आज बरसो बाद मैंने उस संदूक को देखा
जिसपर एक धुँधला सा नाम लिखा था
अक्षर धुँधला थे या मेरी आँखें कमज़ोर?
मालूम नहीं
संदूक खोलते ही,
हवा का झोंका मानो छू कर निकला हो मुझे
उसी ख़ुशबू की उम्मीद में,
जो कभी मेरे मन को शीतल कर देती थी
हर्षो-उल्लास से भर देती थी
पर उसकी जगह सिर्फ एक तेज़ दुर्गंध थी
भीतर झाँक कर देखा -
तो कुछ अस्थि पंजर पड़े थे
और एक पुरानी, जानी पहचानी सी तस्वीर थी
उस तस्वीर को छूते ही,
मानों एक नई दुनिया में चली गई मैं
नई नहीं, बरसो पुरानी दुनिया थी वो तो
तुम्हारे ख्वाबों की दुनिया थी वो तो
आख़िर ये तुम्हारे यादों के अस्थि पंजरग ही थे
जिन्हे मैं इस सैंडूक में रख कर भूल गई थी
और वो नाम किसका था जानते हो?