विषय आधारित लघुकथाएँ
इनदिनों सोशल मीडिया में एक प्रचलन आम हो चला है, विविध ग्रुपस में विषय दिए जाते हैं, या कोई चित्र जिसपर एक निश्चित समय के भीतर एक लघुकथा लिखने को कहा जाता है, कई ग्रुप तो प्रत्येक माह के पहली तारीख को १० विषय दे देते हैं और एक माह के भीतर १० लघुकथाओं को लिखने के लिए प्रेरित किया जाता है|
अब सवाल यह है कि दिए हुए विषय पर लिखना कितना उचित होगा या किसी चित्र को देखकर उसपर लघुकथा कहना कितना सार्थक हो सकता है|
जब हम लघुकथा को कहने का प्रयास करते है तो सबसे पहले हमे कुछ बिंदूंओं पर गौर करना होता है सर्वप्रथम क्या कहना है, फिर क्यों कहना हैं और तीसरा बिंदूं जो बहुत ही अहम् है वो है कैसे कहना हैं| जब हम क्या कहना है के बारे में सोचते हैं इसके लिए हम अपने आसपास घटित हो रही घटनाओ में से एक विसंगति को तलाशते हैं और फिर एक विसंगति पर अपनी सोच को विकसित कर उसको एक आकार देने का प्रयास करते हैं, शब्दों का चयन, एक क्रमानुसार घटना को विकसित कर बड़ी ही कलाकारी से अपने कथानक को शिल्प देने का प्रयास करते हैं| इसके माने कुछ भी लिखने से पहले हमे एक विषय का चुनाव करना होता है| जो इतना आसान नहीं, पर इतना मुश्किल भी नहीं और दूसरी तरफ गर हमारे सामने विषय मौजूद है तो हमारे लिए काम थोडा आसान हो जाता है कि अब हमें उस विषय पर कुछ कहना है सो हमारी सोच का ताना बाना उसी विषय या चित्र के इर्द-गिर्द घूमता रहता है| एक स्टेज तो पार हो ही जाता है, अब इर्द-गिर्द घुमने पर भी मन में बहुत तरह के विचार आते हैं, इसके माने हम विषय पर जब सोचते हैं तो हम उसपर मंथन करते है बिलकुल वैसे ही जैसे विष्णुपुराण में समुद्र मंथन का वर्णन हैं : समुद्र का मंथन (लघुकथा के लिए मंथन करना) अब इस समुद्र मंथन के लिए हिमालय की श्रृंखला से मंदार पर्वत का चयन( विषय का चुनाव) अब इस पर्वत को मथने के लिए रस्सी की जरुरत जो वसुकी नाग ने पूरी की ( अपने विचारों का आना-जाना या हम यूँ कह सकते हैं कि हमने जो विषय चुना है या हमारे पास विषय/चित्र जो पहले से ही उपलब्ध है उसके आसपास हम अपने विचारों की रस्सी बांध लेटे हैं) अब हमारा मंथन शुरू होता है, समुद्रमंथन के लिए देव और दानव दोनों ही अपने अपने हिस्से का कार्य करते है, देव (हमारी लघुकथा में आवश्यक चीज़े, माने हमारा शिल्प और दानव के लिए हम यह कह सकते है कि लघुकथा क्योंकि अपने विशेष आकार के लिए प्रचलित है जैसे कि कहा जाता है कि लघुकथा में शब्दों का चुनाव हो या पात्रो का कम से कम होना चाहिए| अब गर हम यह कहें कि शब्द कम हो तो क्या हम यह मान ले कि एक कहानी से शब्दों को काटते चले और उसको लघुकथा में ढाल दें, नहीं कतही नहीं यहाँ कम से कम का यह मतलब नहीं है लघुकथा में कम से कम का मतलब है शब्दों का चुनाव इस तरह से किया जाए कि उसमे न एक शब्द ज्यादा हो न एक शब्द कम लगे, जब लघुकथा को कोई पाठक पढ़े तो लगे कि हाँ यह तो बढ़िया है, इस लघुकथा में तो सब कुछ हैं, गर यह स्थिति हम देख सकते हैं या अपने विषय का मंथन कर हम कुछ ऐसा आकार दे पायें हैं तो हमें रत्नों की प्राप्ति हो गयी है, पर हमारे विचार तो दो तरह के होते हैं एक जो अपनी लघुकथा के लिए उपयोगी हैं और दुसरे जो अनुपयोगी हैं तो यह तो हुए ज़हर की तरह जो हम निगल नहीं सकते और न ही हम शिव हैं जो इनको अपने कंठ में समां सकते है सो बहतर तो यही होगा कि हम अपनी लघुकथा से अनुचित या अनुपयोगी शब्दों को या वाक्यों को या पात्रो को हटा दे और सिर्फ और सिर्फ उन्हीका चयन करें जो हमें जरुरी लगते हैं| अब हमारे सामने मंथन से निकली औषधि है जिसको ग्रहण कर हमें देखना होगा कि यह कितनी फलदायक हुई है, और सिर्फ रत्न, या औषधि पा लेने से तो कामम पूरा नहीं होता, ज़हर तो हमने फैंक ही दिया पर मंथन तो अभी और करना होगा, और इसकी वजह है कि अभी लघुकथा को शीशे के आगे रखकर देखना होगा कि कितनी खुबसूरत बन पड़ी है और कहीं अगर काजल की कमी है तो काजल लगाना होगा इसके माने जहाँ और जिस भी श्रृंगार की कमी है उसको उससे सजाना होगा ताकि मोहिनी रूप धारण कर सके और सजी धजी नव युवती की जैसी दिखाई दे, जिसके रूप-रंग से पाठक आकर्षित हो और वह लघुकथा में खुद को खोया पाए| अभी और मंथन करना होगा, क्योंकि मोहिनी भी माया है, और माया भ्रम पैदा करती है, माया कब हाथ से फिसल कर उड जाए भरोसा नहीं सो फिर से मंथन, और ऐसे धीरे-धीरे मेहनत करते करते ही अमृत हासिल होता है| और यह वो स्टेज होगी जब लगे कि नहीं अब यह नवयुवती माया से मुक्त हो एक जीवित नार का रूप में सामने है, तब जा कर हमारी लघुकथा तैयार हुई यह समझना चाहिए| पर इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं कि अब उसमें गुंजाईश ख़त्म हो जाती है, कुछ समय मंथन के दौरान की थक जाते है सो तनिक विश्राम भी आवश्यक होता है, तो यह भी जरुरी है कि हम बीच-बीच में लघुकथा को छोड़ दे, कुछ दिनों के लिए पर क्योंकि वह हमारा बालक है सो देखरेख तो करना हमारा फ़र्ज़ है, सो यह भी करना चाहिए, बालक के भूख-प्यास उसकी हर जरुरत को पूरा करना हमारा दायित्व होता है बिलकुल इसी तरह हमें हमारी लघुकथा के साथ करना होता है|
शैशव काल से वृधावस्था के होने में समय लगता है, फिर हम यह कैसे मान लेते हैं कि हमने एक बैठक में ही एक सशक्त लघुकथा कह दी है| क्या यह संभव है? इस प्रश्न का उत्तर तो एक रचनाकार को स्वयं से पूछना होगा|
विषय का चुनाव या तो खुद से तलाशे जाएँ या तो दिए गए विषय पर अपनी कलम चलायी जाए, हाँ दिए गए विषय पर हमारा कार्य जरुर थोडा कम हो जाता है, पर कहते हैं न गर मुफ्त में कोई चीज मिल जाए तो उसकी कद्र नहीं होती, तो बिलकुल ऐसे ही होता है, रेडीमेड विषय जहाँ एक तरफ हमारे लिए वरदान साबित होते है दूसरी तरफ दानव बन हमें निगल भी जाते हैं, किसी भी चीज़ की अधिकता नुक्सान्कारक होती है, ऐसे ही दिए गए विषयों पर सिमित हो जाना, यह तो लघुकथा के लिए और खुद लघुकथाकार के लिए हानिकारक होगा| पिंजरे में रहना जहाँ हमें सुरक्षा प्रदान कर सकता है, दूसरी तरफ हमारे पंख काट दिया करता है जिससे हम उड़ान भरने में डरने लग जाते हैं|
अबभी प्रश्न वहीँ का वहीँ हैं कि आखिर हम विषय का चुनाव कहाँ से और कैसे करें| अधिकतर हम जहाँ और जिस परिवेश में रहते हैं आस-पास घटित हो रही घटनाओं से हम एक सूक्ष्म दृष्टि से किसी एक क्षण या किसी एक विसंगति या एक स्थिति को देखते हैं और उसी आँखों देखि या कानो सुनी को लिख लेते है, पर क्या यह सभी लघुकथा होंगी? मार्किट में अनेक तरह की डालें उपलब्ध होती है, गर हमें सिर्फ मूंगदाल चाहिए तो क्या हम सभी दालें लेंगे? नहीं न हम सिर्फ वही खरीदेंगे जिसकी हमें आवश्यकता है फिर लघुकथा के साथ ही ऐसा अन्याय क्यों, हम आँखों देखि कानो सुनी बातों को लिखकर उसको लघुकथा कहते हैं और फिर दूसरों से भी यहीं केहेलवाना चाहते हैं पर क्या यह उचित होगा?
हर विधा को लिखने की एक विशेष शैली होती है, फिर लघुकथा के लिए अलग सोच क्यों? अलग जिद्द क्यों? यह अन्याय है न? हमारे चारों तरफ विषय हैं, अब हमें चुनना होगा कि कौनसा विषय हमारे लिए बहतर होगा? साहित्य समाज का दर्पण भी है, और आजकल के आपाधापी वाले जीवन में किसीके पास इतना समय नहीं कि बड़ी और लम्बी कहानियों को पढ़े और एक लघुकथाकार का क्या दायित्व होगा? यही न कि उसकी रचना एक पाठक को अपनी सी लगे और वह उस रचना में डूब जाये, और उसपर वह अपना मंथन भी करें| विषय के साथ साथ हमें उस विषय को क्यों चुना है यह भी स्पष्ट करना होगा इसके माने लघुकथा को कहने का कोई उद्देश्य भी होना चाहिए, बिना उद्देश्य के लिखना तो बिना लक्ष्य के तीर चलाना होगा अब तीर कहाँ जाएगा यह तो स्वयं को सोचना होगा| वैसे लघुकथा लक्ष्य भेदन की ही विधा है, जिसके लिए निशाना साधना आना चाहिए| और इस निशाने को लगाने के लिए हमारी आँखें लक्ष्य की ओर होनी चाहिए और निशाना लगाने के लिए एकाग्रता,संयम,अनुशाशन का पालन करना चाहिए|
दिए गए विषय और चित्र या हमारे द्वारा विषय का चुनाव करना यह रचनाकार का अपना विवेक है और उसपर लिखना यह उसका अपना कौशल हैं| लघुकथा अपने आप में उस पक्षी की आँख है जिसका भेदन अर्जुन ने किया था| अब तय एक रचनाकार को करना है कि उसको किस तरह से उस पक्षी की आँख तक पहुंचना है, नभ से ज़मीन तक, पेड़ से पक्षी तक उसकी अपनी आँखें जहाँ तक उसे ले जाएँ पर लक्ष्य तो फिर भी पक्षी की आँख ही होगी जिसपर एक रचनाकार को आना ही होगा और उसके लिए अपना निशाना और लक्ष्य को साधना ही होगा|