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ययाति के मिथक - भाग 1

16 जून 2016

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नियति क्या है? क्या ये महत्त्वपूर्ण है? क्योंकि जब आप नियति की बात करते हैं तो किरदार गौण हो जाते हैं। लेकिन वे किरदार ही हैं जो अपनी-अपनी ज़िंदगियों के सिरों को जोड़कर नियति को गढ़ते हैं। शब्दों से इतर कहानी क्या है? अगर नुक्ते  और लकीरें, मात्राओं, हलन्तों और अक्षरों की शक्लें अख़्तियार ना करें तो क्या शब्द बनेंगे? और शब्द अगर हजारों, लाखों की तादात में एक के बाजू एक खड़े ना हों तो क्या कहानी बनेगी? या फिर ये कहानी स्वयं ही थी जो व्यक्त होना चाहती थी और इस कड़ी में सबसे पहले नुक्ते और लकीरें अवतरित हुए। फिर उन नुक्तों और लकीरों ने मात्राओं, हलन्तों और अक्षरों को जन्मा जिन्होनें फिर मिल कर शब्द बनाए, और फिर उन शब्दों ने मिलकर कहानी। तो क्या ये माना जाये कि कहानी तो  तब से मौजूद थी जब नुक्ते और लकीरें हुआ भी नहीं करते थे। नियति।


आज ययाति को आज़ाद हुए पूरा एक साल हो गया है। मेरी कहानी इस मुक्ति संग्राम की कहानी भी है। कहानी जब काल्पनिक होती है तो सुनाने वाले की कल्पना पर निर्भर करती है। परंतु जो कहानियाँ वास्तविक होतीं हैं वो सुनाने वाले के नज़रिये पर निर्भर करतीं हैं। हम सभी अपनी अपनी ज़िंदगियाँ अपने अपने आयामों में जीते हैं लेकिन ये आयाम जब आपस में एक दूसरे से टकराते हैं, उलझते हैं, मिलते जुलते हैं, तो उनसे बने कोनों में, कोटकों में और पोरों में छुपी होती हैं कहानियाँ। सुनाने वाला उन पोरों को टटोलता है, कुरेदता है और उस कहानी को सबके सामने लाता है। ययाति की कहानी मेरा अपना दृष्टिकोण है। इस ग्रह पर लाखों लोग हैं और इस कहानी के शब्द उनकी ज़िंदगियों के ऊपर उकर के बने हैं। वे तमाम ज़िंदगियाँ इस कहानी में अक्षरों, हिज्जों, हलन्तों, मात्राओं, लकीरों और नुक्तों के रूप में मौजूद हैं। लिहाजा सबके पास अवश्य ही अपना एक संस्करण होगा। ये मेरा संस्करण है। ये संस्करण इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि वो मैं ही था जिसने इस संग्राम की नींव रखी थी। जटायु में। मेरा नाम धनंजय है। मैं नाम्बी का रहने वाला हूँ। 


हमारी ज़िंदगियाँ हमारे द्वारा किए गए चुनावों पर आगे बढ़ती रहतीं हैं। लेकिन परिस्थितियाँ... वे परिस्थितियाँ जिनमें हम चुनाव के लिए बाध्य होते हैं, अक्सर ही किसी अन्य के चुनाव का परिणाम होती हैं। हम सभी को बचपन में जो परिवेश मिलता है या यूं कहें कि ज़िंदगी की जो शुरुआती परिस्थितियाँ मिलती हैं, वे उस ग्रह पर उत्पन्न समूची परिस्थियों और उनकी कोख से फूटे समूचे चुनावों का समग्र परिणाम होती हैं। मुझे मेरा बचपन नाम्बी महाद्वीप के ईवध देश में मिला था। ईवध के पश्चिमी छोर पर थीओडो सागर के किनारे एक गाँव है अक्षज, जहां एक नीपल परिवार में मेरा जन्म हुआ। हमारा गाँव पूरे ईवध में खूबसूरत परछाइयों के गाँव के नाम से प्रसिद्ध था। रात में जब सागर में यावी की रोशनी पड़ती तो गाँव की दीवारों पर पानी की रंग बिरंगी परछाइयाँ तैरने लगतीं। रात में सोने के वक़्त बाबा चिमनी बुझाते तो सामने की दीवार पर रंग बिखर जाते। ये रंग दरअसल सागर में पड़े नीपों की वजह से आया करते। बाबा बताते कि सागर के इस हिस्से में जीवाल मछली रहती है। बाकी सारी मछलियाँ अपने अंडों को तोड़कर बाहर आ जातीं हैं लेकिन जीवाल मछलियाँ अपने अंडों को कभी नहीं तोड़तीं। ये अंडे ही नीप कहलाते। जैसे जैसे अंडे के अंदर जीवाल मछली बड़ी होती नीप में एक गोल छेद आकार लेने लगता। जब मछली पूरी तरह बड़ी हो जाती तब तक उसका नीप भी पक जाता और मजबूत हो जाता। सिर्फ एक झिल्ली से उसका मुंह ढंका रहता। मछली झिल्ली तोड़कर बाहर जा जाती लेकिन ताउम्र उसी नीप में रहती। वह नीप ही उसका घर होता। धीरे धीरे ये नीप अलग अलग रंगों में बदल जाते, हल्के पारदर्शी हो जाते, चमकने भी लगते और रात में जब यावी की रोशनी पड़ती तो दूर गावों की दीवारों तक अपने अस्तित्व की गूंज को बिखेरते। मुझे वे झिलमिलातीं परछाइयाँ बहुत अच्छी लगतीं। रात को देर तलक सामने की दीवार पर उन्हें देखा करता। कई बार मैं उन्हें देखने छत पर चढ़ जाता जहां से ऐसा लगता कि पूरा गाँव ही जलमग्न हो। कभी कभी रात में किनारे पर भी चला जाता। वहाँ से समंदर बहुत खूबसूरत दिखाई पड़ता। किनारे की तरफ के उथले पानी में चमक ज़्यादा होती जबकि आगे जैसे जैसे पानी गहराता जाता चमक भी मद्ध्म पड़ती जाती। उन रोशनियों की वजह से हमारे गाँव में अंधेरा सिर्फ अमावस को होता जब यावी की रोशनी न होती। मुझे अमावस बिलकुल भी पसंद नहीं थी। लेकिन पूनम की रात जब यावी अपने पूरे रूप में होता तो लगता जैसे आसमान में नीपों का  सरदार आ गया हो और अपने सरदार को देखकर सारे नीप दुगनी ताकत से अंधेरे को परास्त करने में जुट जाते। यूं तो हर रात ही समन्दर किनारे जश्न की होती पर पूनम की रात बहुत ज़्यादा चहल पहल वाली हुअा करती। हम सब बच्चे किनारे की रेत पर दौड़ते, रेंगते अौर रेत में नीप ढूंढते। बच्चों को नीपों के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी। हम सब दौड़-दौड़ के बड़ों के पास जाते और उन्हें अपने खोजे नीप दिखलाते और इस उम्मीद में उनका मुंह ताकते कि वो कह दें कि ये नीप तो नायाब है, लेकिन वो कभी नहीं कहते। वे नीप भले ही नायाब ना रहे हों लेकिन ग़ुज़रते वक्त के साथ लम्हें ज़रूर नायाब हो जाते हैं। आज जब उस समय के बारे में सोचता हूं तो लगता है जाने किस युग की बात हो। कुछ भी तो ऐसा नहीं था, जैसा अब है। जैसे जैसे सवेरा होता, इरा की रोशनी वक्त की चादर की तरह आती और समेट लेती सारे रंगों को और रह जातीं यादें, लम्हों सी झिलमिलाती, कुछ हमारे भीतर, कुछ सागर की सतह पर। 

अभिषेक ठाकुर की अन्य किताबें

अभिषेक ठाकुर

अभिषेक ठाकुर

उपन्यास लिखने का पहला प्रयास है. एक fantasy novel, जो ययाति नाम के एक ग्रह पर हुई सबसे बड़ी जंग की कहानी है.

17 जून 2016

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अटाला

10 जून 2016
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एक कहानी जिसे सुनाना बाक़ी है एक तस्वीर जिसे उतारना बाक़ी है यादों और ख्वाहिशों के गलीचों के बीच कुछ ऐसा है जिसे अभी टटोलना बाक़ी है सोचता हूँ घर के टाँड़ पे पड़े काठ के टूटे घोड़े में चंद कीलों के पैबंद लगा किसी बचपन को दे दूँ कि कल की यादों में आज के लम्हों को बचाना बाक़ी है और...  कुछ झपटी हुई पतंगें है

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War Craft

10 जून 2016
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आजदेखने गए war craft मूवी। ऑफिस से ही सभी लोग जीवी सिनेमा में देखने गएथे। कई फिल्में ट्रेलर में ही ज़्यादा आकर्षक लगती हैं। असल में जब देखो तो बहुत निराशाहोती है। और ये निराशा हॉलीवुड की मूवीस के साथ ज़्यादा होती है। बॉलीवुड ने तो फॉर्मूलाप्रधान फिल्में बना बना के अपना स्तर और अपेक्षाएँ इतनी कम कर ली

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अंशि

12 जून 2016
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नंगे पंजों के बल दौड़ते हुएगिरने के बाद जो सौंधा अहसास है रोज़मर्रा कि फीकी ज़िन्दगी के बीच जो मिश्री की मिठास है पुतलाये ठूंठ मुखौटों के बीच जो किलकारी कि आवाज़ है दशहत से पथराई आँखों के बीच जो परियों का  मासूम ख्वाब है कंटीली दुनियादारी के मरुस्थल में फूटती नई कपोल पे ओस कि महक यकीं नहीं होता वो कस्तू

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बचपन

14 जून 2016
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इस दुनिया में छिपी एक और दुनिया है जिस दुनिया में कोई क़ायदा नहीं होता बस प्यार होता है आँखों में मासूमियत होती है असीम विश्वास होता है निहीत स्वार्थ और फ़ायदा नहीं होता यहाँ शेर को बचाता एक चूहा है ख़रगोश को हराता एक कछुआ है हमारी दुनिया की तरह कोई भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िया नहीं होता इस दुनिया का हर शख्स 

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अव्यक्त

16 जून 2016
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कभी कुछ कहते हुए थोड़ा रह जाता हूँ मैं कभी आँखों के रस्ते थोड़ा बह जाता हूँ मैं मैं अव्यक्त हूँ एक पहेली-सा एक अनकही में कुछ कह जाता हूँ मैं अव्यक्त का अपना एक वजूद है व्यक्त उसका ही तो प्रकट स्वरुप है पर अव्यक्त किसका स्वरुप है ?किस अमूर्त्य का मूर्त्य है ?किसकी खोज है ?किसको ढूँढता रह जाता हूँ मैं ए

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ययाति के मिथक - भाग 1

16 जून 2016
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नियति क्या है? क्या ये महत्त्वपूर्ण है? क्योंकि जब आप नियति की बात करते हैं तो किरदार गौण हो जाते हैं। लेकिन वे किरदार ही हैं जो अपनी-अपनी ज़िंदगियों के सिरों को जोड़कर नियति को गढ़ते हैं। शब्दों से इतर कहानी क्या है? अगर नुक्ते  और लकीरें, मात्राओं, हलन्तों और अक्षरों की शक्लें अख़्तियार ना करें तो क्

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महायज्ञ

21 जून 2016
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साल 1930। जवाहर लाल नेहरू लाहौर में रावी के तट पर भारत का झंडा फहरा चुके थे। कांग्रेस पूर्ण स्वराज की घोषणा कर चुकी थी। साहब सुबह सवेरे अपने घर के दालान में बैठे थे। सामने मेज पर एक खाकी टोपी और कुछ अखबार।  गहरी चिंता में लगते थे। खाकी वर्दी, घुटनों तक चढ़ते बूट और उस पर रोबदार मूंछे। साहब अंग्रेजी स

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नारद की भविष्यवाणी

28 जून 2016
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अभी हाल ही में जो क़िताब ख़तम की वो है मनु शर्मा की लिखी 'नारद की भविष्यवाणी'। मनु शर्मा ने कृष्ण की कहानी को आत्मकथात्मक रूप में लिखा है। ये क़िताब 'कृष्ण की आत्मकथा' सिरीज़ का पहला भाग है। लिखने का तरीका मौलिक है। कृष्ण की कहानी टीवी सीरियलों में कई बार देख चुके हैं। लेकिन एक व्यक्तित्व के रूप में उनक

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2014 दि इलेक्शन दैट चेंज्ड इंडिया

13 जुलाई 2016
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अभी हाल में राजदीप सरदेसाई की किताब '2014 दि इलेक्शन दैट चेंज्ड इंडिया' पढ़ी। एक ही शब्द है लाजवाब। 2014 में हुए इलैक्शन का इससे अच्छा ब्यौरा दे पाना मुश्किल है। किताब में 10 चैप्टर हैं और इनके अलावा एक भूमिका और एक एपिलॉग भी है। राजदीप सरदेसाई मीडिया में एक जाना पहचाना नाम हैं। 2008 में उन्हें पद्मश

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कितने पाकिस्तान

31 जुलाई 2016
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पाकिस्तान क्या है? क्या सिर्फ एक देश जिसने भारत से अलग हो कर अपना वजूद तलाशने की कोशिश की? या फिर पाकिस्तान एक सोच है? एक सोच जिसमें कि एक ही देश के लोग अपने बीच एक सेकटेरियन मानसिकता को पहले उपजाते हैं, फिर उसको सींचते हैं और फिर हाथों में हंसिये और कुदाल ले कर उसी फसल को काटते हैं। एक ऐसी सभ्यता ज

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किताबें अगस्त की

31 जुलाई 2016
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तो इस महीने तीन किताबें पढ़ीं: 1. 2014 The Election That Changed India  (राजदीप सरदेसाई)2. खुशवंतनामा (खुशवंत सिंह)3. कितने पाकिस्तान (कमलेश्वर)अगस्त का टार्गेट 4 किताबों का है और ये चार किताबें हैं:1. Metamorphosis (फ्रैंज काफ्का) 2. गुनाहों का देवता (धर्मवीर भारती)3. मेरे मंच की सरगम (पीयूष मिश्रा)

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मेटामोर्फोसिस

9 अगस्त 2016
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किसी भी देश के द्वारा चुनी गई आर्थिक नीतियाँ केवल वहाँ के नागरिकों की सामाजिक और आर्थिक ज़िंदगियों पर ही असर नहीं डालतीं बल्कि उन ज़िंदगियों की पारिवारिक और नैतिक बुनियादें भी तय करतीं हैं। ग्रेगोर साम्सा नाम का एक आदमी एक दिन सुबह-सुबह नींद से जागता है और अपने आप को एक बहुत बड़े कीड़े में बदल चुका हुआ

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मिसेज़ फनीबोन्स

13 अगस्त 2016
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अगस्त महीने की दूसरी किताब थी - "मिसेज़ फनीबोन्स"। किताब की लेखिका हैं ट्विंकल खन्ना। ट्विंकल खन्ना, जिन्हें ज़्यादातर लोग कई रूप में जानते हैं - राजेश खन्ना और डिंपल कपाड़िया की बेटी, अक्षय कुमार की बीवी और एक फ्लॉप एक्ट्रेस। लेकिन इनके अलावा इनकी एक शख्सियत और है। ये बात अक्सर मध्यम वर्गीय लोगों में

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गुनाहों का देवता

21 अगस्त 2016
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अगस्त महीने की तीसरी किताब थी - गुनाहों का देवता। किताब के लेख क हैं धर्मवीर भारती। बहुत कुछ सुना था इस किताब के बारे में। इस किताब को मेरे जान-पहचान के बहुत लोगों ने recommend भी किया था। ये हिन्दी रोमैंटिक उपन्यासों में सबसे ज़्यादा ल

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किताबें सितंबर की

28 अगस्त 2016
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अगस्त के लिए चार किताबों का लक्ष्य था और येकिताबें सोचीं थीं:1. Metamorphosis (फ्रैंज काफ्का)2. गुनाहों का देवता (धर्मवीर भारती)3. मेरे मंच की सरगम (पीयूष मिश्रा)4. Home and the World (रबिन्द्रनाथटैगोर) इनमें से 'मेरे मंच कीसरगम' और 'Home and the World' की delivery ही नहीं हो पाई।इसलिए इन दो किताबों

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द ग्लास कैसल

4 सितम्बर 2016
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अगस्त महीने की आखिरी किताब थी जीनेट वॉल्स की लिखी 'द ग्लास कैसल'। जीनेट वॉल्स एक अमरीकी जर्नलिस्ट हैं और ये उनका लिखा संस्मरण है। एक किताब जो उनके और उनके पिता के रिश्ते के बीच कुछ तलाश करती हुई सीधे दिल में उतरती है और कुछ हद तक उसे तोड़ भी देती है।इंसान एक परिस्थितिजन्य पुतला है। उसका व्यक्तित्व पर

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द होम एंड द वर्ल्ड

12 सितम्बर 2016
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सितंबर महीने की पहली किताब थी - रबिन्द्रनाथ टैगोर की लिखी 'द होम एंड द वर्ल्ड'। यूं तो टैगोर का नाम सभी ने सुना है। गीतांजली के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था। उनका लिखा गीत 'जन गण मन' हमारा राष्ट्रगान बना और उन्हीं का लिखा एक और गीत 'आमार शोनार बांग्ला' पाकिस्तान

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और तभी...

25 फरवरी 2017
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एक बार फिर उसने बाइक की किक पर ताकत आज़माई. लेकिन एक बार फिर बाइक ने स्टार्ट होने से मना कर दिया. चिपचिपी उमस तिस पर हेलमेट जिसे वो उतार भी नहीं सकता था. वो उस लम्हे को कोस रहा था जब इस मोहल्ले का रुख़ करने का ख़याल आया. यादें उमस मुक्त होतीं हैं और शायद इसलिए अच्छी भी लगती हैं. अक्सर ही आम ज़िंदगी हम

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विधानसभा चुनाव - नज़रिया

13 मार्च 2017
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कल पाँच राज्यों में चुनाव के नतीजे आ गए। दिन भर YouTube और Facebook पर ऑनलाइन नतीजे देखते रहे। ये चुनाव भी एक बार फिर डेमोक्रेसी की च्विंगम ही साबित हुए। रस तो कब ही का खत्म हो चुका है बस रबड़ है जब तक चबाते रहो। प्रधानमंत्री एक बार फिर सबसे शक्तिशाली साबित हुए। उनकी जीत के बाद तथाकथित liberals एक बा

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