खुद ही से मैं नज़रें चुराने लगी हूं,उन यादों से दामन छुड़ाने लगी हूँ ।खुद ही से खुद ही का पता पूछती हूँ,न जाने कहाँ मैं विलीन हो चुकी हूँ ।अरमानों को अपने दबाने लगी हूँ,पहचान अपनी भुलाने लगी हूँ ।भटकने लगी राह मंज़िल की अपनी,कहूँ क्या किधर थी, किधर को चली हूँ । ....और पढ़ें
शब्दों की मालाशब्दजब तक मुझको न था उचित ज्ञान,शब्दों के प्रयोग से थी मैं अनजान,न था इन पर मेरा तनिक ध्यान,न ही थी इनकी मैं कद्रदान।मंडराते थे ये मेरे आसपास,छोड़ते न थे कभी मेरा ये साथ,इनको मुझसे थी यही एक आस,कभी तो इनका मुझे होगा एहसास।धीरे से मुझे इनसे प्यार हुआ,इन शब्दों
जाने चले जाते हैं कहाँ ,दुनिया से जाने वाले, जाने चले जाते हैं कहाँ कैसे ढूढ़े कोई उनको ,नहीं क़दमों के निशां अक्सर मैं भी यही सोचती हूँ आखिर दुनिया