उठ, खड़ा हो जा और चल सपनों को इक पहचान दे।
कंपितों की भावना, उद्वेग मे क्यों बह गया,
जो सोच कर आया था वह संकोच मे क्यों रह गया,
स्व मे इतना दृढ़ नहीं प्रतिशोध की भाव भंगिमा,
जो रोष को अंजाम देने चल दिया इक पुलिंदा।
ख्वाब लेकर चल दिया सुख-साधनों को तज दिया,
बैठा तिमिर की छाँव मे सुख को स्वयं मे भज लिया,
हो गई है रात क्या! जो सोच कर सोने लगा,
ढह गई आधी उमर भयभीत क्यों होने लगा।
नीद कैसे आ रही ये मन को क्यों बहला रही,
अब भी नहीं, तब भी नहीं, कुछ नहीं करता है क्यूँ ,
वक्त के संयोग को साकार क्यों करता नहीं,
अपने मन पर अंकुशों के बांध क्यों बुनता नहीं।
दृढ़ प्रतिज्ञा कर ले खुद से भाव को भयभीत कर,
गर्दिशों की राह मे चल खुद को पथ पर क्षीण कर,
बंदिशे मन पे लगा ख्वाब को अंजाम दे,
जो हो गई गलती उसे अब आज का न नाम दे।
उठ, खड़ा हो जा और चल सपनों को एक पहचान दे।