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व्यवहार की कुशलता के गुप्त रहस्य

14 जुलाई 2016

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गुप्त रहस्य छिपाये रखिए

न दूसरों से इतने खुल जाइये कि दूसरों को आपमें कुछ आकर्षण ही नहीं रहे, न इतने दूर ही रहिये कि लोग आपको मिथ्या अभिमानी या घमंडी समझें। मध्य मार्ग उचित है। दूसरों के यहाँ जाइये, मिलिए किन्तु अपनी गुप्त बातें अपने तक ही सीमित रखिए। “आपके पास बहुत सी उपयोगी मंत्रणायें, गुप्त भेद, ज्ञान विज्ञान संचित है”—दूसरों को अपने विषय में ऐसी धारणा बनाने दीजिये।

हँसी व्यवहार का आकर्षण है किन्तु ऐसी हँसी मजाक न कर बैठिए कि आपका काम दूसरे के अंतर्मन में पीड़ा उत्पन्न करे। यथा संभव दूसरों की न्यूनताओं तथा कमजोरियों पर हँसना मूर्खता है। जो काला कलूटा, काना, या बदतमीज है, उसे बीमार समझ कर अवहेलना ही कर देना श्रेष्ठ है। यदि आप चाहें तो एकान्त में मिलकर उसकी अशिष्टता का संकेत भर कर दीजिये। कोई भी अपनी कमजोरियाँ, अशिष्टताओं, चारित्रिक दुर्बलताओं को सुनना नहीं चाहता। आपकी हँसी पवित्र विनोद से सरस बने।

पराये घर जाकर अपना मनमाना व्यवहार न कीजिये। यथा संभव दूसरे के दृष्टिकोण तथा सुविधाओं का ध्यान रखिए। दूसरा आपको अपने घर, व्यक्तित्व, वस्तुओं, पशु, या बुद्धि के सम्बन्ध में अच्छे से अच्छा आभास देना चाहता है। वह चाहता है कि आप उसकी प्रत्येक वस्तु की प्रशंसा करें, उसकी बातें,कटु मृदु अनुभव दत्त चित्त होकर सुनें। यदि आप उसके घर को उसी के दृष्टिकोण से देखें, तो इसमें आपकी शिष्टता है।

चिढ़ाने वाले की उपेक्षा करें :-

यदि आपको चिढ़ाने, कुढ़ाने या अपमान करने के लिए कोई कुछ कहे या इशारा करे, गुप्त पत्रों से डरावे, दीवारों पर कुछ लिख दे तो उसकी अवहेलना कर देने से अपमान करने वाले को आन्तरिक पीड़ा पहुँचती है। चिढ़ाना एक प्रकार के दूषित संकेत हैं, जिन्हें ग्रहण करने से चिढ़ाने वाले को प्रसन्नता न ग्रहण करने से दुःख होता है। संकेत को न ग्रहण करना ही चिढ़ाने वाले के लिए सबसे बड़ी सजा है। तमाम अप्रिय संकेतों के विरुद्ध आप अपना व्यवहार पूर्ववत् रखिये। आपका निरपेक्ष स्वरूप, जिससे यह प्रतीत हो कि आपके ऊपर गाली, अपमान, दूसरे की चिढ़ाने वाली बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है, अपमान कर्त्ता को मानसिक क्लेश देने के लिए पर्याप्त है।

किसी की गुप्त बात को, जो न सुनना चाहता हो, न सुनिये, न जानने की व्यग्रता ही कीजिए। दूसरा व्यक्ति जब अपनी गुप्त बात छिपाता है, तो इसका दूसरा मतलब यह है कि वह मन ही मन आपकी गुरुता बड़प्पन, चालाकी, मानसिक श्रेष्ठता को स्वीकार करता है। उसकी दृष्टि में वह जिस गन्दगी को छिपाता है, उससे-मुक्त होना चाहता है। जब आप उसकी गुप्त बातों को जान लेते हैं, तो वह एक प्रकार की आत्म हीनता का अनुभव करता है और आपसे ईर्ष्या करता है। संभव है, यह ईर्ष्या आपको हानि पहुँचा कर शान्त हो। बात को आपसे गुप्त रखने में दूसरे की आकाँक्षा उससे मुक्ति पाना, उन्नति करना, उन दुर्गुणों को निकाल डालना रहता है। आपके विचार तथा मत से दूसरे को जो लाभ होता, वह उससे वंचित रह जाता है।

चिकित्सक के अलावा किसी अन्य को अपने अन्तर के जख्म, अपने दुःख-दर्द, व्यथाएँ मत दिखाइये। दूसरे केवल अपना मजाक ही बना कर रह जाएंगे।

झूठी भावुकता एक अभिशाप है :-

दूसरों से व्यवहार करने में ठंडा दिमाग चाहिए। अनेक अवसर ऐसे आयेंगे, जब दूसरे तैश में, क्रोध के उफान में, या ईर्ष्या की अग्नि में आप उत्तेजित हो उठेंगे। उत्तेजना और क्रोध का आवेश तीव्रता से आग की ज्वाला की भाँति बढ़ता है। यदि उसे दूसरी ओर से अर्थात् आपकी तरफ से भी वैसा ही वातावरण प्राप्त हो जाय, तो तमाम लौकिक व्यवहार टूट-फूट जायेंगे, आप अनाप शनाप कह बैठेंगे। गुस्से में ऐसी-2 गुप्त बातें आपके मुख से प्रगट हो जायेंगी, जो कदाचित आप कभी उच्चारण करना पसन्द न करते। उद्वेग एक तेजी से आने वाले तूफान की तरह है, जिसमें मनुष्य अन्धा हो जाता है। उसे नीर क्षीर का विवेक नहीं रहता। दूसरे को जोश में आया देखकर आप शान्त रहिए। उसकी उत्तेजना को ठंडा होने का अवसर दीजिए। ठंडे दिमाग का महत्व आप स्वयं देखेंगे जब दूसरा अपनी जल्दबाजी, आवेश की उत्तेजना, क्रोध, के आवेश पर क्षमा चाहेगा। आवेश में बुद्धि पंगु हो जाती है। हमें अपनी शक्ति का ज्ञान नहीं रहता।

इसी प्रकार झूठी भावुकता के पंजे में फँसकर दयार्द्र, या सहानुभूति में इतने द्रवित न हो जाइये कि दूसरे की आफत आपके गले आ पड़े। भावुकता में बह कर लोग बड़े-2 दान देने का वचन दे बैठते हैं; छात्र वृति के वायदे करते है; संस्थाओं की सहायता का वचन पक्का कर लेते हैं। दीन दुखियों, घर परिवार वालों की सहायता करना ठीक है किन्तु झूठी भावुकता के कारण अपनी मर्यादा या आर्थिक स्थिति से बाहर न निकल जाइये। यदि क्रोध, प्रतिहिंसा, तैश बुरे हैं, तो अधिक भावुकता, नर्मी, सहानुभूति, दया आदि भी अधिक अच्छे नहीं हैं। ये दो सीमाएँ हैं। चतुर व्यक्ति को इन दोनों के मध्य में शान्त चित्त होकर अपना दृष्टिकोण स्वभाव तथा आदतें निर्माण करनी चाहिए। न इतने कठोर ही बनिये कि दूसरे आपसे मिलना, बातें करना सलाह लेना पसन्द न करें, न इतने सरल दयावान, भावुक ही बन जाइये कि आपका कोई अस्तित्व ही न रह जाय और उपेक्षा की जाय।

समय का विवेक :-

जिस किसी को मिलने के लिए आप जो समय दें, उसी समय पर नियत स्थान पर मौजूद रहना चाहिए। जहाँ तक संभव हो प्रारम्भ ही में अपने कार्य, सुविधा, स्वास्थ्य या मित्रों को देख कर मिलने जुलने का समय दीजिए। कुछ व्यक्ति बड़े आलसी, लापरवाह, धोखेबाज होते हैं और ऐसा समय बतलाते हैं, जब वे घर पर उपस्थित नहीं होते। प्रायः कर्जदार, तकाजे वालों से यह व्यवहार किया जाता है। उत्तम तो यह है कि अनिश्चय की अवस्था में आप स्पष्ट कर दें कि नहीं मिल सकेंगे। नियत स्थान पर वायदे के अनुसार मिलना आपके चरित्र की नियमितता, निष्ठा, दृढ़ता, संयम और ईमानदारी प्रकट करता है। यदि नियत समय और ईमानदारी प्रकट करता है। यदि नियत समय पर कोई अप्रत्याशित कार्य भी आ पड़े तो कुछ न कुछ प्रबंध कर दूसरे को निराश नहीं करना चाहिए।

घर में भी अपने खाने, पीने, सोने, कार्य करने की पूर्व निश्चित एक योजना बनाया कीजिए। इस योजना को जहाँ तक हो न तोड़िये। वरन् प्रतिदिन कार्य पूरा न कर सकने की अवस्था में आत्म-प्रताड़ना कीजिये; और भविष्य में नियमित समय पर ही कार्य समाप्त कर लेने की प्रतिज्ञा कीजिए।

“इंडियन टाइम” भारतवासियों का कलंक है। इंडियन टाइम कह कर चिढ़ाने की जो प्रथा चल गई है, उसके जिम्मेदार हम ही हैं। समय की पाबन्दी कर हमें इस गन्दी आदत से मुक्ति प्राप्त करनी चाहिए।

मिलने जुलने के समय सावधानी :-

अपने व्यवहार में सहानुभूति, सत्याचार, प्रेम, दूसरे की सहूलियत का सदा ध्यान रखिए। अपने कार्यों को यदि आप दूसरों को दृष्टिकोण को देखें, तो आपको उनका औचित्य अनौचित्य प्रतीत होगा। आपकी जम्हाई, अपावन-वायु निष्कासन, खुजलाना नाक कुरेदना इत्यादि, दूसरों को कदापि प्रिय नहीं लगेंगे। दूसरों के सन्मुख ऐसा करना अपनी अपरिपक्वता का परिचय देना है।

यदि संयोग से आपको दूसरे का धक्का लग जाय, पाँव स्पर्श कर जाय, या अन्य कोई अशिष्ट कार्य अनजाने में हो जाय, तो आपको चाहिये कि तत्काल क्षमा याचना करने से आपका कुछ नहीं बिगड़ता; दूसरे व्यक्ति का मानसिक मैल धुल कर साफ हो जाता है। “क्षमा कीजिये”; “धन्यवाद”; “आप को बड़ा कष्ट हुआ”, “कृपा बनाये रखियेगा”, “मुआफ करें” इत्यादि, शिष्टाचार सूचक शब्दों का प्रयोग सरसता का संचार करता है। किसी से मिलते ही “नमस्ते”, “प्रणाम” या “कहिये मिज़ाज तो अच्छे हैं, घर पर सब ठीक ठाक है”—इत्यादि संबोधन प्रारम्भिक वार्तालाप में उपयोगी होते हैं। जब आप किसी से अपनी वार्ता समाप्त कर चुकें, तो “क्षमा कीजिये, आपका बहुत समय ले लिया है।” कह देना शिष्टता सूचक है। दूसरे व्यक्ति को भी शिष्टाचार वश कहना चाहिये, ‘कब दर्शन दीजियेगा’, ‘आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई’, ‘मिलते रहा कीजिये’ इत्यादि। इस प्रकार के वाक्यों से व्यवहार मधुर बनते हैं। मधुर वचनों के सम्बन्ध में कहा भी है—

“कहूँ-कहूँ गुण दोष ते, उपजत दुःख शरीर।

मधुरो बानी बोलके, परत पींजरे कीर ॥”

पत्र व्यवहार सम्बन्धी शिष्टाचार :-

पत्र व्यवहार सम्बन्धी शिष्टाचार की त्रुटियाँ अनेक बार कटुता का कारण बनती हैं। जो कोई आपको पत्र भेजता है, उसकी आन्तरिक इच्छा यह रहती है कि आप उसे उत्तर दें, परामर्श दें कुछ नई बात सिखायें, उन्नति में सहायता करें। किसी अजनबी का पत्र भी आये, तब भी शिष्टाचार वश पत्र का उत्तर तो दे ही देना चाहिये। पारिवारिक पत्रों के उत्तर न देने का यह बहाना किया जाता है कि “ये तो हमारे घर के ही आदमी हैं। जब अवकाश मिलेगा लिख देंगे।” यह धारणा नितान्त घृणित है। परिवार वालों को भी उत्तर लिखना, उतना ही आवश्यक है जितना मित्रों, अजनबी ग्राहकों, ऑफीसरों या अन्य व्यक्तियों के लिये है।

जिस किसी का भी पत्र आये, उसे सावधानी से अपने साथ रखिये। जब तक उसका उत्तर आप न लिख दें, जब तक उसे टेबल पर रखिये। उत्तर देने के पश्चात् भी उस पर उत्तर देने की तारीख लिखकर सुरक्षित रखिये। भविष्य में इसकी आवश्यकता पड़ सकती है। व्यापारियों को तो रजिस्टर या फाइल में पत्रों का आना जाना लिख रखना, पत्रों का संग्रह अतीव आवश्यक है। साहित्यिकों के पुराने पत्र एकत्रित होकर उनकी मृत्यु के उपरान्त बड़े-बड़े मूल्य पर बेचे गये हैं। उनके आधार पर पुराना इतिहास, डायरियों में साहित्य रचना हुई है। अतः आप प्रत्येक पत्र का उत्तर अवश्य दें, चाहे देर से ही सही।

आपका पत्र एक चपरासी का, या रेडियो का काम करते हैं। आपके विचार, योजनाएँ, दृष्टिकोण दूसरों के पास ले जाते हैं। पत्र न भेजकर आप अपने व्यक्तित्व को संकीर्ण बनाते हैं, अपनी अच्छाइयाँ रोकते हैं, दूसरों से कुछ सीख या सिखाकर जो ज्ञान पा सकते थे, उससे वंचित हो जाते हैं। दूसरे को पत्र न भेजकर उसे रुष्ट न करें। मित्रभाव निरन्तर बढ़ाते रहें। पत्र द्वारा आप सरलता से दूसरों के प्रति दिलचस्पी दिखा सकते हैं और स्थायी मित्रता का लाभ कर सकते हैं। दुकानदार पत्रों से अपने ग्राहकों को स्थिर रख सकते हैं।

लेन देन में सावधानी :-

यदि भूल से कोई वस्तु, दूसरे का पत्र, कलम, पुस्तक, रुमाल इत्यादि आपके पास आ गई है, तो शिष्टता इसी में है कि आप वस्तु को सधन्यवाद लौटा दें। चीजों को वापिस कर देने में पूरी पूरी सावधानी बरतने की आवश्यकता है। प्रायः लौटाई हुई चीज आपसे दुबारा माँगी जाती है। पुस्तकों के बारे में लड़ाई झगड़े तक छिड़ जाते हैं। उधार लेने वाले व्यक्तियों के ऊपर बड़ी जिम्मेदारी है। जो रुपया पैसा लिया जाता है, वह समय पर वापिस कर देने से आपकी साख बनी रहती है, बाजार में आपका मूल्य बढ़ जाता है। दूसरे आपको वस्तुएँ देने में संशय का अनुभव नहीं करते। इसके विपरीत रुपया पैसा, शादी के अवसर पर लिये हुये बर्तन, कुर्सियाँ, कालीन, दरियाँ इत्यादि पढ़ने के लिये ली हुई पुस्तकें समय पर सम्हाल कर लौटा देनी चाहिएं। किसी की सुन्दर वस्तु देखकर माँगने लग जाना असभ्यता है।

यथाशक्ति ऐसे अवसर मत आने दीजिये कि दूसरे के सामने हाथ पसारना पड़े। माँगने से प्रतिष्ठा को धब्बा लगता है। उधार लेना—चाहे वह वस्तु हो, पुस्तक, साइकिल, कलम या रुपया पैसा हो, हीन कार्य है। इससे समाज में बड़ी निंदा और अपकीर्ति फैलती है।

यदि रुपया उधार लेने की नौबत आ जाय, तो वायदे के अनुसार उसका ब्याज देते रहिये और उसे उतार कर ही दम लीजिये।

पुस्तकों या दवाइयों का वी॰ पी॰ लौटा दिया जाता है। यह नैतिक और व्यापारिक दोनों ही दृष्टियों से हेय है। आपकी साख नष्ट हो ही जाती है, व्यापारी को भी व्यर्थ की हानि उठानी पड़ती है। सावधान!

दूसरों की हानि :-

यदि भूल से आपका कुछ नुकसान दूसरे व्यक्ति के द्वारा हो गया है, तो आगबबूला होने की आवश्यकता नहीं है। साधारण रूप से समझा दीजिये। उसे अवसर मत दीजिये कि पुनः नुकसान पहुँचा सके।

भूल से दूसरे व्यक्ति द्वारा तुम्हारी जो हानि हुई है, उसे ठीक होने का अवसर दीजिये। यदि आपने दूसरे की कोई हानि करदी है, तो अपने परिश्रम द्वारा उसे पूरा कीजिये। उसको हर्जाना दीजिये। यदि आपकी साइकिल या मोटर द्वारा चोट लगी है, तो रोगी की चिकित्सा कराइये। आपकी असावधानी से यदि किसी को आर्थिक हानि पहुँची है, तो उसे पूर्ण कीजिये।

खरीदा हुआ माल वापिस करना उचित नहीं है। खरीदने से पहले दस बार सोचिये, परखिये, मित्रों को दिखाकर पसन्द कर लीजिये; किन्तु एक बार उसे खरीद कर वापिस करने चले जाना, या व्यर्थ क्रोध करना सर्वथा अनुचित है। ऐसा व्यक्ति बाजार में हीन दृष्टि से देखा जाता है।

किसी ने आपके लिए परिश्रम किया है, तो उसके परिश्रम का मूल्य अवश्य दीजिये। अधिक काम लेना और कम मजदूरी देना भी अनुचित है। पूरा और खरा काम लीजिये, किन्तु दूसरे की मजदूरी चुका देने में बड़े सतर्क रहिये।

सम्भव है कोई व्यक्ति रुपये के रूप में आपसे मजदूरी न लेना चाहे। इस दशा में किसी अन्य रूप में, जैसे अपनी सेवा, उपहार या और कोई वस्तु देकर उसका बोझ आत्मा पर से हलका देना चाहिये, दूसरे के अहसान के बोझ में आदमी दब जाता है। वह उसके मन पर बैठा रहता है। उचित है कि उसे अवसर ही ने आने दिये जायं। “न किसी को उधार दीजिये, न उधार लीजिये”—यही सर्वश्रेष्ठ नियम है।

मित्र भाव की वृद्धि करते चलिये :-

सामाजिक व्यवहार मित्रता से चलते हैं। मित्र आड़े समय पर काम आते हैं; रुपये-पैसे, श्रम, सलाह सान्त्वना द्वारा सहायता करते हैं, व्यापार में तरक्की देते हैं। मित्र आपके सहायक होंगे। आपके अनेक जटिल काम निकल आयेंगे। आपकी दूसरों से जान पहिचान करा देंगे। मिलनसारी अधिक से अधिक बढ़ाइये। इसके लिये (1) दूसरों से प्रेम भाव रखें, (2) लेन देन चालू रखें,(3) खुशी रंज के अवसरों पर जाना कदापि न भूलें,(4) समय समय पर कुछ उपहार देना स्मरण रखें,(5) दूसरों के बच्चों से खूब वात्सल्य भाव बरतें और उसे अनुभव भी करें। प्रत्येक मनुष्य स्वभाव से अपने बच्चों को हृदय का एक टुकड़ा मानता है। बच्चों को प्रेम करना, उसकी प्रशंसा करना-मित्रता वृद्धि का अचूक उपाय है।

(6) उन्हीं बातों,कामों,पुस्तकों, विषयों की चर्चा कीजिये जिनमें मित्र रुचि रखते हों। दूसरों की रुचि पर बातें करने से घण्टों वे आपको अपनी बातें सुनाने को आतुर रहेंगे। गुप्त बातें तक प्रकट कर देंगे। आपको अपना प्रिय अभिन्न मानेंगे।

(7) मित्रों के यहाँ मिलने जाना न भूलिये। यादगार को ताजा रखने के लिये यह उचित है कि मय अपने कुटुम्ब के आप दूसरों के यहाँ जाया करें। प्रेमभाव बनाये रखें।

पत्र व्यवहार चालू रखिये। यदि दूसरा व्यक्ति भूलता भी है, तब भी आपको अपनी ओर से उनसे संपर्क जारी रखना चाहिये। जिस प्रकार मित्र के यहाँ जाना आवश्यक है, उसी प्रकार उसे तंग करना भी अनुचित है। यदि मित्र के कार्य का समय है, तो अनुचित ढंग से उसके समय का ध्यान रखते हुए उसे तंग न करो। किस समय वह अवकाश पाता है,उसका ध्यान रखो। उसकी अनुपस्थिति में उसके घर से न कोई चीज उठाओ, न इधर उधर चलते फिरो। चोरी करना, कलम पुस्तक इत्यादि ले जाना सज्जनता के विरुद्ध है।

आतिथ्य भावना का विकास :-

यदि कोई व्यक्ति आपसे मिलने के लिए आया हो, तो अधिक देर तक उसे बिठाये रखना उचित नहीं है। कुछ देर के लिए बिठा कर यथा सम्भव शीघ्र ही उससे बातचीत कीजिए।

कोई न कोई आये हुए अतिथि के समीप रहे, उससे बातचीत करता रहे, उसे काम में, दिलचस्प बातों में लगाये रखे। खाली छोड़कर चले जाना अशिष्टता है।

आये हुए अतिथि को पान, सुपारी, इलायची; सौंफ, लौंग, खोपरे की बारीक गिरी, या अन्य आवश्यक पदार्थ अवश्य भेंट कीजिये। ठण्डा जल पान कराइये। यदि सामर्थ्य है तो दूध, चाय या फल, लस्सी इत्यादि से उसकी खातिर कीजिये।

तुलसी की यह उक्ति स्मरण रखने योग्य है-

आवत ही हर्षे नहीं, नयनन नाहिं सनेह।

तुलसी तहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेह॥

अतिथि के प्रति आपके हृदय में स्नेह हो, आपके नेत्र हर्षित हो उठें, आपका गात पुलकित हो उठे, आप प्रेम विभोर हो जायं, यही सच्चा आतिथ्य है। प्रेम भरी मीठी बोली से जो प्रसन्नता होती है, उसके बराबर कोई भी खातिरदारी नहीं कर सकती। आपके प्रेम-वचन सबसे उत्तम सुश्रूषा हैं।

यदि भेंट के समय आपके पास कोई आवश्यक कार्य आ गया है, तो पहले आप आगन्तुक से अनुमति लें फिर कहीं जायं।

भिक्षकों से व्यवहार

घर आये हुए भिक्षकों को यदि आप कुछ देना चाहते हैं, तो प्रसन्न मुद्रा तथा उदार हृदय से कुछ दे डालिये। शंकित मन, या आधे दिल से देने में कोई धर्म नहीं। भिक्षा को व्यापार या दूसरे के ऊपर एहसान समझ कर मत कीजिए। देकर कुछ पाने की इच्छा रखना मूर्खता है।

यदि उन्हें देने में आप समर्थ नहीं हैं, तो मानवता के नाते, उनका तिरस्कार मत कीजिये। प्रत्येक व्यक्ति भगवान का स्वरूप है। उसके हृदय में साक्षात् भगवान् विराजते हैं। जब आप भिक्षुक को दुत्कारते या झिड़कते हैं, या गन्दी गालियों का उच्चारण करते हैं, तो भगवान का निरादर करते हैं। उसे मानव मानिए, वही श्रद्धा दीजिये, समझा कर प्रेम पूर्वक हटा दीजिये। जो प्रेम आप भिक्षुक को देते हैं, वे उसके हृदय में विराजमान परमेश्वर के लिए श्रद्धा के फूल हैं।

किसी के ऊपर अपना एहसान न जताइये। छोटे-छोटे कार्यों का जिक्र करना ओछापन, संकुचितता, असभ्यता प्रकट करता है। दान का भी यह नियम है कि दूसरे के सामने स्पष्ट रूप से आत्म-विज्ञापन के लिए कहना उसके महत्व को कम करना है। गुप्त दान ही सर्वश्रेष्ठ दान है।

न्योते और दावतें :- 

जब आप दूसरों के यहाँ न्योते पर जायं, तो समय पर जाइये। जिस प्रकार आपको बैठाया जाय, उसी प्रकार बैठ कर भोजन कीजिए। हिन्दू घरों में चौके में बैठ कर भोजन कराने की प्रथा है। यदि आपको कोई विशेष परहेज न हो तो उसी प्रकार बैठकर आनन्दपूर्वक भोजन कीजिए। स्वयं अपनी ओर से कोई आवश्यकताएँ पेश न कीजिए। ‘धन्यवाद’ देना न भूलिए।

लौकिक व्यवहार में ‘धन्यवाद’, ‘नमस्ते’, कृपा, बनाए रखिएगा’ आदि शब्दों का प्रयोग बहुत कम व्यक्ति करते हैं। यह भावना विकसित करने की बड़ी आवश्यकता है।

अच्छाइयाँ देखा कीजिये :- 

गुण ग्राहक बनिए। दूसरों की कमजोरियाँ तथा कमियाँ निकालना बड़ा आसान कार्य है। हममें से कौन ऐसा है, जिसमें निर्बलताएँ मौजूद नहीं हैं। श्रेष्ठ तो यह है कि हम दूसरों के गुणों को परखें, जाने, समझें, उनकी दाद दें और उन्हें निरन्तर प्रोत्साहित करते रहें। वह व्यक्ति किस अर्थ का है, जो ईर्ष्या वश दूसरों की बुराई ही करता रहता है। उसके चरित्र के दुर्गुण ही निकलता रहता है। बुराइयाँ देखने की प्रवृत्ति एक मानसिक रोग है। इससे वृत्तियाँ नीचे की ओर गिरती हैं। अच्छाइयाँ देखने से गुणग्राहकता का गुण विकास होता है। जब आप दूसरों के गुण देख कर उन्हें व्यवहार में लाते हैं, तो दूसरे आपसे प्रसन्न रहते हैं। मित्रता भी बढ़ती है।

निन्दनीय बातें :-

यदि आपने अपने मित्र, सम्बन्धी या घर के व्यक्ति के विषय में कोई निन्दनीय बात सुनी है, तो उसे सबके सामने मत कह बैठिए। कोई अपनी निन्दा पसन्द नहीं करता। चोर, डाकू, कातिल तक अपनी बुराई अपने कानों से नहीं श्रवण करना चाहता। उसे अपनी प्रतिष्ठा, आत्म सम्मान,इज्जत का फिर भी ख्याल रहता है। उसके विषय में जो आप कहना चाहते हैं उसे एकान्त में ले जाकर सहानुभूति पूर्ण शब्दों में व्यक्त कीजिए। यह जोड़ देना मत भूलिए कि आप उस निन्दा में कोई विश्वास नहीं करते हैं। वह आपकी राय में गलत बातें हैं जिसमें कोई तथ्य नहीं है।

दूसरे का अपने प्रति विश्वास न तोड़ डालिये। आपके पास अपनी स्वयं की, मित्रों की, ऑफिसों, व्यापारियों, स्त्री, घर-बाहर पड़ौसियों की अनेक गुप्त बातें,चरित्र विषयक गुप्त बातें संचित रहती हैं। ये गुप्त भेद आपके पास रखे रहने तथा उनके प्रकाश में आपको सम्हल कर काम करना है। स्मरण रखिए ये गुप्त भेद दूसरों के समक्ष प्रकट करने में आप दूसरों के साथ बड़ी बेईमानी का व्यवहार करते हैं। अपने गुप्त भेद भी दूसरों से न कहिए। बैंकों में बड़े-बड़े पूँजीपतियों का हिसाब रहता है, कुछ का दिवाला निकलने को रहता है,किन्तु बाहर से टीप-टाप बनी रहती है। यदि दुकानदारों, व्यापारियों, पूँजीपतियों या बड़े नेताओं के गुप्त भेद खुल जायं, तो समाज में उनका निरादर हो जाय।

सहिष्णुता के व्यवहार की आवश्यकता :-

विश्वासी बनिए। बिना विश्वास के काम नहीं चलता। किन्तु जिस पर विश्वास करना है, उसे बुद्धि प्रलोभन,दृढ़ता आदि से खूब परख लो।

प्रत्येक वस्तु को अपनाने की, और अपने को परिस्थितियों के अनुसार ढालने की क्षमता रखो। उन्हीं वस्तुओं को, गुणों, व्यक्तियों, संस्थाओं तथा पुस्तकों को अपनाना सीखो जो तुम्हारे योग्य हों।

जीवन को प्यार करो, किन्तु मृत्यु का भय त्याग दो। जब मरने का समय आएगा,चल देंगे। अभी से क्यों उसकी चिंता करें। जीवन को यदि प्यार न करोगे, तो उससे हाथ धो बैठोगे। किन्तु जीवन को आवश्यकता से अधिक प्यार करने की आवश्यकता नहीं है।

दैनिक व्यवहार में सहनशीलता ऐसा आवश्यक गुण है, जिसके असंख्य लाभ हैं। तुम्हारे अफसर, ग्राहक, घर वाले झगड़ बैठेंगे,माता-पिता लड़ेंगे, स्वयं तुम्हारे बाल-बच्चे तुम्हारे दृष्टिकोण से सहमत न होंगे,ऐसे अवसरों पर तुम्हें शान्त आत्मनिर्भर,दृढ़ रहना है। सहिष्णुता ही तुम्हारे लिए भविष्य में प्रशस्त मार्ग खोल देती है।

अपने विचारों को बरबस मत थोपिये :-

जिस वीणा के तार बहुत कसे हुए होते हैं,उसका संगीत ठीक नहीं होता। जब उसके तार ढीले होते हैं,तो उसकी ध्वनि मधुर नहीं रहती। लेकिन जब वीणा के तार न अधिक कसे होते हैं, न अधिक ढीले,तब इसके तारों से मधुर संगीत निकलता है। यही हाल मनुष्य के शरीर,व्यवहार तथा साँसारिक सम्बन्धों का है। जब तुम संसार के साथ कठोरता का व्यवहार करोगे, वह थक कर तुम्हारी ओर से वीतराग हो जायगा और तुम्हारी तरफ से लापरवाह रहेगा। जब तुम इसके साथ बहुत मुलामियत का व्यवहार करोगे, तो कोई तुम्हारी भावनाओं,दृष्टिकोणों,विचारधारा और व्यक्तित्व का महत्व न मानेगा। यदि तुम मध्य मार्ग का अनुसरण करोगे, तो जीवन के हर मोर्चे पर विजयी होंगे।

दूसरों को अपने विचार समझाइए। अपने विचार मत थोपिए। उन्हें आपके विचारों तक स्वयं तर्क करके आने दीजिए। सच्ची शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य लोगों से ठीक बात करना ही नहीं,वरन् ठीक बातों के करने में आनन्द अनुभव करना है। केवल परिश्रम में प्रेम का अनुभव करना है।

उपदेश देने की मूर्खताएं

बिना सोचे समझे, चाहे जिसको उपदेश न दे बैठिए, क्योंकि उपदेश जनता ना पसन्द करती है। उन्हें तर्क द्वारा आपके निष्कर्षों पर आना चाहिए। धीरे धीरे तर्क तथा बुद्धि से अपने मन्तव्यों पर लाइए।

धन के लोभ में उपदेश देने में धर्म का नाश होता है। किसी जिज्ञासु के पूछने पर अच्छी तरह उसका जिज्ञासा को समझ कर उपदेश दीजिए जिससे धर्म की हानि न हो।

सत्य,दान, क्षमा, अहिंसा, शिक्षा और बुद्धिमता आदि सद्गुण यदि शूद्र में हों तो वह शूद्र नहीं है; और जिस ब्राह्मण में ये गुण नहीं है; वह ब्राह्मण ही नहीं है। आपका व्यवहार दूसरों के उच्च गुणों को दृष्टि में रख कर होना चाहिए; न कि केवल उच्च जाति या पूँजी की कसौटी पर।

मनुष्य जो स्वयं दूसरों को दे; उसे भूल जाय; और जो दूसरों से ले; उसे सर्वथा स्मरण रखे; और उसका बदला उतार देने का प्रयत्न करे। सद्व्यवहार की यही जड़ है। खेद है कि लोग झूठ को दस वर्ष तक याद रखते है; पर सत्य को दस मिनट में विस्मृत कर बैठते हैं।

मनुष्य के दिमाग की तरह लचीली चीज और कोई नहीं है। बन्द की हुई भाप की तरह जितना ही दबाव इस पर पड़ता है; उतनी ही शक्ति से यह दबाव के साथ लड़ता है। जितना अधिक विकास इस पर आ पड़ता है; उतना ही अधिक यह उसे पूर्ण कर लेता है।

बकवास एक अशिष्टता :-

ज्यादा बोलना घमंड का प्रदर्शन है, क्योंकि जो बातूनी, शेखीखोरी, टीपटाप वाला व्यक्ति होता है, वह काम कम करता है।

मनुष्य को यह स्वीकार कर लेने में कभी संकोच नहीं करना चाहिए कि उसने गलती की है। गलती को मान लेने में आपके धैर्य और आगे से उसके विषय में सावधानी, प्रकट होती है। दूसरे शब्दों में इसका यह अर्थ हुआ कि बीते हुए कल से आज अधिक बुद्धिमान है।

बेवकूफ व्यक्ति भय से पहले ही डर जाता है; कायर भय के समय ही डरता है; और साहसी भय पश्चात् डरता है।

लोक व्यवहार में केवल वही विजयी हो सकता है, जिसे अपनी कुशलता, विद्या, बुद्धि, योग्यता और विजय में विश्वास हो।

अपने को धोखा देना सबसे सरल है; क्योंकि हम जो चाहते हैं, उस पर फौरन विश्वास कर लेते हैं। इन हवाई किलों से निकलने की आवश्यकता है। अपने लिए ऐसी कल्पनाएं न बनाइये जिसमें कुछ सार न हो; जो कभी न हों, जिसके लिए आप हमेशा दूसरों को कोसते रहें; कल्पित झगड़ों में आन्तरिक समस्वरता शान्ति, आशा और अपने हाथ से जो उन्नति संभव है; उसे भी छोड़ बैठें। आप तो यह मान कर चलिए कि दूसरों से कुछ सहायता, पैसा या पथ प्रदर्शन न मिलेगा। यदि कोई सज्जन मदद देते हैं, तो यह उनकी विशेष अनुकम्पा मान कर ही ग्रहण कीजिए। स्वयं अपने ऊपर ही निर्भर रहना श्रेष्ठ धर्म है।

बेवकूफ व्यक्ति नहीं छिपता। वह चाहे सुनहले वस्त्र पहिन ले, बड़े आलीशान मकानों में निवास करे, अफसर बनाकर शासन की कुर्सी पर बिठा दिया जाय लेकिन उसकी बेवकूफियाँ कभी न छिपेंगी। बातचीत में, सामाजिक आचार व्यवहार में, वे अवश्य प्रकट हो जायेंगी। कहा भी है—

“भले बुरे सब एक से, जब तक बोलत नाहिं।”

“जान परत है काक पिक ऋतु बसन्त के माहिं;”

बुद्ध के इस वचन में गहरा तथ्य है :—

“मैं अज्ञानियों को ज्ञान से तृप्त करने आया हूँ। जब तक कोई मनुष्य प्राणियों के हित के लिए जान न लड़ादे, परित्यक्तों को साँत्वना न दे, तब तक वह पूर्ण नहीं हो सकता। मेरा सिद्धान्त करुणा का सिद्धान्त है। इसी कारण जो लोग दुनिया में खुशहाल हैं,वे मेरे सिद्धान्त को मुश्किल से समझते हैं। निर्वाण का मार्ग सबके लिए खुला हुआ है।”

रवीन्द्र  सिंह  यादव

रवीन्द्र सिंह यादव

सारगर्भित लेख.

27 दिसम्बर 2016

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रचनाएँ
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देखिए आपको लगता है उसने गलत किया लेकिन अगर हम उनसे पूछे तो वो भी कहेंगे की नहीं मैंने सही किया अगर उन्हें लगता की ये गलत है तो वो करते ही ना।आपको कर्मो की गहन गति के बारे में भी सोचना चाहिए। क्योंकि जो भी आत्मा हमारे सम्बन्ध में आ रही है तो वो अपना पीछे के जन्मो का रहा हुआ हिसाब चुक्तु करने के लिए हमारे सम्बन्ध में आई है। तो अगर रिटर्न में अगर आप ने भी कुछ गलत भावना मन में रख ली या कुछ बुरा भला कह दिया या कर्मिन्द्रियों से कर दिया तो आपका हिसाब ख़तम होने की बजाए फिर से शुरू हो जाएगा। तो आप सोचे की वो आत्मा अपना हिसाब लेने आई थी और लेकर चली गयी। या अभी मेरा हिसाब उनसे चुक्तु हो रहा है।उन्होंने गलत किया तो उसकी सजा उनको मिलेगी लेकिन रिटर्न में आपने भी गलत किया तो आप भी सजा में बराबर के भागीदार हो गए न...बाकी न्यायधीश वो गॉड है सही और गलत वो जाने उन्होंने कभी नहीं कहा किसी बच्चे को की तुम गलत हो तो हम कैसे कह सकते है। वो तो सभी को प्यार ही करते है ना। क्यूकि सिद्धांत बनाया है की कर्म का फल तो मिलना ही है चाहे वह अच्छा हो या बुरा।बाकी एक विधि और भी है आप उन्हें अमृतवेले में उस शक्ति के सामने इमर्ज करे और उनसे क्षमा मांग ले और उन्हें भी क्षमा कर दे। ये अभ्यास आप सात दिन तक करे तो उनके मन में भी आपके प्रति प्रेमभाव पैदा हो जाएगा /
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बलिष्ठ आत्मा

28 मई 2016
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हम सभी आत्माओ को स्वयं भगवान सम्मान दे रहे हैं । सोचो, जिन्हे भगवान सम्मान देते हैं वह भला मनुष्यो से मान की कामना क्यों करे । जिस शक्ति ने यह सभी कामनाये समाप्त कर दी थी । वह ऐसी रोयल्टि में स्थित हो गये थे जिन्हे किसी से कुछ भी नहीं चाहिए था । हम भी अपने संस्कारो को बहुत रोयल बनाये और इसका आधार है

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सफल व्यक्ति बनने के 10 मन्त्र

2 जून 2016
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आप भीस्वयं को सही रूप मे समझने का प्रयत्न कीजिए, स्वयंका समुचित मूल्यांकन कीजिए और उसके बाद स्वयं को उसके अनुसार बदलने का प्रयासकीजिए। इन सब के लिए अपने मस्तिष्क को निम्न 10 प्रभावशालीतथ्यो से बारम्बार स्मरण कराते रहिए-1. अपने को स्वीकार कीजिए- आप जोभी है, जैसेभी है, जहांभी है उसी रूप मे अपने को स्व

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जीवन मे सफलता प्राप्‍त करने के लिए या लोकप्रिय बने रहने के लिए हैं।

3 जून 2016
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जीवन मे हम प्रतिक्षण नवीन अनुभव प्राप्‍त करते हैं और हमें प्रतिक्षण कई लोगो से मिलना होता है, अत: जीवन मे सफलता प्राप्‍त करने के लिए या लोकप्रिय बने रहने के लिए हैं।<!--[if !supportLists]-->1.     <!--[endif]-->हमेशा मुस्कराते रहिए। प्रसन्‍नता व मुस्कराहट बिखेरने वाले लोगो के सैकडो मित्र होते है। को

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व्यक्तित्व का विकास

7 जून 2016
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आत्मैवह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।आप ही अपना उद्धार करना होगा। सब कोई अपने आपको उबारे। सभी विषयोंमें स्वाधीनता, यानी मुक्ति की ओर अग्रसर होना ही पुरुषार्थ है।जिससे और लोग दैहिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वाधीनता की ओरअग्रसर हो सकें, उसमें सहायता देना और स्वयं भी उसी तरफबढ़ना ही परम पुरुषार्थ है

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क्या भगवान है

9 जून 2016
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कई लोग अज्ञानता वमान-गुमान वश प्रश्न करते हैं कि क्या भगवान का अस्तित्व है ? यदि है तो भगवान को किसने बनाया ? भगवान हैं तो कहाँहैं ? भगवान हैं तो दिखते क्यों नहीं ? दिखते नहीं इसका मतलब तो यही होना चाहिए कि भगवान हैं ही नहीं । आदि ।पिछले लेखों में हमबता चुके है कि हर चीज को बनाने वाला कोई न कोई होता

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व्यवहार की कुशलता के गुप्त रहस्य

14 जुलाई 2016
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गुप्त रहस्य छिपाये रखिएन दूसरों से इतने खुल जाइये कि दूसरों को आपमें कुछ आकर्षण ही नहीं रहे, न इतने दूर ही रहिये कि लोग आपको मिथ्या अभिमानी या घमंडी समझें। मध्य मार्ग उचित है। दूसरों के यहाँ जाइये, मिलिए किन्तु अपनी गुप्त बातें अपने तक ही सीमित रखिए। “आपके पास बहुत सी उपयोगी मंत्रणायें, गुप्त भेद, ज

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