सपनों की दुनिया में रह कर ,
फिर भी देखता हूँ एक स्वप्न।
है एक अपना सपना मेरा,
दूसरों के सपनो को सजाना।
हो जाता हूँ स्तब्ध ,
जब सोंचता हूँ उनके बारे में...
अरे वही !
जिनके पास अपने शरीर को खोने के सिवा और कुछ भी है नहीं !!!!!
दिली ख्वाहिश है उनको दिखना
राह मंज़िलों की ,
उन्हें बनाना इंसान
जो करें मदद औरों की।
है खलबली सी मेरे अंदर ,
उनके भूक की आग मिटाना।
उनकी कमज़ोरी को उनकी मज़बूती बनाना।
हो गया है मन बाँवला,
परवाह नहीं रही परिस्थितियों की।
बस गया है वो स्वप्न ऐसे ,
आत्मा की जगह ले लिया हो जैसे।
By Rakesh Kumar
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