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" वक़्त "

19 अगस्त 2015

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featured imageवक़्त -ए -सफर करीब है, बिस्तर समेट लूँ बिखरा हुआ हयात का ये दफ्तर समेट लूँ फिर जाने हम मिलें ना मिलें ज़रा रुकें मै दिल के आईने में ये मंज़र समेट लूं गैरों ने जो सुलूक किए उनका क्या गिला फेंकें हैं, दोस्तों ने जो "पत्थर" समेट लूं कल जाने कैसे होंगे, कहाँ होंगे, घर के लोग आँखों में एक बार, भरा - पूरा घर समेट लूं "राज" भड़क रही है, ज़माने में जितनी आग जी चाहता है, सीने के अंदर इसे समेट लूं !!!

रणबीर सिंह कुशवाह की अन्य किताबें

प्रियंका शर्मा

प्रियंका शर्मा

फेंकें हैं, दोस्तों ने जो "पत्थर" समेट लूं ।... बहुत काम ही सच्चे मित्र होते है अब ।.

22 अगस्त 2015

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" वक़्त "

19 अगस्त 2015
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वक़्त -ए -सफर करीब है, बिस्तर समेट लूँ बिखरा हुआ हयात का ये दफ्तर समेट लूँ फिर जाने हम मिलें ना मिलें ज़रा रुकें मै दिल के आईने में ये मंज़र समेट लूं गैरों ने जो सुलूक किए उनका क्या गिलाफेंकें हैं, दोस्तों ने जो "पत्थर" समेट लूंकल जाने कैसे होंगे, कहाँ होंगे, घर के लोग आँखों में एक बार, भरा - पूरा घर

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" मेरी माँ "

22 अगस्त 2015
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हंसती होगी , रोती होगी , हंसती होगी माँ रात को घर के किस कमरे में जलती होगी माँ बाप का मरना मेरे लिए जब इतना भारी है उसके बिना तो रोज ही जीती मरती होगी माँ पानी का नलका खोला तो आंसू बह निकलेगहरे कुंएं से पानी कैसे भरती होगी माँ मेरी खातिर अब भी चाँद बनाती होगी नाजब भी तवे पर घर की रोटी पकाती होगी मा

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" प्यारी माँ "

7 सितम्बर 2015
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प्यारी माँ मुझ को तुम्हारी दुआ चाहिए तुम्हारे आंचल की ठंडी-ठंडी हवा चाहिए प्यारी माँ मुझ को तुम्हारी दुआ चाहिए लोरी गा-गा के मुझ को सुलाती हो तुम मुस्कुरा कर सवेरे- सवेरे जगाती हो तुम मुझ को इस के सिवाय और क्या चाहिए प्यारी माँ मुझ को तुम्हारी दुआ चाहिए तुम्हारे आंचल की ठंडी-ठंडी हवा चाहिए तुम्हारी

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'' तुम्हारी याद ''

6 जुलाई 2016
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बहुत याद आती हो तुम गए पहर जब धूप पेड़ों की छत से डालियों की खिड़कियों तक उतरती है वो फर्श पर लिख जाती है कई-कई तरीकों से नाम तुम्हारा और एक दर्द सी एक याद सी बहुत सताती हो तुम शाम जब बादलों से आसमान घिरा होता है पंछी घर लौट रहे होते है मेरे ख्याल भी बिना तुम से मिले अनखुले खत से लौट आते हैं !!!

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सफर

9 सितम्बर 2016
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चल पड़ सफर पे, कोई तेरे साथ हो न हो हंस दे तू खुल के, कोई हसीं बात हो न होख्वाबों में हर रोज, मिलते रहना उससे तुम क्या जाने हकीकत में, मुलाकात हो न होजिससे भी मिलो खुल के, हँस के मिलो तुम न जाने कल को फिर यही, जज्बात हो न हो चंद रोज ''राज'' सुकून से दिन गुजार लो रौ

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