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गुमशुदा पाठक की तलाश

16 जनवरी 2017

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किताबें और मेले बनाम गुमशुदा पाठक की तलाश विवेक रंजन श्रीवास्तव ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर ९४२५८०६२५२ हमने वह जमाना भी जिया है जब रचना करते थे , सुंदर हस्त लेख में लिखते थे , एक पता लिखा टिकिट लगा लिफाफा साथ रखते थे , कि यदि संपादक जी को रचना पसंद न आई तो " संपादक के अभिवादन व खेद सहित" रचना वापस मिल जायेगी , कहीं और छपने के लिये भेजने को . फिर डाक निकलने के समय से पहले चिट्ठी लाल डिब्बे में डालने जाते थे . रचना छपने से पहले उसकी स्वीकृति आ जाती थी . बुक स्टाल पर जाकर पत्रिका के नये अंक उलटते पलटते थे इस जिज्ञासा में कि रचना छपी ? फिर पारिश्रमिक का चैक या मनीआर्डर जिसे अपेक्षा से बहुत कम होने के चलते कई पत्रिकायें "पत्रं पुष्पं" लिखती थी आता था . कितना मजा आता था , यह सारी प्रक्रिया अनवरत जीवन चर्या बन गई थी . इसे हम मित्रमण्डली में लेखनसुख कहते थे . जब कोई खूब छप चुकता था , तब उसकी किताब छपने की बारी आती थी . रायल्टी के एग्रीमेंट के साथ प्रकाशक के आग्रह पर किताबें छपती थीं . ईमेल ने और आरटीजीएस पेमेंट सिस्टम ने आज के लेखको को इस सुख से वंचित कर दिया है . सिद्धांत है कि ढ़ेर सा पढ़ो , खूब सा गुनो , तब थोड़ा सा लिखो . जब ऐसा लेखन होता है तो वह शाश्वत बनता है . पर आज लिखने की जल्दी ज्यादा है , छपने की उससे भी ज्यादा . संपादको की कसौटी से अपनी रचना गुजारना पसंद न हो तो ब्लाग , फेसबुक पोस्ट जैसे संसाधन है , सीधे कम्प्यूटर पर लिखो और एक क्लिक करते ही दुनियां भर में छप जाओ . रचना की केवल प्रशंसा ही सुननी हो और आपकी भक्त मण्डली बढ़िया हो तो व्हाट्सअप ग्रुप बना लो , आत्ममुग्ध रहो . इस सारे आधुनिककरण ने डाटा बेस में भले ही हिन्दी किताबो की संख्या और पत्रिकाओ का सर्क्युलेशन बढ़ा दिया हो पर वास्तविक पाठक कही खो गया है . लोग ठकुरसुहाती करते लगते हैं . एक दिन मेरी एक कविता अखबार के साप्ताहिक परिशिष्ट में छपी , मेरे एक मित्र मिले और उन्होने उसका उल्लेख करते हुये मुझे बधाई दी , मुझे बड़ी खुशी हुई कि आज भी अच्छी रचनाओ के पाठक मौजूद हैं , पर जैसे ही मैने उनसे रचना के कथ्य पर चर्चा की मुझे समझ आ गया कि उन्होने मेरे नाम के सिवाय रचना मे कुछ नही पढ़ा था , और वे मुझे बधाई भी इस बहाने केवल इसलिये दे रहे थे क्योकि मेरे सरकारी ओहदे के कारण उनकी कोई फाइल मेरे पास आई हुई थी . पाठको की इसी गुमशुदगी के चलते नये नये प्रयोग चल रहे हैं . कविता पोस्टर बनाकर प्रदर्शनी लगाई जा रही हैं . काव्य पटल बनाकर चौराहो पर लोकार्पित किये जा रहे हैं . किसी भी तरह पाठक को साहित्य तक खींचकर लाने की पुरजोर कोशिशें हो रही हैं . इन्ही प्रयासो में से एक है "पुस्तक मेला" जहाँ लेखको , पाठको और प्रकाशको का जमघट लगता है . सरकारी अनुदान से स्कूल कालेज के पुस्तकालयो के लिये किताबें खरीदी जाती हैं जिनसे आंकड़े कुछ प्रदर्शन योग्य हो जाते हैं . कुछ स्कूल अपने छात्रो को ग्रुप में और चन्द माता पिता अपने बच्चो में पठन पाठन के संस्कार डालने के लिये उन्हें इन मेलो में लेकर आते हैं . ये और बात है कि ये बच्चे किताबो के इन मेलो से किताबें कम स्टेशनरी व कम्प्यूटर के एडवन्स अधिक ले जाते हैं . साहित्यिक प्रकाशको के पण्डालो पर नये लेखको का प्रकाशको और धुरंधर समीक्षको तथा सुस्थापित लेखको से साहित्यिक संपर्क हो जाता है जिसे वे आगे चलकर अपनी क्षमता के अनुरूप इनकैश कर पाते हैं . अंयत्र पूर्व विमोचित किताबो का पुनर्विमोचन होते भी हमने इन मेलो में देखा है ,किसी भी तरह किताब को चर्चा में लाने की कोशिश होती है . लोकार्पण , प्रस्तुतिकरण , समीक्षा गोष्ठी , किताब पर चर्चा , एक कवि एक शाम , लेखक पाठक संवाद , लेखक से सीधी बात , वगैरह वगैरह वे जुमले हैं ,जो शब्दो के ये खिलाड़ी उपयोग करते हैं और आयोजन को सफल बनाने में जुटे रहते हैं . महिला कवियत्रियां विशेष अटेंशन पाती हैं , यदि उनका कंठ भी अच्छा हो तो तरंनुम में काव्यपाठ स्टाल की भीड़ बढ़ा सकता है . कोई लोकल अखबार यदि प्रकाशको से विज्ञापन जुटा पाया तो मेला विशेषांक छाप कर मुफ्त बांट देता है . मेले के दिनो में लोकल टी वी चैनल वालो को भी एक सकारात्मक काम मिल जाता है . दुनियां में यदि कोई वस्तु ऐसी है जिसके मूल्य निर्धारण में बाजार का जोर नही है तो वह किताब ही है . क्योकि किताब में इंटेलेक्चुएल प्रापर्टी संग्रहित होती है जो अनमोल होती है. यदि लेखक कोई बड़ा नाम वाला आदमी हो या किताब में कोई विवादास्पद विषय हो तो किताब का मूल्य लागत से कतई मेल नही खाता . या फिर यदि लेखक अपने दम पर किताबो की सरकारी खरीद करवाने में सक्षम हो तो भी किताब का मूल्य कंटेंट या किताब के गेटअप की परवाह किये बिना कुछ भी रखा जा सकता है . अब किताबें छपना बड़ा आसान हो गया है , ईबुक तो घर बैठे छाप लो . यदि प्रकाशक को नगद नारायण दे सकें तो किताब की दो तीन सौ प्रतियां छपकर सीधे आपके घर आ सकती हैं , जिन्हें अपनी सुविधा से किसी बड़े किताब मेले में या पाँच सितारा होटल में डिनर के साथ विमोचित करवा कर और शाल श्रीफल मानपत्र से किसी स्थानीय संस्था के बैनर में स्वधन से सम्मानित होकर कोई भी सहज ही लेखक बनने का सुख पा सकता है . आज के ऐसे साहित्यिक परिवेश में मुझे पुस्तक मेलो में मेरे गुमशुदा पाठक की तलाश है , आपको मिले तो जरूर बताइयेगा . vivek ranjan shrivastava

विवेक रंजन श्रीवास्तव की अन्य किताबें

रेणु

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बहुत अच्छा लेख है | साहित्य के वो सुनहरे दिन ना जाने कहाँ खो गए ?

16 फरवरी 2017

रवि कुमार

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बहुत बढ़िया , सच में ऐसे पाठक कही खो गए या शायद ज़माना आगे बढ़ गया

18 जनवरी 2017

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जनता को संविधान से परिचित करवाने के लिये अभियान चलाया जाये

3 जुलाई 2016
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देश की अखण्डता के लिये देश के हर हिस्से में सभी धर्मो के लोगो का बिखराव जरूरी है विवेक रंजन श्रीवास्तव विनम्र अधीक्षण अभियंता सिविल, म प्र पू क्षे विद्युत वितरण कम्पनीओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर ४८२००८ फोन ०७६१२६६२०५२         प्रश्न है देशों का निर्माण  कैसे हुआ  ?  भौगोलिक स्थिति

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आरक्षण..धर्म और संस्कृति

13 जनवरी 2017
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आरक्षण..धर्म और संस्कृति धर्म को लेकर भारत में तरह तरह की अवधारणायें पनपती रही हैं . यद्यपि हमारा संविधान हमें धर्म निरपेक्ष घोषित करतया है किन्तु वास्तव में यह चरितार्थ नही हो रहा . देश की राजनीति में धर्म ने हमेशा से बड़ी भुमिका अदा की है . चुनावो में जाति और ढ़र्म के नाम पर वोटो का ध्रुवीकरण कोई नई

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गुमशुदा पाठक की तलाश

16 जनवरी 2017
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किताबें और मेले बनाम गुमशुदा पाठक की तलाशविवेक रंजन श्रीवास्तव ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर ९४२५८०६२५२ हमने वह जमाना भी जिया है जब रचना करते थे , सुंदर हस्त लेख में लिखते थे , एक पता लिखा टिकिट लगा लिफाफा साथ रखते थे , कि यदि संपादक जी को रचना पसंद न आई तो " संपादक के अभिवादन व

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मिले दल मेरा तुम्हारा

29 जनवरी 2017
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मिले दल मेरा तुम्हारा विवेक रंजन श्रीवास्तव ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर ९४२५८०६२५२मुझे कोई यह बताये कि जब हमारे नेता "घोड़े" नहीं हैं, तो फिर उनकी हार्स ट्रेडिंग कैसे होती है ? जनता तो चुनावो में नेताओ को गधा मानकर "कोई नृप होय हमें का हानि चेरी छोड़ न हुई हैं रानी" वाले मनोभाव के

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धन्नो , बसंती और बसंत

6 फरवरी 2017
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बसंत बहुत फेमस है पुराने समय से , बसंती भी धन्नो सहित शोले के जमाने से फेमस हो गई है . बसंत हर साल आता है , जस्ट आफ्टर विंटर. उधर कामदेव पुष्पो के बाण चलाते हैं और यहाँ मौसम सुहाना हो जाता है .बगीचो में फूल खिल जाते हैं . हवा में मदमस्त गंध घुल जाती है . भौंरे गुनगुनाने लगते हैं .रंगबिरंगी तितलि

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दिल पर पत्थर रखकर मुंह पर मेकअप कर लिया

8 फरवरी 2017
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व्यंग दिल पर पत्थर रखकर मुंह पर मेकअप कर लिया विवेक रंजन श्रीवास्तव ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर ९४२५८०६२५२ मोबाइल पर एक से बात करते हुये झल्लाहट की सारी हदें पार करने के बाद भी , सारी मृदुता के साथ त्वरित ही पुनः अगली काल पर हममें से किसने बातें नही की हैं ? डाक्टरो के लिये य

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वैमनस्य भूल कर नई शुरुवात करने का पर्व होली

1 मार्च 2017
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परस्पर वैमनस्य भूल कर नई शुरुवात करने का पर्व होली विवेक रंजन श्रीवास्तवए १ , शिलकुन्ज , विद्युत मण्डल कालोनी नयागांव , जबलपुरvivek1959@yahoo.co.in9425806252, 70003757987 हमारे मनीषियो द्वारा समय समय पर पर्व और त्यौहार मनाने का प्रचलन ॠतुओ के अनुरूप मानव मन को बहुत समझ बूझ कर निर्धारि

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http://shop.storymirror.com/_/index.php?route=product/product&product_id=182

29 मार्च 2017
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सबकी सेल्फी हिट हो

10 अप्रैल 2017
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"स्वाबलंब की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष " राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त की ये पंक्तियां सेल्फी फोटो कला के लिये प्रेरणा हैं . ये और बात है कि कुछ दिल जले कहते हैं कि सेल्फी आत्म मुग्धता को प्रतिबिंबित करती हैं . ऐसे लोग यह भी कहते हैं कि सेल्फी मनुष्य के वर्तमान व्यस्त एकाकीपन को दर्शाती है . जि

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बुझ गई लाल बत्ती

25 अप्रैल 2017
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आम से खास बनने की पहचान थी लाल बत्तीविवेक रंजन श्रीवास्तव ए १ , विद्युत मण्डल कालोनी , शिला कुन्जजबलपुर मो ९४२५८०६२५२ , vivek1959@yahoo.co.in बाअदब बा मुलाहिजा होशियार , बादशाह सलामत पधार रहे हैं ... कुछ ऐसा ही उद्घोष करती थीं मंत्रियो , अफसरो की गाड़ियों की लाल बत्तियां . दूर से लाल बत्तियों के

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खीरा सर से काटिये, मलिये नमक लगाए, देख कबीरा यह कहे, कड़वन यही सुहाए

6 मई 2017
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व्यंग्य खीरा सर से काटिये, मलिये नमक लगाए, देख कबीरा यह कहे, कड़वन यही सुहाएविवेक रंजन श्रीवास्तव vivek1959@yahoo.co.in हम सब बहुत नादान हैं . इधर पाकिस्तान ने दो चार फटाके फोड़े नहीं कि हमारा मीडीया हो हल्ला मचाने लगता है . जनता नेताओ को याद दिलाने लगती है कि तुमको चुना ही इसलिये था कि तुम पाकिस्

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सिफारिशी घंटी का सवाल है बाबा

16 मई 2017
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व्यंग एक सिफारिशी घंटी का सवाल है बाबा विवेक रंजन श्रीवास्तव विनम्रvivekranjan.vinamra@gmail.com अब तो मोबाईल का जमाना आ गया है , वरना टेलीफोन के जमाने में हमारे जैसो को भी लोगो को नौकरी पर रखने के अधिकार थे . और उन दिनो नौकरी के इंटरव्यू से पहले अकसर सिफारिशी टेलीफोन आना बड़ी कामन बात थी . से

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तर्जनी बनाम अनामिका

22 मई 2017
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व्यंगअनामिका विवेक रंजन श्रीवास्तव विनम्रvivekranjan.vinamra@gmail.com, ७०००३७५७९८मेरी एक अकविता याद आ रही है ,जिसका शीर्षक ही है "शीर्षक".कविता छोटी सी है , कुछ यूंएक कविताएक नज्म एक गजल हो तुम तरन्नुम में और मैं महज कुछ शब्द बेतरतीब से जिन्हें नियति ने बना दिया है तुम्हारा शीर्षक और यूंमिल गया है

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आधी रात को कोर्ट में

18 मई 2018
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गर्मी

27 मई 2018
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अपनी अपनी सुरंगों में कैद

19 अगस्त 2018
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व्यंग्य अपनी अपनी सुरंगों में कैद विवेक रंजन श्रीवास्तव थाईलैंड में थाम लुआंग गुफा की सुरंगों में फंसे बच्चे और उनका कोच सकुशल निकाल लिये गये. सारी दुनिया ने राहत की सांस ली .हम एक बार फिर अपनी विरासत पर गर्व कर सकते हैं क्योकि थाइलैंड ने विपदा की इस घड़ी में न केवल भ

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