़ में, मेरी कीमत तुम सही आंको। हजारों की अब पुछ नहीं कहीं, मेरी कीमत लाखों-करोड़ों में आंको। बेटी पैदा कर किया है तुमने पाप, धन नहीं तो लिया सर क्यों यह शाप। रूपयों की इस भीड़ में, मेरी कीमत तुम सही आंको। हजारों की अब पुछ नहीं कहीं, मे

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क्या यही है देश की तकदीर

10 मार्च 2015
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क्या यही है देश की तकदीर - अंचल ओझा, अम्बिकापुर जहां रिश्वत, प्रलोभन, लोभ और वोट के बाजार में, पैदा होता देश का तारणहार है, जहां सत्ता की भूख से, कुर्सियों की दौड़ में, वोट का करता वह नोट से व्यापार है। क्या वो देश को चला पायेगा, इस तरह के लोभ में मतंगियों को, कौन राह दिखायेगा ? क्या भार

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संसदीय लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों का व्यवहार और संवैधानिक संस्थाओं की पवित्रता

10 मार्च 2015
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रविवार, 13 जुलाई 2014 संसदीय लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों का व्यवहार और संवैधानिक संस्थाओं की पवित्रता सबसे बड़ी बात जो अभी वर्तमान की ही है वह है संसदीय लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि का व्यवहार। पिछले दिनों संसद में तृणमुल के सांसद तापस पाल ने जिस तरह से असंसदीय भाषा का प्रयोग किया क्या वास्तव में वह

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सच तो यहीं है, स्वीकार करना होगा।

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सच तो यहीं है, स्वीकार करना होगा। (२६ अगस्त २०१४)/ देश एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जहां चारों ओर धर्म, जाति व धार्मिक स्थलों व ईश्वर को लेकर विवाद हो रहा है। कहीं पर धार्मिक स्थल को लेकर दंगे हो जाते हैं तो कहीं लव जेहाद के नाम पर बवाल जारी है, वहीं दूसरी ओर सांई भक्तों पर मानों पहाड़ टूट पड़ा है। अब

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प्रेम तो हमारी संस्कृति का आधार है

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प्रेम तो हमारी संस्कृति का आधार है (१४ फ़रवरी २०१२)/ हमारी संस्कृति, हमारी धर्म हमें यह बतलाता है कि हमारी संस्कृति में प्यार शब्द सदियों व युगों से जुड़ा हुआ है। हम जब भी भगवान श्रीकृष्ण की बात करते हैं और उनके जीवन सार पर जब एक नज़र डाले तो भगवान के रासलिले और राधा के संग प्यार का भी एक हिस्सा हमे

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