और सुबह होते ही धानी से मिलने गौशाला पहुंच गया और जानकी से राम-राम की, खुश रहो जानकी ने आशीर्वाद दिया और बोली...
अच्छा हुआ, छोटे ठाकुर आप आए ।
और रघु चाचा कैसे हैं? दुर्गेश ने पूछा
ठींक है, अभी खेत गये है, जानकी बोली
लेकिन दुर्गेश धानी के बारे में कैसे पूछे,ये ही सोच रहा था, इतने में धानी आ गई तो जानकी बोली बड़ी देर कर दी नहर से कपड़े धोकर लाने में और जा बाबा को खाना दे आ खेत पे, खाना बधां रखा है,भूखे हों आए होंगे तेरे बाबा।
अच्छा,अम्मा जाती हूं धानी बोली
और झोपड़ी के अंदर गई और खाना उठाया और खेत को चल दी।
कुछ देर जानकी से बात करके, दुर्गेश भी खेतों की तरफ चल दिया।
धानी, खेतों की तरफ चली जा रही थीं, इतने में दुर्गेश के अचानक सामने आ जाने से चौंक गई और बोली "डरा दिया छोटे ठाकुर", जैसे बचपन में राक्षसों वाली हरक़त करते थे बिल्कुल वैसे ही, धानी बोली।
और तुम भी बचपन में चुड़ैलो वाली हरकत किया करती थीं,याद है कुछ कि मुझे कितना परेशान करती थीं, मुझे पढ़ने ही नही देती थीं, दुर्गेश बोला।
तब मैं बच्ची थी, धानी ने कहा
हां,भाई अब तुम जवान हो गई हो, और सुंदर भी
दुर्गेश ने इतना कहा तो
धत्त! छोटे ठाकुर , धानी ने शर्माते हुए कहा
और कल तुम हवेली से भाग क्यो आई थी? दुर्गेश बोला
वो आपको देखकर डर लग गया था,कहीं आप बचपन की तरह फिर से मेरी चोटी ना खींच दो। धानी बोली।
अच्छा ऐसे, और दुर्गेश ने धानी की चोटी पकड़ कर खींच दी,
छोटे ठाकुर तुम वही बचपन वाले राक्षस हो
और गुस्सा करते हुए भाग गई।
उधर रघु के पास पहुंची तो रघु ने पूछा,का हुआ बिटिया? शकल काहे उतरी है,
कुछ नहीं बाबा,पैर में कांटा चुभ गया था,धानी ने कहा।
और अगले दिन दुर्गेश फिर खेतों की ओर चला गया, धानी से मिलने की चाह उसे आतुर कर रही थी और धानी को मनाना भी था वो रूठकर जो गई थी।
उसने देखा तो धानी खेतों में बैठकर अमरूद खा रही थी, उसके पास जाके बोला, मुझे भी अमरूद खिलाओ,
जैसे बचपन में खिलाती थी,बाग से चुरा कर।
मुझसे बात ना करो, छोटे ठाकुर, मुझे गुस्सा आ रहा है,धानी गुस्से से बोली।
अरे, काहे नाराज हो? दुर्गेश बोला
कल जो तुमने हमारी चोटी खींची थी, धानी बोली
अच्छा ठीक है, माफ़ कर दो
लो अब तो कान भी पकड़ लिए,कहो तो उठक-बैठक लगा दूं , दुर्गेश बोला।
अरे, नहीं छोटे ठाकुर ऐसा मत करो, मुझे पाप लगेगा।
अच्छा चलो माफ किया और ये लो अमरूद खाओ,उसी बाग से चुराए है।
और दोनों बैठ के अमरूद खाने लगे।
इसी तरह दिन गुजर रहे थे, दोनों कभी गांव की पहाड़ी पे, कभी नहर के किनारे, कभी अमरूद के बागों में साथ-साथ घूमने निकल जाते।
और इसी तरह नवरात्र भी आ गई, और दोनों के रिश्ते भी पक्के हो गऐ, और दुर्गेश का ब्याह होली बाद तय हुआ और धानी का अगले साल क्यो कि धानी के होने वाले दूल्हे की दादी को मरे, अभी एक साल नहीं हुआ था।
और एक दिन पता नहीं, किसने जाकर चित्रलेखा को बता दिया।
कि दुर्गेश और धानी साथ-साथ घूमते हैं।
चित्रलेखा ने तुरंत जानकी को बुला भेजा, और कड़े शब्दों में बहुत खरी-खोटी सुनाई, जानकी अपना सा मुंह लेकर वापस चली गई और घर जाकर धानी को खूब सुनाया और कहा तू घर से बाहर कदम भी नहीं रखेगी,तेरा ब्याह तय हो गया है, घर में रहाकर और कई दिन हो गये धानी दुर्गेश ना मिली।
उधर दुर्गेश परेशान था, धानी से ना मिल पाने के कारण।
और एक दिन जानकी बिमार पड़ गई,घर में लकड़ियां खत्म थी तो धानी को मजबूरन जंगल जाना पड़ा।शाम हो चली थीं, और धानी चली गई, और बादल घिर आये, इतने में क्या देखती है कि दुर्गेश उसका पीछा करते हुए,जंगल तक आ गया और गले लग के बोला, धानी तुम बात क्यो नही करतीं, मुझसे मिलना क्यो नही चाहती।
धानी अपने आप को छुड़ाते हुए बोली, छोटे ठाकुर क्या कर रहे हो , मेंरा ब्याह तय हो गया है और तुम्हारा भी।
लेकिन धानी मैं तुमसे प्यार करने लगा हूं और मुझे किसी की परवाह नहीं, दुर्गेश बोला।
लेकिन मुझे है,मैं अपने अम्मा-बाबा का नाम बदनाम नहीं कर सकती, धानी बोली।
बदनामी कैसी धानी? अभी चलो मैं सबको सबकुछ बता दूंगा,हम खुश नहीं रह पायेंगे, एक-दूसरे के बिना, दुर्गेश बोला
अब भी बताओ ,क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करती।
हां करती हूं, छोटे ठाकुर बचपन से करती हूं और तुम्हारे बिन नहीं रह सकती और दुर्गेश के गले लग गई और दोनों घर आने लगे सबसे बात करने तो बहुत जोर की बारिश होने लगी और अंधेरा भी हो गया, भीगते-भीगते गांव पहुंचे।
लेकिन उधर चित्रलेखा, दुर्गेश के घर जल्दी ना आने से परेशान थी,पता नहीं कहां चला गया और बारिश भी तेज हो रही है और उसने किसी से पता करवाया तो पता चला उसे धानी के पीछे-पीछे जंगल की तरफ देखा गया है, उसे बहुत गुस्सा आया और उसने रघु को बुलवाया और कहा कि तुम्हारी बेटी अपनी औकात भूल गई है, दुर्गेश से शादी करने के सपने देख रही है, ये कभी नहीं हो सकता, तुम ने एक दिन मेरा प्यार ठुकराया था, आज मैं तुम्हारी बेटी को ठुकराती हूं और ये गांव अभी इसी वक्त अपने परिवार के साथ छोड़ कर चले जाओ, जहां से आए थे।
रघु बोला, जानकी की तबियत खराब है और तेज बारिश हो रही है, ऐसे में कहां जाऊ।
मैं कुछ नहीं जानती, जो करना है करो, लेकिन गांव छोड़कर जाओ, चित्रलेखा बोली।
रघु वापस आ रहा था, उसने देखा दुर्गेश और धानी एक-दूसरे का हाथ थामे चले आ रहे हैं, रघु को गुस्सा आया और धानी को अपने साथ ले जाने लगा , दुर्गेश ने रोकने की कोशिश की,कि काका मेरी बात तो सुनिए लेकिन रघु ने एक ना मानी और बोला, बाद में बात करेंगे, छोटे ठाकुर घर जाइए ठाकुराइन आपका हवेली में इन्तजार कर रही है। दुर्गेश चला गया और रघु ने कुछ जरूरी सामान बांधा और परिवार के साथ निकल पड़ा , रातों-रात बिना किसी को बताये, नदिया की ओर, बारिश बहुत जोर से हो रही थी, बिजली भी कड़क रही थी, लेकिन रघु ने परवाह नहीं की,आज उसके आत्मसम्मान को ठेस लगी थी, और उसने एक नाव खोली जो कि बहने के डर से रस्सी से बंधी थी और परिवार को बैठाया और नाव खेने लगा लेकिन कुछ दूर जाकर नाव बेकाबू हो गई क्योंकि पानी का बहाव बहुत ज्यादा था और बारिश भी बहुत जोरों से हो रही थी और नाव डूबने लगी और थोड़ी देर बाद नाव डूब गई।
तभी चित्रलेखा का ध्यान टूटा, बाहर कुत्ते के भौंकने से।
दोपहर का समय है ,
साध्वी, सीढ़ियों पे उदास बैठी थीं ,तभी मन्दिर के पुरोहित जी अपने छड़ी के सहारे धीरे-धीरे चलते हुए,साध्वी के पास आकर बोले।
क्या हुआ बेटी? इतनी उदास क्यों बैठी हो?क्या परेशानी है,बोलो बेटी, पुरोहित जी बोले।
कुछ नहीं बाबा,बस थोड़ी थकान है, साध्वी बोली।
अपना ख्याल रखा कर बेटी,तेरे सिवा अब कौन है मेरा,अब तो पुरोहितन भी नहीं रही, जब तू आठ साल पहले मेरी और पुरोहितन की जिंदगी में आई तो तुझे देखकर लगा की वर्षों से जो हमारी जिंदगी में सन्तान की कमी थी, वो पूरी हो गई।
इतना कहते -कहते पुरोहित जी की आंखें भर आईं।
ऐसा क्यों कह रहे हैं बाबा, तुम्हारे रुप में मुझे भी तो मेरे बाबा मिल गये, तुम और पुरोहितन अम्मा ना होती तो मेरा क्या होता।
इतना कहकर साध्वी की आंखों से आंसू टपक पड़े।
अच्छा,अब खाना भी खिलाएगी कि बस ऐसे ही_____
चल उठ,खाना खाते हैं, बहुत भूख लगी है,
और आज क्या बनाया है, मेंरी बेटी ने, पुरोहित जी बोले।
ये रहा खाना, तुमने कहा था ना बाबा कि अब उम्र के हिसाब से तुम्हारे दांत कमजोर हो गये है तो कुछ ऐसा बनाया कर जो आसानी से खाया जाए तो ये रहा,दूध और दलिया, लौकी की सब्जी,आलू का भरता,हरी धनिया की चटनी और गेहूं की नरम-नरम रोटी।
बहुत अच्छा बेटी, कितना ख्याल रखती है तू मेरा ,पुरोहित जी बोले।
और साध्वी ने खाना परोस दिया और बोली लो बाबा खाओ।
अरे,तू नहीं खाएगी पुरोहित जी बोले।
नहीं बाबा मन नहीं है, मैं बाद में खा लूंगी, साध्वी बोली।
तू नहीं खाएगी तो मैं भी नहीं खाऊंगा, पुरोहित जी बोले।
क्या, तुम भी बाबा बच्चों जैसी जिद लेके बैठ जाते हो,साध्वी बोली।
तू भी तो दिन भर लोगों की सेवा में लगी रहती है, कभी तू भी आराम कर लिया कर, कितना काम करती है तू,पूरोहित जी बोले।
अच्छा चलो खा लेती हूं, नहीं तो बाबा तुम कुछ ना कुछ कहते रहोगे, साध्वी बोली।
और दोनों लोग खाना खाकर अपनी-अपनी कुटिया में आराम करने चले गए।
और थोड़ी देर बाद बादल घिर आए और बारिश होने लगी,तभी साध्वी अपने अतीत के उस दिन की बारिश वाली रात याद आ गई जिस दिन वो छोटे ठाकुर से दूर हुई थी।
क्रमशः....
सरोज वर्मा....