नेपथ्य से आवाज़े आ रही थी , "चुप चाप बैठी रही गुड़िया ग़ुम सुम सी अपने कानों को बन्द किये हुए डरी हुई , सहमी हुई सी बस यूँही ।"
गुड़ियां चारो तरफ देख रही है , यह कौन है आस पास कितना शोर हो रहा है । और श्रोताओ की तरफ़ देख कहती है , " आप सब भी देख रहें हैं न , सुन रहे है न कितना शोर हो रहा है
पापा कह रहे बैठकर पढ़ाई करो , माँ कह रही जब देखो पढ़ती रहती हो घर के काम में हाथ बंटाना तो मानो सीखा ही नहीं ,
अब किसकी बात मानूं आप ही बताएं । अभी तो लग रहा माँ की मदद करनी ही पड़ेगी पढ़ाई तो हो न पायेगी , देखिये न खिड़की के बाहर एक तरफ से जुलूस आ रहा , एक तरफ बारात का शोरगुल , और घर में दादी टी वी देख रही है वॉल्यूम बढ़ाकर । अब मैं छोटी सी जान , छोटे छोटे कान हैं मेरे कितनी आवाज़े ..... "
नेपथ्य से आवाज़े , " गुड़िया बेचारी काम के बोज़ की मारी , किस और जाये , सोच रही पिता की राज दुलारी ।"
गुड़ियां अब भी वैसे ही बैठी हुई है ।
नाटक देख रहे श्रोताओं की तऱफ देख फिर कहती है , " आप सब तो बड़े हो न समझदार हो न , बच्चे जब शोर करें तो हमे डाँट पड़ जाती है और चुप रहने को कहा जाता है , पर इस तरह से चारों और का शोर ....!"
कान अब भी बन्द है ,शोर अब भी हो रहा है , गुड़ियां खुद को आवाज़ों से मुक्त होने के पल का इंतज़ार कर रही है ।