महाभारत में अर्जुन , भीम , भीष्म पितामह , गुरु द्रोणाचार्य , कर्ण , जरासंध , शिशुपाल अश्वत्थामा आदि पराक्रमी योद्धाओं के पराक्रम के बारे में अक्सर चर्चा होती रहती है। किसी भी साधारण पुरुष के बारे में पूछें तो इनके बारे में ठीक ठाक जानकारी मिल हीं जाती है।
एक कर्ण को छोड़कर बाकि जितने भी उक्त महारथी थे उनको अपने समय उचित सम्मान भी मिला था । यद्यपि कर्ण को समाज में उचित सम्मान नहीं मिला था तथापि उसे अपने अपमान के प्रतिशोध लेने का भरपूर मौका भी मिला था ।
भीष्म पितामह और गुरु द्रोणाचार्य की तरह कुरुराज दुर्योधन ने कर्ण को कौरव सेना का सेनापति भी नियुक्त किया था। महार्षि वेदव्यास ने भीष्म पितामह और गुरु द्रोणाचार्य की तरह हीं महाभारत के एक अध्याय को कर्ण में नाम पर समर्पित किया था और इसे कर्ण पर्व के नाम से भी जाना जाता है।
इन सबकी मृत्यु कब और कैसे हुई , इसकी जानकारी हर जगह मिल हीं जाएगी , परन्तु महाभारत का एक और महान योद्धा जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण , जरासंध , शिशुपाल आदि जैसे महारथियों के समकक्ष माना , उसे महाभारत ग्रन्थ के महज कुछ पन्नों में समेट दिया गया । आइये देखते हैं कि महाभारत का वो महावीर और महा उपेक्षित योद्धा कौन था ?
महाभारत ग्रन्थ के द्रोणपर्व के घटोत्कचवध पर्व में इस महायोद्धा का वर्णन जरासंध आदि महारथियों के साथ आता है । जब अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से ये पूछते हैं कि उन्होंने पांडवों की सुरक्षा के लिए कौन कौन से उपाय किये , तब अध्याय एकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ,अर्थात अध्याय संख्या 181 में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को जरासंध आदि योद्धाओं के वध के बारे में बताते हैं । श्लोक संख्या 1 की शुरुआत कुछ इस प्रकार से होती हैं ।
अर्जुन उवाच कथमस्मद्धितार्थ ते कैश्च योगैर्जनार्दन।
जरासंधप्रभृतयो घातिताः पृथिवीश्वराः ॥1॥
अर्जुन ने पूछा जनार्दन, आपने हम लोगों के हित के लिये कैसे किन किन उपायों से जरासंध आदि राजाओं का वध कराया है ? ॥1॥
श्रीवासुदेव उवाच जरासंधश्चेदिराजो नैषादिश्च महाबलः।
यदि स्युर्न हताः पूर्वमिदानी स्युर्भयंकराः ॥2॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: हे अर्जुन , अगर जरासंघ, शिशुपाल और महाबली एकलव्य आदि ये पहले ही मारे न गये होते तो इस समय बड़े भयंकर सिद्ध होते ॥2॥
दुर्योधन उन श्रेष्ठ रथियों से अपनी सहायता के लिये अवश्य प्रार्थना करता और वे हमसे सर्वदा द्वेष रखने के कारण निश्चय ही वो कौरवों का पक्ष लेते ॥3॥
ते हि वीरा महेष्वासाः कृतास्त्रा दृढयोधिनः।
धार्तराष्ट्रां चमूं कृत्स्नां रक्षेयुरमरा इव ॥4॥
वे वीर महाधनुर्धर, अस्त्रविद्या के ज्ञाता तथा दृढ़ता पूर्वक युद्ध करनेवाले थे, अतः दुर्योधन की सारी सेना की देवताओं के समान रक्षा कर सकते थे ॥4॥
सूतपुत्रो जरासंधश्चेदिराजो निषादजः।
सुयोधनं समाश्रित्य जयेयुः पृथिवीमिमाम् ॥5॥
सूतपुत्र कर्ण, जरासंध, चेदिराज शिशुपाल और निषादनन्दन एकलव्य ये चारों मिलकर यदि दुर्योधन का पक्ष लेते तो इस पृथ्वी को अवश्य ही जीत लेते ॥5॥
योगैरपि हता यैस्ते तन्मे शृणु धनंजय ।
अजय्या हि विना योगैमधे ते दैवतैरपि ॥6॥
धनंजय , वे जिन उपायों से मारे गये हैं, उन्हें मैं बतलाता हूँ, मुझसे सुनो। बिना उपाय किये तो उन्हें युद्ध में देवता भी नहीं जीत सकते थे ॥6॥
एकैको हि पृथक् तेषां समस्तां सुरवाहिनीम् ।
योधयेत् समरे पार्थ लोकपालाभिरक्षिताम् ॥7॥
कुन्तीनन्दन , उनमें से अलग अलग एक-एक वीर ऐसा था, जो लोकपालों से सुरक्षित समस्त देवसेना के साथ समराङ्गण में अकेला ही युद्ध कर सकता था॥7॥
इस प्रकार हम देखते हैं कि अध्याय 181 के श्लोक संख्या 1 से श्लोक संख्या 7 तक भगवान श्रीकृष्ण पांडव के 4 महारथी शत्रुओ के नाम लेते हैं जिनके नाम कुछ इस प्रकार है कर्ण, जरासंध, चेदिराज शिशुपाल और निषादनन्दन एकलव्य।
यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण ने निषादनन्दन एकलव्य का नाम कर्ण, जरासंध, चेदिराज शिशुपाल जैसे महावीरों के साथ लिया है और आगे ये भी कहा है कि ये चारों मिलकर यदि दुर्योधन का पक्ष लेते तो इस पृथ्वी को अवश्य ही जीत लेते।
फिर एक एक करके इन सब शत्रुओ के वध के उपाय के बारे में बताते हैं । श्लोक संख्या 8 से श्लोक संख्या 16 तक भीम द्वारा महाबली जरासंध के साथ मल्लयुद्ध तथा फिर भीम द्वारा जरासंध के वध के में बताते हैं ।
जरासंध के वध के बारे में एक महत्वपूर्ण बात यह निकलकर आती है कि भीम के साथ उसके युद्ध होने के कछ दिनों पहले उसका श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम के साथ भी युद्ध हुआ था जिसमे कि जरासंध का गदा टूट गया था। जरासंध अपने उस गदा के साथ लगभग अपराजेय हीं था।
अगर भीम को जरासंध के साथ उस गदा के साथ युद्ध करना पड़ता तो वो उसे कभी जीत नहीं सकते थे। जरासंध के गदा विहीन होने के कारण हीं श्रीकृष्ण द्वारा सुझाए गए तरीके का अनुसरण करने पर भीम जरासंध का वध कर पाते हैं । आगे के श्लोक संख्या 17 से श्लोक 21 तक निषादनन्दन एकलव्य के पराक्रम और फिर आगे शिशुपाल के बारे में भगवान श्रीकृष्ण चर्चा करते हैं।
त्वद्धितार्थ च नैषादिरअष्ठेन वियोजितः।
द्रोणेनाचार्यकं कृत्वा छद्मना सत्यविक्रमः ॥ 17॥
तुम्हारे हित के लिये ही द्रोणाचार्य ने सत्य पराक्रमी एकलव्य का आचार्यत्व करके छल पूर्वक उसका अँगूठा कटवा दिया था ॥17॥
स तु बद्धा१लित्राणो नेषादिदृढविक्रमः।
अतिमानी वनचरो बभौ राम इवापरः ॥18॥
सुदृढ़ पराक्रम से सम्पन्न अत्यन्त अभिमानी एकलव्य जब हाथों में दस्ताने पहनकर वन में विचरता, उस समय दूसरे परशुराम के समान जान पड़ता था॥18॥
एकलव्यं हि साङ्गुष्ठमशका देवदानवाः ।
सराक्षसोरगाः पार्थ विजेतुं युधि कर्हिचित् ॥19॥
भगवान श्रीकृष्ण एकलव्य के बचपन में घटी उस घटना का जिक्र करते हैं जब छल द्वारा गुरु द्रोणाचार्य ने उससे उसका अंगूठा मांग लिया था। शायद यही कारण है कि कृष्ण एकलव्य के बारे में बताते हैं कि वो हाथ में दस्ताने पहनकर वन में विचरता था। अंगूठा कट जाने के कारण एकलव्य शायद अपने हाथों को बचाने के लिए ऐसा करता होगा।
एकलव्य के बचपन की कहानी कुछ इस प्रकार है। निषाद पुत्र एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा ग्रहण करना चाहता था , परन्तु जाति व्यवस्था की बेड़ियों में जकड़े हुए सामाजिक व्यवस्था के आरोपित किए गए बंधन के कारण गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को अस्त्र और शस्त्रों का ज्ञान देने से मना कर दिया था।
एक बार गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्यों कौरवों और पांडवों के साथ वन में भ्रमण करने को निकले तो उनके साथ साथ पांडवों का पालतू कुत्ता भी चल रहा था। वो कुत्ता इधर उधर घूमते हुए वन में उस जगह जा पहुंचा जहां एकलव्य अभ्यास कर रहा था। एकलव्य को धनुर्विद्या का अभ्यास करते देख वो जोर जोर से भौंकने लगा।
घटना यूं घटी थी कि गुरु द्रोणाचार्य के मना करने पर एकलव्य ने हार नहीं मानी और गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर , उन्हीं को अपना गुरु बना लिया और धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। उस समय जब एकलव्य अभ्यास कर रहा था तो पांडवों का वो ही पालतू कुत्ता बार बार भौंक कर उसके अभ्यास में विघ्न पैदा करने लगा।
मजबूर होकर एकलव्य ने उस कुत्ते की मुख में वाणों की ऐसी वर्षा कर दी कि कुत्ते का मुख भी बंद हो गया और कुत्ते को कोई चोट भी नहीं पहुंची । उसकी ऐसी प्रतिभा देखकर सारे पांडव जन , विशेषकर अर्जुन बहुत चिंतित हुए क्योकि उस तरह वाणों के चलाने की निपुणता तो अर्जुन में भी नहीं थी ।
जब ये बात गुरु द्रोणाचार्य को पता चली तो उन्होंने एकलव्य से गुरु दक्षिणा में उसका अंगूठा मांग लिया क्योंकि एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा स्थापित कर उन्हीं को अपना गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था । एकलव्य की भी महानता इस बात से भी झलकती है कि गुरु के कहने पर उसने अपना अंगूठा हँसते हँसते गुरु द्रोणाचार्य को दान में दे दिया ।
एक तरफ तो वो गुरु थे जो सामाजिक व्यवस्था की जकड़न के कारण एकलव्य को शिक्षा देने से मना कर देते हैं तो दूसरी तरफ वो ही शिष्य एकलव्य है जो उसी गुरु के मांगने पर हंसते हंसते अपना अंगूठा दान कर देता है। शायद यही कारण था कि श्रीकृष्ण निषाद नन्दन को सत्यनिष्ठ योद्धा की संज्ञा से पुकारते हैं।
एकलव्य का ये अंगूठा दान महाभारत में कर्ण द्वारा किए गए कवच कुंडल दान की याद दिलाता है। जिस प्रकार कर्ण के अंगूठा मांगने पर भगवान इंद्र का नाम कलंकित हुआ तो ठीक इसी प्रकार एकलव्य द्वारा किए गए अंगूठा दान ने गुरु द्रोणाचार्य के जीवन पर एक ऐसा दाग लगा दिया जिसे वो आजीवन धो नहीं पाए।
ये वो ही निषादराज एकलव्य था जिसके पराक्रम के बारे में श्रीकृष्ण जी आगे कहते हैं कि सुदृढ़ पराक्रम से सम्पन्न अत्यन्त अभिमानी एकलव्य जब हाथों में दस्ताने पहनकर वन में विचरता, उस समय दूसरे परशुराम के समान जान पड़ता था। भगवान श्रीकृष्ण द्वारा जिस योद्धा की तुलना परशुराम जी से की जा रही हो , उसके परक्राम के बारे में अनुमान लगाना कोई मुश्किल कार्य नहीं । श्रीकृष्ण अर्जुन को आगे भी एकलव्य के पराक्रम के बारे में कुछ इस प्रकार बताते है ।
कुन्तीकुमार, यदि एकलव्य का अँगूठा सुरक्षित होता तो देवता, दानव, राक्षस और नाग, ये सब मिलकर भी युद्ध में उसे कभी परास्त नहीं कर सकते थे ॥19॥
किमुमानुषमात्रेण शक्यःस्यात् प्रतिवीक्षितुम्।
दृढमुष्टिः कृती नित्यमस्यमानो दिवानिशम् ॥20॥
फिर कोई मनुष्य मात्र तो उसकी ओर देख ही कैसे सकता था ? उसकी मुट्ठी मजबूत थी, वह अस्त्र-विद्या का विद्वान था और सदा दिन-रात बाण चलाने का अभ्यास करता था ॥20॥
त्वद्धितार्थ तु स मया हतः संग्राममूर्धनि ।
चेदिराजश्च विक्रान्तः प्रत्यक्षं निहतस्तव ॥21॥
तुम्हारे हित के लिये मैंने ही युद्ध के मुहाने पर उसे मार डाला था । पराक्रमी चेदिराज शिशुपाल तो तुम्हारी आँखों के सामने ही मारा गया था ॥21॥
इसी एकलव्य के बारे में श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि यदि एकलव्य का अँगूठा सुरक्षित होता तो देवता, दानव, राक्षस और नाग, ये सब मिलकर भी युद्ध में उसे कभी परास्त नहीं कर सकते थे। एक अंगूठा कट जाने के बाद भी एकलव्य की तुलना भगवान श्रीकृष्ण परशुराम जी से करते हैं। ये सोचने वाली बात है अगर उसका अंगूठा सुरक्षित होता तो किस तरह की प्रतिभा का प्रदर्शन करता।
उसकी योग्यता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है उस महायोद्धा एकलव्य का वध भगवान श्रीकृष्ण को करना पड़ता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आगे बताते हैं कि महाभारत युद्ध शुरू होने के ठीक पहले उन्होंने स्वयं निषाद पुत्र एकलव्य का वध कर दिया थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इतने बड़े विशाल ग्रन्थ में महज 4 श्लोकों में हीं निषाद नन्दन एकलव्य के पराक्रम और उसके वध के बारे में जानकारी दी गई है। कर्ण के लिए तो एक अध्याय कर्ण पर्व के रूप में समर्पित है तो वहीं पर महाभारत के द्रोणपर्व के घटोत्कचवध पर्व में मात्र चार श्लोकों में हीं इस महान धनुर्धारी महापराक्रमी योद्धा को निपटा दिया गया है ।
अगर आप किसी से भी जरासंध , शिशुपाल या कर्ण के पराक्रम और उनकी मृत्यु के बारे में पूछे तो उनके बारे में सारी जानकारी बड़ी आसानी से मिल जाती है परन्तु अंगूठा दान के बाद एकलव्य का क्या हुआ , उसका वध भगवान श्रीकृष्ण ने क्यों , कैसे और कहाँ किया , कोई जानकारी नहीं मिलती।
हालांकि कुछ किदवंतियों के अनुसार एकलव्य को भगवान श्रीकृष्ण का मौसेरा भाई बताया जाता है। ऐसा माना जाता है कि गुरु द्रोणाचार्य द्वारा अंगूठा दान के बाद एकलव्य अर्जुन और अन्य पांडवों से ईर्ष्या रखने लगा था।
महाभारत युद्ध होने से पहले जब जरासंध ने भगवान श्रीकृष्ण पर आक्रमण किया तब एकलव्य जरासंध का साथ दे रहा था। इसी कारण भगवान श्रीकृष्ण ने एकलव्य का वध किया था। परंतु ये किदवंती हीं है। महाभारत के अध्याय संख्या 181 में इन बातों का कोई जिक्र नहीं आता हैं।
अगर इन बातों में कुछ सच्चाई होती तो जब भगवान श्रीकृष्ण एकलव्य के बारे में चर्चा करते हैं तो इन घटनाओं का जिक्र जरूर करते। कारण जो भी रहा हो , ये बात तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है निषादराज पांडवों से ईर्ष्या करता था तथा भगवान श्रीकृष्ण के हाथों हीं उसका वध हुआ था।
देखने वाली बात ये है कि कर्ण और अर्जुन दोनों ने महान गुरुओ से शिक्षा ली थी। एक तरफ अर्जुन गुरु द्रोणाचार्य का प्रिय शिष्य था जो उनकी छत्र छाया में आगे बढ़ा था।
तो दूसरी तरफ कर्ण ने भगवान परशुराम से अस्त्र और शस्त्रों की शिक्षा ली थी। एकलव्य की महानता इस बात से साबित होती है कि उसको किसी भी गुरु का दिशा निर्देश नहीं मिला था।
निषाद राज एकलव्य स्वयं के अभ्यास द्वारा हीं कुशल योद्धा बना था। स्वयं के अभ्यास द्वारा एकलव्य ने ऐसी महानता और निपुणता हासिल कर ली थी जिसकी कल्पना ना तो अर्जुन कर सकता था और ना हीं कर्ण।
एकलव्य वो महान योद्धा था जिसकी तुलना खुद भगवान श्रीकृष्ण कर्ण , जरासंध , शिशुपाल , परशुराम इत्यादि के साथ करते हैं और एकलव्य को इनके समकक्ष मानते है , उसकी वीरता और पराक्रम के बारे में मात्र 4 श्लोक? इससे बड़ी उपेक्षा और हो हीं क्या सकती है ?
एकलव्य जैसे असाधारण योद्धा की मृत्यु के बारे में केवल एक श्लोक में वर्णन , क्या इससे भी ज्यादा कोई किसी योद्धा की उपेक्षा कर सकता है? कर्ण को महाभारत का भले हीं उपेक्षित पात्र माना जाता रहा हो परन्तु मेरे देखे एकलव्य , जिसने बचपन में अर्जुन और कर्ण से बेहतर प्रतिभा का प्रदर्शन किया और वो भी बिना किसी गुरु के , उससे ज्यादा उपेक्षित पात्र और कोई नहीं।
अजय अमिताभ सुमन : सर्वाधिकार सुरक्षित