अरे, बड़ी ठाकुराइन आपकी परेशानी दूर करने का उपाय लेकर आए हैं,अब ज्यादा दुखी होबे की जरूरत ना है,मनकी काकी भागते हुए आई।
ठाकुराइन चित्रलेखा के चेहरे की उदासी साफ-साफ देखी जा सकती थीं, वो हमेशा ऐसे ही उदासीन रहती थीं। उनके चेहरे की हंसी शायद वर्षो पहले गायब हो गई थीं, और उन्होंने इसे नियति मान कर स्वीकार कर लिया था,शायद उन्हें पता था कि इस सब की वो ही दोषी हैं।
"अब क्या है काकी, काहे हांफते चली आ रही हो, ऐसा क्या हो गया," चित्रलेखा बोली।
"कुछ सुना ठाकुराइन, पता है जो अपने गांव से नदिया पार जो गांव पड़ता है ना।सुना है , उस गांव में एक साध्वी है, जो सबका दुःख-दरद हर लेंबे हैं, कोई निराश ना लौटा, बहुत नाम है, सुना है आठ साल से तपस्या कर रही है,मुख में ऐसा तेज है,सारा गांव इज्जत करें है।"
"तुझे कैसे मालूम", चित्रलेखा बोली।
"वो मेरी भतीजी है ना, वहीं ब्याही है, उसने कही।"
" हम तो कहते हैं, ठकुराइन , छोटी ठकुराइन को एक बार वहां ले चलते हैं, शायद कोई आराम लग जाए।"मनकी काकी बोली।
" कितने डांक्टर ,हकीम-वैद, बाबा-बैरागियो को दिखा चुके हैं, अभी तक तो आराम ना लगा,एक साध्वी क्या कर पाएगी।" चित्रलेखा बोली।
" वो तो भगवान भी पत्थर के होवे, लेकिन लोग तो माने है ना, और चमत्कार भी करें है", मनकी काकी बोली
"ठाकुराइन, कभी भी कुछ भी हो सकें है,शायद उसी साध्वी के हाथों छोटी ठकुराइन का उद्घार लिखा हो। '
चित्रलेखा मान गई,बहु को ले जाने के लिए तैयार हो गई।उधर छोटी ठाकुराइन इंद्राणी गुम-सुम उदास अपने पति दुर्गेश से कह रहीं थीं, शादी को इतने साल हो गए इस घर को मैं वारिस नहीं दे पायी। इतने में बाहर से आवाज आई,इन्दू
" आयी मां जी,"
" कहिए मां ,क्या बात है? "
" वो मनकी काकी कुछ कह रहीं थीं,सो सोचा तुम्हें बता दूं।"
इतने में मनकी आ गई, और सारी बात कही।इंद्राणी ने बिना किसी ना-नुकुर के बात मान ली।और दूसरे दिन सास-बहू और मनकी काकी निकल पड़े साध्वी से मिलने।नाव ही एक साधन था उधर तक जा ने का।बहुत भीड़ थी, तो मनकी काकी और चित्रलेखा बाहर ही रह गयी। इंद्राणी कुटिया के अन्दर चली गई, साध्वी के चेहरे पे एक अजब सी शांति थी, और एक तेज था, जो सबको पृभावित कर रहा था।इंद्राणी को देखकर साध्वी मुस्कुरा दी, और आने का कारण पूछा, इन्द्राणी ने सारी ब्यथा कह दी। साध्वी बोली घबराने की बात नहीं है, तुम्हें लगातार पांच महीने आना पड़ेगा, बाद मैं आ जाया करूंगी, तुम्हारे पास, साध्वी ने इन्द्राणी की नब्ज टटोली और कुछ जड़ी-बूटियां दी, और बताया कैसे ले ना है और इन्द्राणी प्रसाद लेकर बाहर आ गई।
चित्रलेखा ने कहा,चलो अब घर चलते हैं, वैसे भी काकी तुम्हारे कहने पे आए हैं, मेरा तो मन ही नहीं था, वैसे भी भरोसा नहीं रह गया है इन सब पर।
अच्छा तो हम मिलकर आते हैं, मनकी काकी बोली।
नहीं ,काकी अगर मां कह रही हैं कि घर चलो,तो चलो, इंद्राणी बोली।
और सब वापस आ गये।ऐसे ही डेढ़ महीना बीत गया, अचानक एक दिन इंद्राणी चक्कर खा कर गिर गई, दुर्गेश परेशान हो गया। और डॉक्टर को बुलाया गया, डॉक्टर ने इन्द्राणी की जांच की और कहा खुशखबरी है। ठाकुर साहब आप पिता बनने वाले हैं। दुर्गेश ने खुश होकर मां को आवाज दी, चित्रलेखा ने मां शब्द सुना और भागी , चली आई।क्योंकि मां बेटे में आठ सालों से कोई बात नहीं हुई थीं।।चित्रलेखा के आंसू रूकने का नाम नही ले रहे थे,वो दादी जो बनने वाली थी,और दूसरा,आज आठ सालो बाद उसके बेटे ने मां कहकर पुकारा था। दो साल पहले बडें ठाकुर साहब का स्वर्गवास हुआ था,दिल का दौरा पड़ने से,तब भी दुर्गा ने बात नही की थी ,लेकिन आज..
मनकी काकी बोली,सब साध्वी का प्रताप है,हमने कही थी ना,कि आज भी चमत्कार होवे है।कल ही सब साध्वी से भेंट करने चलेगे।
"चित्रलेखा बोली,हां काकी ज़रूर, और साध्वी ने पांच महीनों तक बुलाया भी है ना इन्दू को, दुर्गेश तुम भी चलोगे बेटा?"
"नहीं मां,कल बहुत जरूरी काम है, शहर जाना है, कचहरी में काम है, वो जो शहर में जमीन थी, जिस पे कुछ लोगों ने अवैध कब्जा कर लिया था,उसकी कल सुनवाई है, और आपको भी चलना है, गवाही देने।"
"ठीक है बेटा, तो कल काकी और इन्दू ही चले जाएंगे,क्यो कि साध्वी तो केवल गुरुवार को बैठती है, और अगले गुरुवार इन्दू को तीसरा महीना लग जाएगा।"
काकी और इन्द्राणी गई, लेकिन काकी ,साध्वी को देखकर हैरान हो गई, ऐसा कैसे हो सकें है, काकी का दीमाग घूमगया, भगवान ने कैसी लीला रची है,का होने वाला है, काकी साध्वी से मिले बिना बाहर आ गई। और माथे पे पसीने की बूंदें झलक आयी, और सोचने लगी, इतने दिनों बाद तो घर में खुशियां आईं हैं,अब क्या होगा। इतने में इंद्राणी ने पुकारा, काकी आप बिना मिले बाहर आ गई।
"अरे अंदर भीड़ ज्यादा थी, तो घुटन हो रही थीं। अब काकी क्या बताती, वर्षो पुरानी नौकरानी थी उस घर की, चित्रलेखा की सास के साथ आई थीं दहेज में, पहले ठाकुरों के यहां नौकरो को दहेज में दे ने का रिवाज था, और चित्रलेखा की सास ने अपने ससुराल के एक नौकर से उसकी शादी करा दी जो उसे पसंद था।"
इसलिए चित्रलेखा भी उसे इतनी इज्जत देती है,अब मनकी काकी बहुत बड़ी दुविधा में थी,इस तरह दिन बीत रहे थे कि तीसरा महीना आ गया, काकी सोच ही रही थीं कि चित्रलेखा और दुर्गेश को साध्वी से ना मिलने दिया जाए।
लेकिन एक दिन चित्रलेखा गिर पड़ी और पैर में मोंच आ गई, काकी ने सोचा,अब ठाकुराइन तो नहीं जा पाएगी लेकिन दुर्गेश का क्या?
दुर्गेश , इन्द्राणी और मनकी काकी चौथे महीने भी साध्वी से मिलने गए, मनकी काकी दुर्गेश को ले तो गई लेकिन सोच रही थी कि, ऐसा क्या करु कि दुर्गेश, साध्वी से ना मिल पाए।
बहुत भीड़ थी, लेकिन इस बार मनकी काकी दुर्गेश को नहीं रोक पाई , इन्द्राणी और दुर्गेश अंदर चले गए साध्वी से मिलने।
लेकिन साध्वी को देखकर दुर्गेश को पता नही ,क्या हो गया, वो तुरंत बाहर आ गया और मनकी काकी से पूछा, इन सब के बारे में आपको पता था, लेकिन मनकी काकी कुछ कह पाती,इससे पहले इंद्राणी वहां आ गई।और बोली आप इतनी जल्दी बाहर क्यो आ गये, साध्वी से मिले बिना।
और सब घर को चल पड़े, रास्ते भर दुर्गेश पता नही क्या सोचता रहा,उसको कुछ समझ नही आ रहा था कि ऐसा कैसे हो सकता है, जिन्दगी इतना बड़ा मजाक कैसे करें सकती मेरे साथ, इतने साल लग गए, खुद को संतुलित करने में और एक झटके में ही मेरा सन्तुलन बिगड़ गया।
तभी इंद्राणी ने दुर्गेश के कंधे पर हाथ रखा और बोली,क्या सोच रहे हैं, चलिए नाव से उतरिए,घर चलते हैं, और तीनों नाव से उतर गए, लेकिन मनकी काकी बहुत असमन्जस मे थी कि दुर्गेश को क्या जवाब दें और उधर दुर्गेश के मन में भी कई सवाल चल रहे थे, वो काकी से उनके जवाब चाहता था।
उधर चित्रलेखा मनकी काकी से कह रही थी, पता नहीं काकी लगता है, दुर्गेश की तबियत ठीक नहीं है, उदास और परेशान सा है,कल गुरूवार है और इन्दू को चौथा महीना लग गया है , कल साध्वी से मिलने जाना है, पिछली बार मैं मिल नहीं पायी थी, लेकिन इस बार जरूर मिल कर आऊंगी।
और अगले दिन काकी,इन्दू और चित्रलेखा साध्वी से मिलने गए और इस बार चित्रलेखा साध्वी से मिलने इन्दू के साथ अंदर चली गई और अंदर साध्वी और चित्रलेखा की नजरें मिली और दोनों एक-दूसरे को देखकर विचलित हो गई और चित्रलेखा बाहर आ गई। और मनकी काकी से कहा, शायद दुर्गेश इसलिए परेशान था, काकी तुमने बताया क्यो नही कि ये बात है।
हमे भी कुछ कहां पता था , ठाकुराइन वो हम जब पहली बार आए,तब ही पता चली साध्वी के बारे में।
और चित्रलेखा सोचने लगी , कैसे-कैसे खेल खिलाती है, हमें जिंदगी,जिस अतीत से मैं इतने साल से दूर भाग रही थी, वहीं मेंरा वर्तमान बन के मेरे सामने आ गया,अब क्या होगा?यही सोचकर वो परेशान हो रही थीं।सब साध्वी से मिल चुके थे, लेकिन कोई कुछ एक-दूसरे से कह नहीं रहा था।
घर पहुंच कर चित्रलेखा दिनभर परेशान रही, अजीब सी उथल-पुथल थी, उसके मन में,सोच रही थी, अगर सब कुछ अपने अनुसार ना चलाती तो शायद ज़िन्दगी इस मोड़ पर आकर ना ठहरती, लेकिन कैसे?उसे खानदान की इज्जत का डर जो था,लोग क्या सोचते?अगर वो दुर्गेश के कहे अनुसार चलती, लेकिन उसमें मेरा भी तो स्वार्थ था।
यही सोचते-सोचते, पता नहीं वो कब अपने अतीत के पन्नों को पलटने लगी।तीस साल पहले वो इसी हवेली में दुल्हन बनकर आई थी, बस सोलहवीं पार करके सत्रहवीं में लगी थी नाज़ुक सी,गोरा रंग,कंटीले नैन-नक्श,सटीले हाथ-पैर और गठा हुआ बदन, बहुत खूबसूरत थी वो,सास नजर उतारते ना थकती,बलाइयां ले लेकर निहाल हुई जाती। और चित्रलेखा के पति मानसिंह वो उससे दस साल बड़े थे, वो भी चित्रलेखा को बहुत प्यार करते थे, क्योकि पिता ठाकुर सुमेर सिंह का वर्षो पहले स्वर्गवास हो गया था तो जमींदारी की देखरेख उनके सर पे आ गई थीं, तो जमींदारी की वजह से ज्यादा वक्त नहीं दे पाते थे चित्रलेखा को। चित्रलेखा के विवाह को एक साल होने को था,अब वो अठारह की हो चली थी, तभी अचानक एक दिन एक घटना घटी, जिससे चित्रलेखा की जिंदगी में एक नया मोड़ आया, जो चित्रलेखा ने सोचा भी नहीं था।
एक दिन चित्रलेखा और उसकी सास सौभाग्यवती, मनकी काकी मन्दिर जा रहे थे कि एक पागल सांड ना जाने कहां से तीनों के सामने से दौड़ता हुआ आ रहा था, तीनों को सूझा ही नहीं कि क्या करें, इतने में ना जाने कहां से एक नवयुवक जिसकी उम्र होगी, कोई बीस-इक्कीस बीच में कूद पड़ा, तीनों को बचाने और सांड के सींगों में झूल गया, सांड ने उसे बहुत जोर से दूर पटक दिया और ना जाने कहां खेतों की तरफ अंदर चला गया।
उस नवयुवक को बहुत चोट आई, सौभाग्यवती घबरा गई, और उस नवयुवक को कुछ लोगों की मदद से घर ले आई।।
क्रमशः.....
सरोज वर्मा....