कानपुर । गणेश शंकर विद्यार्थी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अनूठे लड़ाके थे। वे न सिर्फ राजनीति के क्षेत्र में बल्कि सामाजिक क्षेत्र में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध भी संघर्ष करते रहे। वे गांधी जी के अनुयायी थे लेकिन भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद को अपने यहां शरण भी देते थे। वे एक सफल पत्रकार थे और उन्होंने अपने अखबार ‘प्रताप’ को आजादी की लड़ाई से जोड़ दिया था। मालूम हो कि उनके ‘प्रताप’ अखबार में अमर शहीद भगत सिंह ने भी काम किया था। जब वे काकोरी कांड के बाद कानपुर जाकर भूमिगत हो गए थे। गणेश शंकर विद्यार्थी को अन्याय से लड़ने की प्रेरणा बचपन से ही मिली हुई थी। एक बार जब वे ठान लेते तो उसे पूरा करके ही मानते। अवध की माटी की एक अनूठी विरासत है। गंगा-जमुनी तहजीब। इस तहजीब का जिक्र करते समय अवध प्रांत के जिलों में रहने वाले लोगों के चेहरे पर एक गौरव आ जाता है। इसी तहजीब को बचाने के लिए 26 मार्च को यह भारत मां का सपूत शहीद हो गया, लेकिन इस शहर के लोग व सियासतदान शहीद स्थल में पहुंचना तो दूर वहां दो फूल भी चढ़ाने कोई नहीं पहुंचा।
पोस्ट कार्ड पर स्टांप के लिए लड़े
पोस्ट कार्ड का स्टांप आप कहीं नहीं इस्तेमाल कर सकते थे। तब अगर आपने यह स्टांप किसी और सादे कागज पर लगा दिया तो आपका पत्र बैरंग मान लिया जाता था। विद्यार्थी को यह गलत लगा और एक बार उन्होंने अपने नाम एक ऐसा ही सरकारी स्टांप डाक टिकट सादे कागज में लगाकर खुद को ही पोस्ट किया। पत्र उनके पास पहुंचा पर बैरंग और उनसे पैसा लिया गया। उन्होंने पैसा चुकता कर दिया और उसके बाद कानपुर के पोस्ट मास्टर से लिखा-पढ़ी शुरू की। मामला अदालत में गया और अंतत: उनकी जीत हुई तथा डाक विभाग को अपना वह कानून बदलना पड़ा। इसके लिए उन्होंने अपने धीरज और अपनी दृढ़ता का परिचय दिया।
कलेक्टर से भिड़े, सरकारी नौकरी छोड़ी
गणेश शंकर विद्यार्थी कानपुर ट्रेजरी में नौकरी करते थे। एक दिन उन्हें फटे-पुराने नोट जलाने का काम दिया गया पर वे एक किताब पढ़ने में ऐसे तल्लीन हो गए कि उन्हें याद ही नहीं रहा कि नोट भी जलाने हैं और उसी समय कलेक्टर आ गया। वह गणेश शंकर के किताब पढ़ते देखकर आगबबूला हो गया और बोला- तुमने अपना काम नहीं किया? विद्यार्थी ने कहा कि जनाब मैं अपना काम पूरा करके ही जाऊंगा। अंग्रेज अफसर धमकाने के अंदाज में बोला- ध्यान रखना वरना मैं कामचोरों को बहुत दंड देता हूं। इतना सुनते ही उन्होंने कहा कि मैं कामचोर नहीं हूं। अंग्रेज भड़क गया और बोला तुमने ऐसी सिविल नाफरमानी कहां से सीखी? उन्होंने उसे अपनी पुस्तक दिखाते हुए कहा कि यहां से वह पत्रिका कर्मयुग थी, जिसे आजादी की चाह वाले कुछ लोग निकालते थे। अफसर चीखा- वेल, तुम कांग्रेसी है। मैं अभी तुमको नौकरी से निकालता हूं। विद्यार्थी ने कहा कि तुम क्या निकालोगे, मैं खुद ही तुम्हारी नौकरी छोड़ता हूं। वह 1913 का साल था। उन्होंने नौकरी छोड़ दी और अपने कुछ मित्रों की सहायता और दोस्ती के सहारे ‘प्रताप’ के नाम से एक साप्ताहिक पत्रिका निकाला।
गंगा जमुनी को बचाने के लिए हुए शहीद
1931 का साल था, उस समय यह गंगा-जमुनी तहजीब ब्रितानिया हुकूमत की “डिवाइड एंड रूल” की चालबाजी का शिकार हो रही थी। मार्च में देश भीषण सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसने लगा। यहीं घंटाघर से परेड की ओर जाने वाली नई सड़क पर चौबेगोला वाली गली पड़ती है। 25 मार्च को कुछ मुस्लिम परिवार के लोगों को साथ लिए एक छरहरे शरीर का शख्स बदहवाश सी हालत में नई सड़क से चौबेगोला गली में घुसा। पीछे से मारो-काटो औरतों-बच्चों की चीख पुकार सुनाई दे रही थी। वह शख्स उन लोगों को चौबेगोला में उनके घर के दरवाजे से भीतर दाखिल करवाने के बाद लौट पड़ा। गली से जैसे ही करीब तीस-चालीस मीटर आगे नई सड़क में खुलने वाले मुहाने पर पहुंचा। एक अंधी- भीड़ ने घेर लिया। किसी के चाकू, किसी के चापड़ ने सफेद कुर्ते को चाक करते हुए खून से लाल कर दिया। बदहवाश सा यह शख्स वापस गली में मुड़ा और चंद कदम आगे जाकर वहीं गिर पड़ा। खून से लतपत इस बेटे को धरती मां ने आगे बढ़कर अपने सीने से लगा लिया।
किसी को फुर्सत नहीं दो फूल चढ़ाने की
शहर की इस विरासत को बचाने में अपनी जान गंवा देने वाले विद्यार्थी जी की 26 अक्टूबर को जयंती है। पर शहर की आबोहवा ऐसी बदल चुकी है कि यहां आइपीएल का पता चलता है, डांस-नाइट प्रोग्राम्स का पता चलता है पर शहर की थाती इन सपूतों की कोई खबर नहीं रहती। चौबेगोला गली में कुछ बरस पहले वहां पर शहीद स्थल बनाने और विद्यार्थी जी का स्मारक बनाने का दावा विधानसभा में विधायक जी ने किया था। वहां पर लगा पत्थर तो जाने कब का उखड़ चुका है। वहीं, फूलबाग के गणेश उद्यान में मल्टीप्लेक्स पार्किंग के निर्माण के चलते उनकी प्रतिमा पर से बोरी तक नहीं हटाई गई। कोई झांकने तक नहीं पहुंचा। ऐसा ही रहा तो गंगा- जमुनी तहजीब का दावा करने वाले इस शहर को लोग यह कहने लगेंगे कि शहीदों की यादों को भुलाने में कानपुर का कोई मुकाबला नहीं।