shabd-logo

2014 दि इलेक्शन दैट चेंज्ड इंडिया

13 जुलाई 2016

277 बार देखा गया 277
article-image

अभी हाल में राजदीप सरदेसाई की किताब '2014 दि इलेक्शन दैट चेंज्ड इंडिया' पढ़ी। एक ही शब्द है लाजवाब। 2014 में हुए इलैक्शन का इससे अच्छा ब्यौरा दे पाना मुश्किल है। किताब में 10 चैप्टर हैं और इनके अलावा एक भूमिका और एक एपिलॉग भी है। राजदीप सरदेसाई मीडिया में एक जाना पहचाना नाम हैं। 2008 में उन्हें पद्मश्री सम्मान भी मिला है। 


यूं तो 2014 आम चुनावों पर एक किताब 'द मोदी इफेक्ट' मैंने पहले पढ़ी थी जो कि एक बीबीसी पत्रकार लांस प्राइस ने लिखी थी। उस किताब को पढ़ते हुए एक अधूरापन महसूस होता है। लगता है कि जैसे कुछ छूट गया है। इसकी वजह मुझे लेखक का विदेशी होना लगता है। एक विदेशी पत्रकार के तौर पर आप औपचारिक सरकारी पहलुओं को छू सकते हैं, कुछ मानवाधिकारों की बात भी कर सकते हैं लेकिन भारतीय चुनावों के कवरेज के साथ न्याय कर पाना इतना आसान नहीं हैं। जातिगत समीकरण, परिवारवाद, घोटाले, और उनकी आड़ में नित नए बनते बिगड़ते गठजोड़ तो वही समझ सकता है और वही समझा सकता है जिसने हिन्दुस्तान की मिट्टी में सालों इस उधेड़-बुन को देखा हो और इसे कवर किया हो। राजदीप-1, प्राइस-0.


राजदीप सरदेसाई को मैंने करीब 2004 में पहली बार टीवी पर देखा था जब वो एनडीटीवी के प्रबंध संपादक हुआ करते थे। उनका एक प्रोग्राम आता था जिसमें वो राजनीतिक शख़्सियतों के इंटरव्यू किया करते थे। मुझे याद है कि उस शो को मैं बड़े चाव से देखा करता था। 


राजनीति के गलियारों में होती घटनाओं का एक औपचारिक पहलू होता है जिसे हम टीवी न्यूज़ में देखते हैं। लेकिन उन्हीं गलियारों में उन्हीं गतिविधियों का एक अनौपचारिक पहलू भी होता है। वो अनौपचारिक पहलू जो कैमरे के बंद होने से लेकर अगली मर्तबा कैमरा चालू होने के बीच होता है। वो अनौपचारिक पहलू जो पत्रकारों और नेताओं के बीच फोन की बातचीत में घटित होता है। और वो अनौपचारिक पहलू जो कभी-कभी कुछ स्टिंग ओपरेशन्स की वजह से जब दुनिया सामने आ जाता है तो हमें पता चलता है कि सब कुछ कितना सड़ांध भरा और बदबूदार है। जिस तरह मुंबइया फिल्म का एक 'बिहाइंड द सीन' होता है, ठीक वैसा ही कुछ राजनीति में भी होता है। और पर्दे के पीछे की इस दुनिया को अक्सर किताबों में ही जगह मिलती है। चाहे आप कुलदीप नैयर की आत्मकथा 'बियोंड द लाइंस' को देखें, या बरखा दत्त की 'दिस अनक्वाएट लैंड' को या फिर राजदीप की '2014...' को देखें। टीवी पर हम देखते हैं कि राजदीप ने 2002 का मुद्दा उठाया और मोदी जी ने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया। उन्हें सरेआम मोदी विरोधी का मेडल भी दे दिया गया। लेकिन वही राजदीप जब मोदी से अक्सर ही रात को फोन पर बात वर्तमान राजनीति की पड़ताल करते हैं तो ये आम लोगों को नहीं पता चलता। इसी तरह लालू से एक मुलाक़ात का ज़िक्र है जो कि बाथरूम में बैठ के हुई जब लालू शेविंग कर रहे थे। एक ज़िक्र है राज ठाकरे के बारे में, जिसमें वो इंटरव्यू में राजदीप पर बहुत बुरी तरह भड़क जाते हैं और कहते हैं- 'बिहेव योरसेल्फ'। कैमरा बंद होते ही कहते हैं - 'अरे राजदीप! कैसी लगी मेरे स्टाइल? देखना अब तुम्हें कितनी टीआरपी मिलती है'। ऐसे ही पर्दे के पीछे की ढेर सी बातें इस किताब में मिलेंगी।


कई लोग राजदीप को कांग्रेस का पिछलग्गू मानते हैं, उन्हें भी ये किताब एक बार पढ़नी चाहिए। किताब में राहुल गांधी और कांग्रेस के वर्क कल्चर की जितनी तीखी आलोचना राजदीप ने की है, उतनी तो कुलदीप नैयर ने इंदिरा गांधी की भी नहीं की थी। राजदीप किताब लिखते वक़्त बहुत एम्बिशियस रहे हैं। उनकी पूरी तमन्ना है कि सालों बाद भी मीडिया और पॉलिटिकल साइन्स के विद्यार्थी इस किताब को एक बार ज़रूर से पढ़ें। 


किताब शुरू होती है मोदी की राजनीतिक यात्रा से। किस तरह से मोदी एक इवैंट मैनेजर थे लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा के जो तब राजदीप के संपर्क में आए जब राजदीप वहाँ उस यात्रा को कवर करने पहुंचे थे। एक समय था जब मोदी भी मीडिया में आने के लिए घंटों इंतज़ार किया करते थे। आगे राहुल की यात्रा भी है। राजदीप ने पूरी कोशिश की है कि असल राहुल गांधी को पन्नों पर उतारा जा सके। चाय पे चर्चा से लेकर 3D रैलियों तक के तमाम पहलू बहुत रोमांचक तरीके से इस किताब में मिलेंगे। क्षेत्रीय पार्टियों की राजनीति भी किताब का एक महत्वपूर्ण पहलू है। जब मोदी लहर उठ रही थी तब ममता बैनर्जी, जयललिता, मायावती से ले कर के नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, जगनमोहन रेड्डी, नीतीश कुमार, लालू, मुलायम और पवार तक के गणित की विस्तार से चर्चा है। 


किताब का एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू है - समकालीन मीडिया की समीक्षा। मीडिया के आत्मावलोकन के लिए किताब बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती है। किस तरह टीआरपी के लिए मीडिया ने कदम-कदम पर जर्नलिस्टिक प्रिंसिपल्स की धज्जियां उड़ायीं और अंततः खुद भी मोदी प्रचार का चुनावी भोंपू बन के रह गया। मीडिया के बारे में जो चैप्टर है पूरी किताब की हाइलाइट लगा मुझे। आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल के बारे में भी काफी कुछ लिखा गया है। कुल मिला के विगत कुछ सालों में जो जो भी घटनाएँ हमने अपने इर्द-गिर्द होते देखीं हैं, किताब उनको रोमांचक भाषा में सिलसिलेवार पेश करती है। वर्तमान राजनीति में रुचि लेने वालों के लिए अनिवार्य।


अभिषेक ठाकुर की अन्य किताबें

1

अटाला

10 जून 2016
0
5
0

एक कहानी जिसे सुनाना बाक़ी है एक तस्वीर जिसे उतारना बाक़ी है यादों और ख्वाहिशों के गलीचों के बीच कुछ ऐसा है जिसे अभी टटोलना बाक़ी है सोचता हूँ घर के टाँड़ पे पड़े काठ के टूटे घोड़े में चंद कीलों के पैबंद लगा किसी बचपन को दे दूँ कि कल की यादों में आज के लम्हों को बचाना बाक़ी है और...  कुछ झपटी हुई पतंगें है

2

War Craft

10 जून 2016
0
2
0

आजदेखने गए war craft मूवी। ऑफिस से ही सभी लोग जीवी सिनेमा में देखने गएथे। कई फिल्में ट्रेलर में ही ज़्यादा आकर्षक लगती हैं। असल में जब देखो तो बहुत निराशाहोती है। और ये निराशा हॉलीवुड की मूवीस के साथ ज़्यादा होती है। बॉलीवुड ने तो फॉर्मूलाप्रधान फिल्में बना बना के अपना स्तर और अपेक्षाएँ इतनी कम कर ली

3

अंशि

12 जून 2016
0
3
0

नंगे पंजों के बल दौड़ते हुएगिरने के बाद जो सौंधा अहसास है रोज़मर्रा कि फीकी ज़िन्दगी के बीच जो मिश्री की मिठास है पुतलाये ठूंठ मुखौटों के बीच जो किलकारी कि आवाज़ है दशहत से पथराई आँखों के बीच जो परियों का  मासूम ख्वाब है कंटीली दुनियादारी के मरुस्थल में फूटती नई कपोल पे ओस कि महक यकीं नहीं होता वो कस्तू

4

बचपन

14 जून 2016
0
2
0

इस दुनिया में छिपी एक और दुनिया है जिस दुनिया में कोई क़ायदा नहीं होता बस प्यार होता है आँखों में मासूमियत होती है असीम विश्वास होता है निहीत स्वार्थ और फ़ायदा नहीं होता यहाँ शेर को बचाता एक चूहा है ख़रगोश को हराता एक कछुआ है हमारी दुनिया की तरह कोई भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िया नहीं होता इस दुनिया का हर शख्स 

5

अव्यक्त

16 जून 2016
0
3
0

कभी कुछ कहते हुए थोड़ा रह जाता हूँ मैं कभी आँखों के रस्ते थोड़ा बह जाता हूँ मैं मैं अव्यक्त हूँ एक पहेली-सा एक अनकही में कुछ कह जाता हूँ मैं अव्यक्त का अपना एक वजूद है व्यक्त उसका ही तो प्रकट स्वरुप है पर अव्यक्त किसका स्वरुप है ?किस अमूर्त्य का मूर्त्य है ?किसकी खोज है ?किसको ढूँढता रह जाता हूँ मैं ए

6

ययाति के मिथक - भाग 1

16 जून 2016
0
1
1

नियति क्या है? क्या ये महत्त्वपूर्ण है? क्योंकि जब आप नियति की बात करते हैं तो किरदार गौण हो जाते हैं। लेकिन वे किरदार ही हैं जो अपनी-अपनी ज़िंदगियों के सिरों को जोड़कर नियति को गढ़ते हैं। शब्दों से इतर कहानी क्या है? अगर नुक्ते  और लकीरें, मात्राओं, हलन्तों और अक्षरों की शक्लें अख़्तियार ना करें तो क्

7

महायज्ञ

21 जून 2016
0
0
1

साल 1930। जवाहर लाल नेहरू लाहौर में रावी के तट पर भारत का झंडा फहरा चुके थे। कांग्रेस पूर्ण स्वराज की घोषणा कर चुकी थी। साहब सुबह सवेरे अपने घर के दालान में बैठे थे। सामने मेज पर एक खाकी टोपी और कुछ अखबार।  गहरी चिंता में लगते थे। खाकी वर्दी, घुटनों तक चढ़ते बूट और उस पर रोबदार मूंछे। साहब अंग्रेजी स

8

नारद की भविष्यवाणी

28 जून 2016
0
2
0

अभी हाल ही में जो क़िताब ख़तम की वो है मनु शर्मा की लिखी 'नारद की भविष्यवाणी'। मनु शर्मा ने कृष्ण की कहानी को आत्मकथात्मक रूप में लिखा है। ये क़िताब 'कृष्ण की आत्मकथा' सिरीज़ का पहला भाग है। लिखने का तरीका मौलिक है। कृष्ण की कहानी टीवी सीरियलों में कई बार देख चुके हैं। लेकिन एक व्यक्तित्व के रूप में उनक

9

2014 दि इलेक्शन दैट चेंज्ड इंडिया

13 जुलाई 2016
0
3
0

अभी हाल में राजदीप सरदेसाई की किताब '2014 दि इलेक्शन दैट चेंज्ड इंडिया' पढ़ी। एक ही शब्द है लाजवाब। 2014 में हुए इलैक्शन का इससे अच्छा ब्यौरा दे पाना मुश्किल है। किताब में 10 चैप्टर हैं और इनके अलावा एक भूमिका और एक एपिलॉग भी है। राजदीप सरदेसाई मीडिया में एक जाना पहचाना नाम हैं। 2008 में उन्हें पद्मश

10

कितने पाकिस्तान

31 जुलाई 2016
0
2
0

पाकिस्तान क्या है? क्या सिर्फ एक देश जिसने भारत से अलग हो कर अपना वजूद तलाशने की कोशिश की? या फिर पाकिस्तान एक सोच है? एक सोच जिसमें कि एक ही देश के लोग अपने बीच एक सेकटेरियन मानसिकता को पहले उपजाते हैं, फिर उसको सींचते हैं और फिर हाथों में हंसिये और कुदाल ले कर उसी फसल को काटते हैं। एक ऐसी सभ्यता ज

11

किताबें अगस्त की

31 जुलाई 2016
0
4
0

तो इस महीने तीन किताबें पढ़ीं: 1. 2014 The Election That Changed India  (राजदीप सरदेसाई)2. खुशवंतनामा (खुशवंत सिंह)3. कितने पाकिस्तान (कमलेश्वर)अगस्त का टार्गेट 4 किताबों का है और ये चार किताबें हैं:1. Metamorphosis (फ्रैंज काफ्का) 2. गुनाहों का देवता (धर्मवीर भारती)3. मेरे मंच की सरगम (पीयूष मिश्रा)

12

मेटामोर्फोसिस

9 अगस्त 2016
0
3
0

किसी भी देश के द्वारा चुनी गई आर्थिक नीतियाँ केवल वहाँ के नागरिकों की सामाजिक और आर्थिक ज़िंदगियों पर ही असर नहीं डालतीं बल्कि उन ज़िंदगियों की पारिवारिक और नैतिक बुनियादें भी तय करतीं हैं। ग्रेगोर साम्सा नाम का एक आदमी एक दिन सुबह-सुबह नींद से जागता है और अपने आप को एक बहुत बड़े कीड़े में बदल चुका हुआ

13

मिसेज़ फनीबोन्स

13 अगस्त 2016
0
1
0

अगस्त महीने की दूसरी किताब थी - "मिसेज़ फनीबोन्स"। किताब की लेखिका हैं ट्विंकल खन्ना। ट्विंकल खन्ना, जिन्हें ज़्यादातर लोग कई रूप में जानते हैं - राजेश खन्ना और डिंपल कपाड़िया की बेटी, अक्षय कुमार की बीवी और एक फ्लॉप एक्ट्रेस। लेकिन इनके अलावा इनकी एक शख्सियत और है। ये बात अक्सर मध्यम वर्गीय लोगों में

14

गुनाहों का देवता

21 अगस्त 2016
0
1
1

अगस्त महीने की तीसरी किताब थी - गुनाहों का देवता। किताब के लेख क हैं धर्मवीर भारती। बहुत कुछ सुना था इस किताब के बारे में। इस किताब को मेरे जान-पहचान के बहुत लोगों ने recommend भी किया था। ये हिन्दी रोमैंटिक उपन्यासों में सबसे ज़्यादा ल

15

किताबें सितंबर की

28 अगस्त 2016
0
1
0

अगस्त के लिए चार किताबों का लक्ष्य था और येकिताबें सोचीं थीं:1. Metamorphosis (फ्रैंज काफ्का)2. गुनाहों का देवता (धर्मवीर भारती)3. मेरे मंच की सरगम (पीयूष मिश्रा)4. Home and the World (रबिन्द्रनाथटैगोर) इनमें से 'मेरे मंच कीसरगम' और 'Home and the World' की delivery ही नहीं हो पाई।इसलिए इन दो किताबों

16

द ग्लास कैसल

4 सितम्बर 2016
0
0
0

अगस्त महीने की आखिरी किताब थी जीनेट वॉल्स की लिखी 'द ग्लास कैसल'। जीनेट वॉल्स एक अमरीकी जर्नलिस्ट हैं और ये उनका लिखा संस्मरण है। एक किताब जो उनके और उनके पिता के रिश्ते के बीच कुछ तलाश करती हुई सीधे दिल में उतरती है और कुछ हद तक उसे तोड़ भी देती है।इंसान एक परिस्थितिजन्य पुतला है। उसका व्यक्तित्व पर

17

द होम एंड द वर्ल्ड

12 सितम्बर 2016
0
0
0

सितंबर महीने की पहली किताब थी - रबिन्द्रनाथ टैगोर की लिखी 'द होम एंड द वर्ल्ड'। यूं तो टैगोर का नाम सभी ने सुना है। गीतांजली के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था। उनका लिखा गीत 'जन गण मन' हमारा राष्ट्रगान बना और उन्हीं का लिखा एक और गीत 'आमार शोनार बांग्ला' पाकिस्तान

18

और तभी...

25 फरवरी 2017
0
2
0

एक बार फिर उसने बाइक की किक पर ताकत आज़माई. लेकिन एक बार फिर बाइक ने स्टार्ट होने से मना कर दिया. चिपचिपी उमस तिस पर हेलमेट जिसे वो उतार भी नहीं सकता था. वो उस लम्हे को कोस रहा था जब इस मोहल्ले का रुख़ करने का ख़याल आया. यादें उमस मुक्त होतीं हैं और शायद इसलिए अच्छी भी लगती हैं. अक्सर ही आम ज़िंदगी हम

19

विधानसभा चुनाव - नज़रिया

13 मार्च 2017
0
0
1

कल पाँच राज्यों में चुनाव के नतीजे आ गए। दिन भर YouTube और Facebook पर ऑनलाइन नतीजे देखते रहे। ये चुनाव भी एक बार फिर डेमोक्रेसी की च्विंगम ही साबित हुए। रस तो कब ही का खत्म हो चुका है बस रबड़ है जब तक चबाते रहो। प्रधानमंत्री एक बार फिर सबसे शक्तिशाली साबित हुए। उनकी जीत के बाद तथाकथित liberals एक बा

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए