परस्पर वैमनस्य भूल कर नई शुरुवात करने का पर्व होली
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १ , शिलकुन्ज , विद्युत मण्डल कालोनी नयागांव , जबलपुर
vivek1959@yahoo.co.in
9425806252, 70003757987
हमारे मनीषियो द्वारा समय समय पर पर्व और त्यौहार मनाने का प्रचलन ॠतुओ के अनुरूप मानव मन को बहुत समझ बूझ कर निर्धारित किया गया है .जब ठंड समाप्त होने लगती है , गेंहूं चने की नई फसल आने को होती है , मौसम में आम की बौर की महक की मस्ती छाने लगती है , बाग बगीचो में , जंगलो तक में टेसू व अन्य फूल खिले होते हैं तब फागुन की पूर्णिमा की रात लकड़ियों व उपलों से बनी होली का विधिवत पूजन कर ,गुझिया पपड़ी आदि पकवानों का भोग लगा कर होलिका दहन किये जाने की परम्परा है . इस बहाने लोग एकत्रित होते हैं , उत्सवी माहौल में नाचने गाने मिलने मिलाने और किंचित पनपी परस्पर कुंठायें व वैमनस्य भूल कर नई शुरुवात करने के अवसर उत्पन्न होते हैं . दूसरी सुबह लोग रंग गुलाल लगा कर खुशियां साझा करते हैं .
सारी दुनिया की विभिन्न सभ्यताओ में रंगो से मन का उल्लास प्रगट किया जाता है होली की ही तरह रंगो के तथा अग्नि जलाने के अनेक त्यौहार विश्व के अलग अलग भूभाग पर अलग अलग समय में अलग अलग नामो से मनाये जाते हैं , जो किंचित सभ्यताओ के मिलन या परस्पर प्रभाव जनित हो सकते हैं किन्तु यह तथ्य है कि होली भारत का अति प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता था . वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव भी कहा जाता है. यह पर्व अधिकांशतः उत्तरी भारत में प्रमुखता से मनाया जाता है .
होली मनाये जाने का उल्लेख कई पुरातन पुस्तकों में भी मिलता है जैसे जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र , नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों में भी होली का वर्णन मिलता है . प्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का उल्लेख किया है . भारत के अनेक मुसलमान कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होली का त्यौहार केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते थे . अकबर और जोधा तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के होली खेलने का वर्णन मिलता है . अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है. वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था. अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे. मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है. प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर होलिका दहन व रंग खेलने के चित्र देखने मिलते हैं. विजयनगर की राजधानी हंपी के १६वी शताब्दी के एक चित्र फलक पर राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है.
संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है . श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है. अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं. कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है. भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है. चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है. भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है. आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन कवि बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को होली वर्णन प्रिय रहा है .
राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कवियो ने किया है . सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं. आधुनिक हिंदी कहानियों में प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँ, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो तथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूपो के वर्णन देखने को मिलते हैं . भारतीय फ़िल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को प्रमुखता व सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है .
वैष्णव व शैव संप्रदायो ने होली की व्याख्या अपने अपने इष्ट के अनुरूप कर ली थी . होलिका दहन की प्रह्लाद की सुप्रसिद्ध कथा के अतिरिक्त यह पर्व राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जोड़ कर मनाया जाता है तो दूसरी ओर शैव संप्रदाय का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं .
वर्तमान स्वरूप में होली का त्योहार सार्वजनिक उत्सव के रूप में ही अधिक लोकप्रिय हो चला है . मोहल्लो के चौराहो , क्लबो , सोसायटियो में सार्वजनिक मैदानो या पर युवको की टोलियां सार्वजनिक चंदे से होली का झंडा गाड़कर उसके चारो और लकड़ियां लगाकर और होलिका व प्रहलाद की मूर्तियां सजाकर विद्युत प्रकाश से रंगबिरंगी सजावट कर डी जे पर गीत संगीत बजाकर होलीका दहन का आयोजन करते हैं .पारम्परिक रूप से गांवो में भरभोलिए जलाने की भी परंपरा है.भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है, इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है. एक माला में सात भरभोलिए होते हैं. होली में आग लगाने से पहले इस माला को बहने भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है. रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है . इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए. इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है. होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है. कटते जंगलो को बचाने और व्यर्थ जलाई जाती लकड़ी के अपव्यय को रोकने के लिये इस वर्ष गोबर के कंडो की ही होली जलाने की अपील नेताओ द्वारा की जती दिख रही है यह शुभ संकेत है , हमेशा से हिन्दू परम्परायें समय के साथ नव परिवर्तन को स्वीकारती आई हैं यह परिवर्तन भी पर्यावरण की रक्षा हेतु उठाया जा रहा एक स्वागतेय कदम है .
होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है , इस दिन लोग गुलाल और रंगों से खेलते हैं. सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं. गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं . इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं. बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं. सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है . रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं. प्रीति भोज तथा गाने-बजाने , कविताओ , हास्य विनोद के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।
घरों में गुझिये , खीर, पूरी कचौड़ी , दही बड़े आदि विभिन्न व्यंजन बनाये जाते हैं, भांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं .
स्थानीय परम्पराओ के साथ होली का पर्व मनाने में विभिन्नता परिलक्षित होती है . ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है. बरसाने की लठमार होली काफ़ी प्रसिद्ध है. इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं. इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी १५ दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है. कुमाऊँ की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं. हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है . बंगाल की दोल जात्रा चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है , जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है. महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्लाशक्ति प्रदर्शन तो तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है . मणिपुर में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है, दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है . भगोरिया , जो होली का ही एक रूप है. बिहार का फगुआ जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली में धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के श्रंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है .प्रत्येक परम्परा में आंतरिक उत्साह को प्रगट करने की शैली की विविधता भले ही हो पर मूल स्वरूप में होली कृष्ण लीला से जोड़ते हुये , प्रकृति से तादात्म्य बिठाते हुये उल्लास मनाने का पर्व है .
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १ , शिलकुन्ज , विद्युत मण्डल कालोनी नयागांव , जबलपुर
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vivek ranjan shrivastava
विवेक रंजन श्रीवास्तव की अन्य किताबें
आदिवासी बहुल जिले मण्डला में जिला मुख्यालय की बहुउद्देशीय उच्चतर माध्यमिक शाला में साहित्यकार व लोकप्रिय व्याख्याता श्री सी. बी.श्रीवास्तव "विदग्ध" होस्टल वार्डन थे .उनकी पत्नी श्रीमती दयावती श्रीवास्तव भी मण्डला के ही रानी रामगढ़ उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में व्याख्याता थीं . २८.०७.१९५९ को इस दम्पति के घर मंडला में विवेक रंजन श्रीवास्तव का जन्म हुआ .वे अपनी उच्चशिक्षित एक बड़ी बहन तथा दो छोटी बहनो के इकलौते भाई हैं . बचपन से ही मेधावी छात्र के रूप में उन्होने अपनी पहचान बनाई .किशोरावस्था आते आते उन पर माता पिता के साहित्यिक संस्कारो का प्रभाव स्पष्ट दिखने लगा . कक्षा चौथी में जबलपुर के विद्यानगर स्कूल में जब उन्होने महात्मा गांधी का अभिनय किया तो "मोहन" के इस रोल में वे ऐसे डूब गये कि मुख्यअतिथि ने उन्हें वहीं तुरंत ५१ रुपयो का पुरस्कार दिया .लिखने की जरूरत नही कि १९६८ में ५१ रुपये क्या महत्व रखते थे . शायद तभी विवेक रंजन में नाटककार के बीज बोये जा चुके थे . कक्षा आठवीं की बोर्ड परीक्षा में उन्हें मेरिट में स्थान मिला . हाईस्कूल की शिक्षा के लिये ग्रामीण प्रतिभावान छात्रवृत्ति मिली . उन्होने रायपुर अभियांत्रिकी महाविद्यालय से सिविल इजीनियरिंग में बी ई की परीक्षा आनर्स के साथ पास की . इसके तुरंत बाद फाउंडेशन इंजीनियरिंग में मौलाना आजाद रीजनल कालेज भोपाल से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की . अपने छात्र जीवन से ही वे कालेज की सांस्कृतिक गतिविधियो से जुड़े रहे मंच संचालन किया तथा कालेज की पत्रिकाओ "आलोक" आदि का सम्पादन भी किया . रायपुर , जबलपुर व भोपाल के आकाशवाणी केन्द्रो से उनके प्रसारण भी होते रहे . तभी से वे रेडियो रूपक भी लिख रहे हैं . वे बताते हैं कि रायपुर आकाशवाणी से १९७८ में युववाणी के उनके पहले प्रसारण के लिये उन्हें ३० रुपये का चैक प्राप्त हुआ था .अपने संस्मरण सुनाते हुये उन्होंने बताया कि राष्ट्रीय सेवा योजना की महाविद्यालयीन इकाई तथा इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स की छात्र इकाई , कालेज के फोटोग्राफी क्लब के अध्यक्ष भी रहे .
१९८१ में उन्होने मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल में सहायक इंजीनियर के रूप में अपनी सेवायें प्रारंभ की थीं .सर्वे व अनुसंधान विभाग में इस युवा इंजीनियर ने अनेक लघु पन बिजली परियोजनाओ सहित १९८४ में परमाणु बिजलीघर चुटका की प्रारंभिक फिजिबिलिटी तैयार की , उल्लेखनीय है कि अब मण्डला जिले में यह महत्वपूर्ण बिजली परियोजना स्वीकृत हो चुकी है . उनके द्वारा तैयार भीमगढ़ तथा चरगांव जटलापुर लघु पन बिजली परियोजनायें अभी तक लगातार विद्युत उत्पादन कर रही हैं . उनका मानना है कि शिक्षा जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है , सेवारत रहते हुये उन्होने इंदिरा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी से मैनेजमेंट मे डिप्लोमा , ब्यूरो आफ इनर्जी एफिशियेंसी से इनर्जी मैनेजर की उपाधियां अर्जित की हैं . वे २००५ से ही जब हिन्दी ब्लाग बहुत नया था , हिन्दी में नियमियित ब्लागिंग कर रहे हैं . व्यंग , कविता , व तकनीकी विषयो पर उनके व्यक्तिगत ब्लाग लोकप्रिय हैं ,वेबदुनिया जो हिन्दी का सबसे पुराना पोर्टल है उसके सहित अनेक अखबारो के सामूहिक ब्लाग्स में भी वे लिखते हैं . दुनिया की पहली ब्लागजीन ब्लागर्स पार्क जिसमें ब्लाग पर प्रकाशित सामग्री में से चुनिंदा रचनायें पत्रिका के रूप में प्रकाशित की जाती है , वे इस पत्रिका के संपादक मण्डल के मानद सदस्य हैं . उन्होने हिन्दी ब्लागिंग पर कई कार्यशालायें करके अनेक युवा लेखको को ब्लाग जगत से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया है , ज्ञानवाणी से हिन्दी ब्लागिंग पर उनकी वार्ता बहुत सराही गई है .
उनका विवाह वरिष्ठ कवि स्व वासुदेव प्रसाद खरे की पुत्री स्वतंत्र लेखिका श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव से २२ जनवरी १९८७ को हुआ . उनकी जीवन संगीनी ने उनकी साहित्य यात्रा को और आगे बढ़ाया . एक पिता की भूमिका में भी वे सफल हैं , उनके बच्चे इंजीनियर अनुव्रता एक प्रतिष्ठित निजी संस्थान में एरिया मैनेजर हैं ,बेटी अनुभा ने राष्ट्रीय संस्थान से पांच वर्षीय ला की पढ़ाई की है तथा वे एक ला एशोसियेट के रूप में कार्यरत हैं , बेटा अमिताभ भारत के एक मात्र प्रतिष्ठित विज्ञान संस्थान , इण्डियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस बैंगलोर से भारत सरकार की किशोर वैज्ञानिक की स्कालरशिप लेते हुये उच्च शिक्षा पा रहे हैं .
तार सप्तक अर्ध शताब्दि समारोह में संस्कृति भवन के सभागार में उनकी नई कविताओ की पहली कृति आक्रोश का विमोचन हुआ . इस पुस्तक को दिव्य काव्य अलंकरण मिला .इसके बाद उनके व्यंग संग्रह "रामभरोसे" तथा " कौआ कान ले गया" प्रकाशित हुये . साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् भोपाल द्वारा उन्हें ३१००० रुपयो का हरिकृष्ण प्रेमी पुरस्कार उनकी नाट्य कृति 'हिंदोस्तां हमारा' के लिये घोषित किया गया है . उल्लेखनीय है कि श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव के नाटक कई स्कूलो में खेले जाते हैं . उनका म. प्र. शासन आदिवासी शिक्षा विभाग से पुरस्कृत नुक्कड़ नाटक जादू शिक्षा का जिला शिक्षा केंद्र मण्डला के कलाकारो द्वारा अनेक चौराहो पर खेला जा चुका है . श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव को हिंदोस्तां हमारा नाटक संग्रह हेतु साहित्य अकादमी के इस पुरस्कार के अतिरिक्त सामाजिक लेखन हेतु रेड एण्ड व्हाइट द्वारा १५००० रु का राष्टीय पुरुस्कार महामहिम राज्यपाल भाई महावीर के कर कमलो से मिल चुका है . उनके व्यंग संग्रह रामभरोसे को राष्टीय पुरुस्कार दिव्य अलंकरण राज्यपाल ओ पी श्रीवास्तव के कर कमलो से , कौआ कान ले गया व्यंग संग्रह को इलाहाबाद में कैलाश गौतम राष्ट्रीय सम्मान तथा जादू शिक्षा का नाटक को ५००० रु का सेठ गोविंद दास कादम्बरी राष्ट्रीय सम्मान व म. प्र. शासन का ५००० रु का प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है .विभिन्न सामूहिक संग्रहों में भी उनकी रचनायें प्रकाशित हुई हैं .
सुरभि टीवी सीरियल में मण्डला के जीवाश्मो पर उनकी फिल्म का प्रसारण हुआ , तथा हैलो बहुरंग में उनकी निर्मित लघु फिल्मो के लिये वे युवा फिल्मकार का सम्मान भी अर्जित कर चुके हैं . उनकी किताबें जल जंगल और जमीन , बिजली का बदलता परिदृश्य , कान्हा अभयारण्य परिचायिका बहुचर्चित हैं . इस इंजीनियर साहित्यकार ने जटिल वैज्ञानिक विषयो पर सहज जन भाषा हिन्दी में नियमित अपनी कलम चलाई है . "रानी दुर्गावती" व "मण्डला परिचय" पर उनके द्वारा तैयार फोल्डर लोकप्रिय रहे हैं .देश की अनेक पत्र पत्रिकाओ में प्रकाशित उनके सामाजिक विषयो के आलेखो की प्रदर्शनी की व्यापक सराहना हुई . कविता , लेख , गजल , व्यंग , नाटक संग्रह आदि की कई किताबें प्रकाशनाधीन हैं . वे साहित्य अकादमी की पाठक योजना के मण्डला में लम्बे समय तक संयोजक रहे हैं व अब जबलपुर शहर के सक्रिय संयोजक हैं . मण्डला में हिन्दी साहित्य समिति मण्डला , साहित्य विकास परिषद एवं तुलसी मानस परिषद के सचिव रहे हैं एवं जबलपुर की साहित्यिक संस्था अभियान के साथ कई राष्ट्रीय स्तर के सफल आयोजक रहे हैं . आकाशवाणी व दूरदर्शन से उनके अनेक प्रसारण होते रहे हैं . साहित्यिक संस्था वर्तिका के प्रांतीय अध्यक्ष हैं , तथा निरंतर साहित्य सेवा में लगे हुये हैं .
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