शब्दों की माला
शब्द |
जब तक मुझको न था उचित ज्ञान,
शब्दों के प्रयोग से थी मैं अनजान,
न था इन पर मेरा तनिक ध्यान,
न ही थी इनकी मैं कद्रदान।
मंडराते थे ये मेरे आसपास,
छोड़ते न थे कभी मेरा ये साथ,
इनको मुझसे थी यही एक आस,
कभी तो इनका मुझे होगा एहसास।
धीरे से मुझे इनसे प्यार हुआ,
इन शब्दों को मैंने अधिकार दिया,
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शब्दों की माला
जब तक मुझको न था उचित ज्ञान,
शब्दों के प्रयोग से थी मैं अनजान,
न था इन पर मेरा तनिक ध्यान,
न ही थी इनकी मैं कद्रदान।
मंडराते थे ये मेरे आसपास,
छोड़ते न थे कभी मेरा ये साथ,
इनको मुझसे थी यही एक आस,
कभी तो इनका मुझे होगा एहसास।
धीरे से मुझे इनसे प्यार हुआ,
इन शब्दों को मैंने अधिकार दिया,
फिर मैंने इन्हें क्रमवार किया,
भावनाओं से अपनी सवाँर दिया।
जब जज्बातों ने इनको बांध दिया,
और पूरा इन्हें सम्मान दिया,
शब्दों ने कल्पनाओं को आकार दिया,
और मुझको अलग पहचान दिया।
जब शब्दों की माला से मैं अलंकृत हुई,
मुझको एक अलग-सी अनुभूति हुई,
भावनाओं की मेरे अभिव्यक्ति हुई,
मन को मेरे तब 'तृप्ति' हुई।
अब इनका मेल मुझे है भाता,
इनसे जुड़ गया मेरा नाता,
फिर शब्दों की जो बही सरिता,
तो खुद ही बन गयी एक कविता !
--तृप्ति श्रीवास्तव