shabd-logo

ज़िंदगी की कश्मकश

30 अक्टूबर 2015

102 बार देखा गया 102

मन में उमंगें बहुत हैं, मंजिल को पाने की,
पर ना जाने क्यूँ , इक फिकर है रस्में निभाने की.

सोचता हूं निकल जाऊँ होकर रूसवा इस जमाने से,
फिर ना जाने क्यूँ डरने लगता हूँ मैं खुद को आजमाने से. - अमितR. शर्मा

अमित कुमार शर्मा की अन्य किताबें

ओम प्रकाश शर्मा

ओम प्रकाश शर्मा

मन में उमंगें बहुत हैं, मंजिल को पाने की.............बहुत खूब, अमित जी !

30 अक्टूबर 2015

1
रचनाएँ
Bestshayar
0.0
Love poems and shayari

किताब पढ़िए