उधर सौभाग्यवती ने अपने बेटे मानसिंह से सारी घटना कह सुनाई, उसने बताया कि इस नवयुवक ने कैसे हमारी जान बचाई, तो मानसिंह उस नवयुवक से मिलने आए और उसका हाल-चाल पूछा और तीनों की जान बचाने के लिए धन्यवाद पृकट किया और उसके बारे में पूछा कि कौन हो और कहां रहते हो।
नवयुवक ने कहा कि मेरा नाम रघु है और मैं नदी के पार वाले गांव का हूं, मां-बाप बचपन में हैजे के पृकोप से भगवान के पास चले गए, कोई रिश्तेदार भी नहीं है मेरा, वर्षा ना होने से फसल खराब हो गई और कर्ज बहुत हो गया था, कर्ज ना चुका पाने से साहूकार ने सारी जमीन हथिया ली, मेरी झोपड़ी भी उसी जमीन पर थी, तो जमीन के साथ-साथ झोपड़ी भी चली गई, कुछ भी नहीं बचा तो मैं इस पार आपके गांव में आ गया और अभी दो ही दिन हुए आए ,तब से मन्दिर की सीढ़ियों पे रह रहा हूं, कोई थोड़ा बहुत पृसाद दे जाता है तो खा लेता हूं,रात को मन्दिर के पुजारी कुछ दे देते हैं खाने को बस ऐसे ही गुजर हो रही है, कोई काम भी नहीं है मेरे पास
इतना सुनकर ठाकुर मानसिंह बोले, तुम चिंता मत करो पहले ठीक हो जाओ, फिर हमारे यहां बहुत काम है, तुम्हें यहीं हम किसी काम पे लगा देंगे और तब तक तुम हवेली में रहकर आराम करो,तब तक तुम्हारी देखभाल मनकी काकी करेंगी, और मानसिंह चले गए।
और रघु मनकी काकी के कमरे में रहने लगा, मनकी काकी के भी कोई सन्तान नहीं थी तो वो भी रघु को बेटे की तरह मानकर दुलार लुटाने लगी। मनकी काकी की जिंदगी भी ऐसे ही गुजर गई कभी कोई सुख नहीं मिला, सौभाग्यवती के साथ दहेज में आ गई तो किशन को पसंद करने लगी तो सौभाग्यवती ने उन दोनों की शादी करवा दी, शादी को अभी पांच साल ही हुए होंगे कि एक दिन मनकी काकी के पति एक अड़ियल घोड़े को काबू में कर रहे थे तो घोड़े ने बहुत जोर की लात मारी और उनके पति किशन का सर पत्थर से जा टकराया और वो वही ढ़ेर हो गए।उनका एक बेटा भी था , जब वो दस साल का था तो उसे सांप ने डस लिया था और वो भी नहीं रहा।तो काकी रघु को अपने बेटे के रूप में पाकर थोड़ा खुश रहने लगी।
इधर रघु भी हवेली में काम करने लगा, उसे भी आसरा मिल गया, लेकिन उसे देखकर चित्रलेखा विचलित हो जाती, रघु के लिए चित्रलेखा के मन अलग ही भाव उठने लगे, वो उसके पास जा ने का कोई ना कोई बहाना ढूंढती रहती, उसका गठीला बदन और सुडौल बांहे देखकर वो अधीर हो जाती, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्या हो रहा है,वो हर पल रघु को अपने सामने देखना चाहती थी, शायद वो रघु को चाहने लगी थी,रघु को छुप-छुप कर निहारती रहती,उसका किसी काम में मन ना लगता।
एक दिन आखिर उसने हद पार कर दी और अकेले में रघु से लिपट गई और बोली रघु मैं तुम्हें चाहने लगी हूं, लेकिन रघु बोला, छोटी ठाकुराइन ये आप क्या कर रही है, ये सब आपको शोभा नही देता और खुद को छुड़ाकर चला गया और उसने ठाकुर साहब से कहकर अपना काम खेतों में लगवा लिया और किसी से भी उस दिन वाली घटना के बारे में नहीं कहा। और कुछ दिनों बाद उसने काकी से कहा_
माई,हमारा भी ब्याह करवा दो,कब तक हमें बनाकर खिलाती रहोगी, काकी बहुत खुश हुई और एक अनाथ लड़की जो ठाकुर साहब के खेतों में काम करती थी जिसका नाम जानकी था,रघु से ब्याह करा दिया।
जानकी,रघु की दुल्हन बनकर आ गई
रघु बहुत खुश था, जानकी को पाकर और जानकी भी खूब खुश थी कि कोई तो है इस दुनिया में जिसे वो अपना कह सकती है इसी तरह खुशी-खुशी दिन गुजर रहे थे।
उधर चित्रलेखा भी रघु को भुला ने का प्रयास कर रही थी और कुछ दिनों बाद चित्रलेखा ने खुशखबरी सुना दी कि वो मां बनने वाली हैं, सौभाग्यवती बहुत खुश हुई और ठाकुर मानसिंह भी खुश हुए और कुछ महीनों बाद चित्रलेखा को बेटा हुआ जिसका नाम ठाकुर दुर्गेश प्रताप सिंह रखा गया।
और उधर दुर्गेश एक साल का हुआ और जानकी ने भी खुशखबरी सुना दी और कुछ महीनों बाद उसे भी प्यारी सी बेटी हुई और उसका नाम रघु ने धानी रखा।
समय धीरे-धीरे गुजर रहा था,दोनो बच्चे साथ-साथ बड़े होने लगे और दोनो बच्चो की शरारतो से हवेली मे रौनक रहती,दोनो एक-दूसरे से लड़ते -झगडते बडे हो रहे थे। और इसी बीच सौभाग्यवती भी बिमारी के बाद चल बसी।
फिर आठवीं पास करके दुर्गेश आगे की पढा़ई के लिए अपने मामा के पास शहर चला गया।
उधर रघु ने अपनी झोपड़ी खेतों के पास ही बना ली थी, ठाकुर साहब की गौशाला भी वही थी, तो रघु और जानकी को गाय , भैंस,बैल और बछड़ों की देखरेख में आसानी होती थीं, लेकिन मनकी काकी को साथ नहीं ले गया, बोला माई तुम जिन्दगी भर हवेली में रहते आई हो, तुम यहीं आराम से रहो, वहां झोपड़ी में कैसे रहोगी?
धानी और दुर्गेश दूर-दूर रहकर बड़े तो हो रहे थे लेकिन दोनों के मन के किसी कोने में थोड़ा बहुत दर्द था एक-दूसरे से बिछड़ने का और कभी छुट्टियों में दुर्गेश आता तो धानी ज्यादा मिलने नहीं आती, क्योंकि जानकी हवेली में जाने से मना करती, उस को लगता था कि बेटी हवेली के रंग-ढंग देख के बिगड़ ना जाए,हम गरीब लोग ना उसको अच्छा पहना सकते हैं ना अच्छा खिला सकते हैं और ससुराल भी पता नहीं कैसा मिले, गरीब की बेटी है और गरीब घर ही ब्याही जाएगी।
इसी तरह दोनों बच्चे बड़े हो गए और उधर दुर्गेश अपने कालेज की पढ़ाई करके घर आ गया, क्योंकि अब ठाकुर साहब बीमार रहने लगे थे और उन्हें जमींदारी में एक सहायक की जरूरत थी,तो दुर्गेश को वापस आना पड़ा।उधर चित्रलेखा दुर्गेश के लिए दुल्हन ढूंढ रहुं थी, तभी उसके किसी रिश्तेदार ने एक रिश्ता बताया और चित्रलेखा ने हां कर दी और कहा हम छै महीने बाद नवरात्र में आयेंगे लड़की देखने।उधर,एक दिन काकी का बाजरे की रोटी और प्याज की चटनी खाने का मन था, तो जानकी से कह भिजवाया कि जरा धानी को भेज देना, तेरे हाथ की बाजरे की रोटी और प्याज की चटनी खाने का मन है,अब बूढ़े शरीर में ज्यादा चलने-फिरने की ताकत नहीं रह गई है तो मैं ना आ सकूंगी,तू भिजवा देना।
उधर काकी, धानी का बेसब्री से इंतजार कर रही थीं, हवेली के आंगन में, इतने मे दुर्गेश ने काकी से पूछा कि किसका इंतजार कर रही हो काकी? अपने लिए कोई दूल्हा ढूंढ लिया क्या?
कैसी बात कर रहे हो छोटे ठाकुर, वो तो हम मरी धानी का इंतजार कर रहे थे, जाने कहां मर गई चुड़ैल, बाजरे की रोटी और चटनी लाने वाली थी।
कौन, धानी ; वहीं जो बचपन में हमारी हवेली में रहा करती थी।
हां, वहीं
अभी तक नहीं आई
बहुत जोरों की भूख लग रही है
मैं भी खाऊंगा, मैंने भी जानकी चाची के हाथ का बना खाना बचपन से नहीं खाया,दुर्गेश बोला।
और इतने में धानी आ गई
और धानी को देखते ही , दुर्गेश अपनी सुध-बुध खो बैठा।
छोटे ठाकुर,इतना कहकर धानी खाना देकर भाग गई।
उधर , रघु भी धानी के लिए रिश्ता ढूंढ रहा था और उसे भी एक किसान लड़का मिल गया, जो कि अपने मां-बाप का इकलौता बेटा था, नवरात्र में रघु ने भी धानी का रिश्ता तय करने की सोची।
धानी को इतने सालों बाद देखकर, दुर्गेश का मन धानी से मिलने के लिए फिर करने लगा , दिन भर इसी उधेड़बुन में लगा रहा कि जाऊं कि नहीं और यही सोचते-सोचते शाम हो गई और फिर रात........
रात का खाना खाकर दुर्गेश अपने कमरे में गया और किताब पढ़ने लगा और अचानक उसे कुछ याद आ गया, उसने अपना बड़ा सा संदूक खोला और कुछ खोजने लगा , अचानक उसे वो छोटा-सा लकड़ी का बक्सा मिल गया जिसे वो ढूंढ रहा था जिसमें एक पैर की पायल,एक खाली स्याही की दवात और एक रिबन था,और वो पायल को हाथों में लेकर देख ही रहा था कि चित्रलेखा दूध लेकर आ गई और उसने दुर्गेश को आवाज दी तो दुर्गेश ने झटके से सब रख के संदूक बंद कर दिया और बोला हां मां आ जाइए।
ले दूध पी लें, आज तूने ठीक से खाना नही खाया, चित्रलेखा बोली, तबियत ठीक है तेरी!
हां,मां सब ठीक है वो दोपहर में जानकी चाची ने मनकी काकी के लिए बाजरे की रोटी और प्याज की चटनी भिजवाई थी, तो मैंने भी खा ली थी , दुर्गेश ने कहा।
अच्छा ठीक है, लेकिन उन लोगो से थोड़ी दूरी बनाए रखना,कहां वो और कहां हम चित्रलेखा बोली।
अच्छा अब सो जाओ, चित्रलेखा ने जाते हुए कहा
ठीक है ,मां दुर्गेश ने बिस्तर पर लेटते हुए कहा
लेकिन दुर्गेश की आंखों में नींद कहां? वो तो बस धानी के बारे में सोच रहा था और पक्का मन बना लिया कि कल जरूर धानी से मिल के रहेगा।
क्रमशः.....
सरोज वर्मा....