कल कल बहती है नदी
मेरे भीतर भी कहीं
सूर्य की तपिश में
गर्म होती है ऊपरी सतह
चाँदनी रातों में चमक जाती है
श्वेत तारों को आग़ोश में लिए हुए
सावन में हरित होती मिट्टी
सिमट जाती हैं मुझमें कभी
फिसलती रेत कभी जम जाती है
पर बहता है जल प्रवाह
निरंतर कभी ऊचें पर्वतों से
कभी निचली सतह पर अपनी गति से
ज़मीन पर से देखती है आसमां को
अपने में बहुत कुछ समेटे हुए
छोटे कंकड़ , बड़ी चट्टानें
छोटे मुलायम पौधे ,अनेको जलचर
जो विचरते है यहाँ से वहां
भावनाओ का चोला ओढ़े
टकराती है किनारों से लहरे
फिर लौट आती है वहीँ
उन्ही लहरों में अपने अस्तित्व के साथ
अपने लिए राह तलाशती
विलीन होने को उसके लिए
एक विशाल दूरदराज सागर में ।
क्या बात है कल्पना जी !!!!!!!!!!! वाह और सिर्फ वाह !!!!!!!! आपकी अप्रितम रचना के लिए - और कुछ भी नहीं - मोती से शब्दों से चमकती ये भावों की नदी कल कल स्वर में बहती मन की राहों से गुजर गयी ------------ बहुत शुभकामना आपको --------