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शर्मसार होती इंसानियत

13 अप्रैल 2018

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यह सवालों का समय नही है। यह समय है आपकी मृत पड़ी मानवीय संवेदनाओं को जागृत करने से है । अगर ऐसा नही कर सकते तो आप बेटी पैदा करना ही बंद कर दीजिए और अपने घर की बेटियों को घर पर ही रखिये और उनकी सुरक्षा कीजिए बाहर वालो से और अपनो से भी । साथ साथ याद रखियेगा समय के साथ लाड़ली जवान भी होगी । आसिफा की उम्र महज आठ साल थी , इस उम्र में रेप तो दूर उस मासूम को तो यह भी नही पता होगा कि मेरे शरीर मे भी कुछ ऐसी चीजें भी है जिसकी वजह से लोग उसके साथ दरिंदगी से पेश आएंगे और मार देंगे । धर्म के नाम पर बनी इमारतों में जब ऐसे कृत्य होते है तो मन करता है इस संस्कृति नाम की दुकान पर थूंक दू । उस पत्थर की मूर्ति के सामने एक मासूम के साथ हैवानियत होती रही, इंसानियत बार बार शर्मसार होती रही , उस मासूम की दर्द भरी चीखें सुनकर भी कोई हलचल नही हुई । आप कहेंगे लोग दोषी है , मंदिर नही हां , दोषी पत्थर तो हो भी नही सकता क्योंकि उसको तरास कर बनाया तो भी इन इंसानी हाथों ने ही है । यह आठ साल की बच्ची आसिफा की बात कम और हमारी मानवीयता की बात ज्यादा है । बलात्कार का नाम सुनते ही हर कोई सहम क्यों जाता है । उस पर खुलकर विरोध करने में क्या हर्ज है । रेप आपके दिमाग के साथ जो करता है, बाद में करता है. उससे पहले, यानी जब रेप हो रहा होता है, तब इतना दर्द होता है कि दिमाग कुछ सोच नहीं पाता. फिर चाहे जिसके साथ रेप हो रहा है, वो पहले कभी सेक्स कर चुकी हो, एक बार या बार-बार. इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. क्योंकि अपनी मर्ज़ी से सेक्स करना और रेप किए जाने में उतना ही अंतर है, जितना अंतर स्विमिंग पूल में तैरकर मजे से नहाने और जबरन पानी के अंदर ठेलकर किसी की सांस रोक देने में है. मेरी नज़र में किसी भी सभ्य कही जाने वाली दुनिया में बच्चियां सेक्स करने की चीज नहीं होतीं । आठ साल की बच्ची को गैंगरेप में कितना दर्द हुआ होगा, ये हम सोच भी नहीं सकते. जिस एक्सट्रीम का अनुभव ही न हो, उसको कैसे महसूस किया जा सकता है। आसिफ़ा न केवल बच्ची थी, मुसलमान भी थी. एक खास बिरादरी की मुसलमान. बिरादरी क्या, उसको मुसलमान होने का मतलब भी ठीक-ठीक नहीं मालूम रहा होगा. जिन लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया, जिनको उसके सहारे किसी से बदला लेने का ख़याल आया, जिन्होंने उसका मर्डर किया, उनके लिए शायद ही कोई शब्द बना हो जो ठीक-ठीक उनकी पहचान बताए. कोई भी धर्म, कोई भी गांव-शहर, कोई भी पार्टी, कोई भी विचारधारा, कोई भी पेशा जो ऐसे पिशाचों की मदद करे या उन्हें बचाए, वो ख़ुद भी हैवान है. देशभर के वकीलों को उन वकीलों का बहिष्कार कर देना चाहिए। देशभर की पुलिस को उन पुलिसवालों के नाम पर थूकना चाहिए। देशभर के हिंदुओं को उन हिंदुओं के नाम पर लानत देनी चाहिए. ऐसों को चुन-चुनकर दूर किसी वीराने में छोड़ आना चाहिए. उनको मालूम चलेगा कि वो जैसे हैं, उन जैसों के बीच जीना कितना दमघोंटू होता है। इनकी सज़ा ये नहीं कि इन्हें जेल भेज दो. इनकी सज़ा ये है कि इन्हें इनके ही जैसे हैवानों के बीच छोड़ दो।

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