अभी हाल में राजदीप सरदेसाई की किताब '2014 दि इलेक्शन दैट चेंज्ड इंडिया' पढ़ी। एक ही शब्द है लाजवाब। 2014 में हुए इलैक्शन का इससे अच्छा ब्यौरा दे पाना मुश्किल है। किताब में 10 चैप्टर हैं और इनके अलावा एक भूमिका और एक एपिलॉग भी है। राजदीप सरदेसाई मीडिया में एक जाना पहचाना नाम हैं। 2008 में उन्हें पद्मश्री सम्मान भी मिला है।
यूं तो 2014 आम चुनावों पर एक किताब 'द मोदी इफेक्ट' मैंने पहले पढ़ी थी जो कि एक बीबीसी पत्रकार लांस प्राइस ने लिखी थी। उस किताब को पढ़ते हुए एक अधूरापन महसूस होता है। लगता है कि जैसे कुछ छूट गया है। इसकी वजह मुझे लेखक का विदेशी होना लगता है। एक विदेशी पत्रकार के तौर पर आप औपचारिक सरकारी पहलुओं को छू सकते हैं, कुछ मानवाधिकारों की बात भी कर सकते हैं लेकिन भारतीय चुनावों के कवरेज के साथ न्याय कर पाना इतना आसान नहीं हैं। जातिगत समीकरण, परिवारवाद, घोटाले, और उनकी आड़ में नित नए बनते बिगड़ते गठजोड़ तो वही समझ सकता है और वही समझा सकता है जिसने हिन्दुस्तान की मिट्टी में सालों इस उधेड़-बुन को देखा हो और इसे कवर किया हो। राजदीप-1, प्राइस-0.
राजदीप सरदेसाई को मैंने करीब 2004 में पहली बार टीवी पर देखा था जब वो एनडीटीवी के प्रबंध संपादक हुआ करते थे। उनका एक प्रोग्राम आता था जिसमें वो राजनीतिक शख़्सियतों के इंटरव्यू किया करते थे। मुझे याद है कि उस शो को मैं बड़े चाव से देखा करता था।
राजनीति के गलियारों में होती घटनाओं का एक औपचारिक पहलू होता है जिसे हम टीवी न्यूज़ में देखते हैं। लेकिन उन्हीं गलियारों में उन्हीं गतिविधियों का एक अनौपचारिक पहलू भी होता है। वो अनौपचारिक पहलू जो कैमरे के बंद होने से लेकर अगली मर्तबा कैमरा चालू होने के बीच होता है। वो अनौपचारिक पहलू जो पत्रकारों और नेताओं के बीच फोन की बातचीत में घटित होता है। और वो अनौपचारिक पहलू जो कभी-कभी कुछ स्टिंग ओपरेशन्स की वजह से जब दुनिया सामने आ जाता है तो हमें पता चलता है कि सब कुछ कितना सड़ांध भरा और बदबूदार है। जिस तरह मुंबइया फिल्म का एक 'बिहाइंड द सीन' होता है, ठीक वैसा ही कुछ राजनीति में भी होता है। और पर्दे के पीछे की इस दुनिया को अक्सर किताबों में ही जगह मिलती है। चाहे आप कुलदीप नैयर की आत्मकथा 'बियोंड द लाइंस' को देखें, या बरखा दत्त की 'दिस अनक्वाएट लैंड' को या फिर राजदीप की '2014...' को देखें। टीवी पर हम देखते हैं कि राजदीप ने 2002 का मुद्दा उठाया और मोदी जी ने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया। उन्हें सरेआम मोदी विरोधी का मेडल भी दे दिया गया। लेकिन वही राजदीप जब मोदी से अक्सर ही रात को फोन पर बात वर्तमान राजनीति की पड़ताल करते हैं तो ये आम लोगों को नहीं पता चलता। इसी तरह लालू से एक मुलाक़ात का ज़िक्र है जो कि बाथरूम में बैठ के हुई जब लालू शेविंग कर रहे थे। एक ज़िक्र है राज ठाकरे के बारे में, जिसमें वो इंटरव्यू में राजदीप पर बहुत बुरी तरह भड़क जाते हैं और कहते हैं- 'बिहेव योरसेल्फ'। कैमरा बंद होते ही कहते हैं - 'अरे राजदीप! कैसी लगी मेरे स्टाइल? देखना अब तुम्हें कितनी टीआरपी मिलती है'। ऐसे ही पर्दे के पीछे की ढेर सी बातें इस किताब में मिलेंगी।
कई लोग राजदीप को कांग्रेस का पिछलग्गू मानते हैं, उन्हें भी ये किताब एक बार पढ़नी चाहिए। किताब में राहुल गांधी और कांग्रेस के वर्क कल्चर की जितनी तीखी आलोचना राजदीप ने की है, उतनी तो कुलदीप नैयर ने इंदिरा गांधी की भी नहीं की थी। राजदीप किताब लिखते वक़्त बहुत एम्बिशियस रहे हैं। उनकी पूरी तमन्ना है कि सालों बाद भी मीडिया और पॉलिटिकल साइन्स के विद्यार्थी इस किताब को एक बार ज़रूर से पढ़ें।
किताब शुरू होती है मोदी की राजनीतिक यात्रा से। किस तरह से मोदी एक इवैंट मैनेजर थे लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा के जो तब राजदीप के संपर्क में आए जब राजदीप वहाँ उस यात्रा को कवर करने पहुंचे थे। एक समय था जब मोदी भी मीडिया में आने के लिए घंटों इंतज़ार किया करते थे। आगे राहुल की यात्रा भी है। राजदीप ने पूरी कोशिश की है कि असल राहुल गांधी को पन्नों पर उतारा जा सके। चाय पे चर्चा से लेकर 3D रैलियों तक के तमाम पहलू बहुत रोमांचक तरीके से इस किताब में मिलेंगे। क्षेत्रीय पार्टियों की राजनीति भी किताब का एक महत्वपूर्ण पहलू है। जब मोदी लहर उठ रही थी तब ममता बैनर्जी, जयललिता, मायावती से ले कर के नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, जगनमोहन रेड्डी, नीतीश कुमार, लालू, मुलायम और पवार तक के गणित की विस्तार से चर्चा है।
किताब का एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू है - समकालीन मीडिया की समीक्षा। मीडिया के आत्मावलोकन के लिए किताब बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती है। किस तरह टीआरपी के लिए मीडिया ने कदम-कदम पर जर्नलिस्टिक प्रिंसिपल्स की धज्जियां उड़ायीं और अंततः खुद भी मोदी प्रचार का चुनावी भोंपू बन के रह गया। मीडिया के बारे में जो चैप्टर है पूरी किताब की हाइलाइट लगा मुझे। आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल के बारे में भी काफी कुछ लिखा गया है। कुल मिला के विगत कुछ सालों में जो जो भी घटनाएँ हमने अपने इर्द-गिर्द होते देखीं हैं, किताब उनको रोमांचक भाषा में सिलसिलेवार पेश करती है। वर्तमान राजनीति में रुचि लेने वालों के लिए अनिवार्य।