नियति क्या है? क्या ये महत्त्वपूर्ण है? क्योंकि जब आप नियति की बात करते हैं तो किरदार गौण हो जाते हैं। लेकिन वे किरदार ही हैं जो अपनी-अपनी ज़िंदगियों के सिरों को जोड़कर नियति को गढ़ते हैं। शब्दों से इतर कहानी क्या है? अगर नुक्ते और लकीरें, मात्राओं, हलन्तों और अक्षरों की शक्लें अख़्तियार ना करें तो क्या शब्द बनेंगे? और शब्द अगर हजारों, लाखों की तादात में एक के बाजू एक खड़े ना हों तो क्या कहानी बनेगी? या फिर ये कहानी स्वयं ही थी जो व्यक्त होना चाहती थी और इस कड़ी में सबसे पहले नुक्ते और लकीरें अवतरित हुए। फिर उन नुक्तों और लकीरों ने मात्राओं, हलन्तों और अक्षरों को जन्मा जिन्होनें फिर मिल कर शब्द बनाए, और फिर उन शब्दों ने मिलकर कहानी। तो क्या ये माना जाये कि कहानी तो तब से मौजूद थी जब नुक्ते और लकीरें हुआ भी नहीं करते थे। नियति।
आज ययाति को आज़ाद हुए पूरा एक साल हो गया है। मेरी कहानी इस मुक्ति संग्राम की कहानी भी है। कहानी जब काल्पनिक होती है तो सुनाने वाले की कल्पना पर निर्भर करती है। परंतु जो कहानियाँ वास्तविक होतीं हैं वो सुनाने वाले के नज़रिये पर निर्भर करतीं हैं। हम सभी अपनी अपनी ज़िंदगियाँ अपने अपने आयामों में जीते हैं लेकिन ये आयाम जब आपस में एक दूसरे से टकराते हैं, उलझते हैं, मिलते जुलते हैं, तो उनसे बने कोनों में, कोटकों में और पोरों में छुपी होती हैं कहानियाँ। सुनाने वाला उन पोरों को टटोलता है, कुरेदता है और उस कहानी को सबके सामने लाता है। ययाति की कहानी मेरा अपना दृष्टिकोण है। इस ग्रह पर लाखों लोग हैं और इस कहानी के शब्द उनकी ज़िंदगियों के ऊपर उकर के बने हैं। वे तमाम ज़िंदगियाँ इस कहानी में अक्षरों, हिज्जों, हलन्तों, मात्राओं, लकीरों और नुक्तों के रूप में मौजूद हैं। लिहाजा सबके पास अवश्य ही अपना एक संस्करण होगा। ये मेरा संस्करण है। ये संस्करण इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि वो मैं ही था जिसने इस संग्राम की नींव रखी थी। जटायु में। मेरा नाम धनंजय है। मैं नाम्बी का रहने वाला हूँ।
हमारी ज़िंदगियाँ हमारे द्वारा किए गए चुनावों पर आगे बढ़ती रहतीं हैं। लेकिन परिस्थितियाँ... वे परिस्थितियाँ जिनमें हम चुनाव के लिए बाध्य होते हैं, अक्सर ही किसी अन्य के चुनाव का परिणाम होती हैं। हम सभी को बचपन में जो परिवेश मिलता है या यूं कहें कि ज़िंदगी की जो शुरुआती परिस्थितियाँ मिलती हैं, वे उस ग्रह पर उत्पन्न समूची परिस्थियों और उनकी कोख से फूटे समूचे चुनावों का समग्र परिणाम होती हैं। मुझे मेरा बचपन नाम्बी महाद्वीप के ईवध देश में मिला था। ईवध के पश्चिमी छोर पर थीओडो सागर के किनारे एक गाँव है अक्षज, जहां एक नीपल परिवार में मेरा जन्म हुआ। हमारा गाँव पूरे ईवध में खूबसूरत परछाइयों के गाँव के नाम से प्रसिद्ध था। रात में जब सागर में यावी की रोशनी पड़ती तो गाँव की दीवारों पर पानी की रंग बिरंगी परछाइयाँ तैरने लगतीं। रात में सोने के वक़्त बाबा चिमनी बुझाते तो सामने की दीवार पर रंग बिखर जाते। ये रंग दरअसल सागर में पड़े नीपों की वजह से आया करते। बाबा बताते कि सागर के इस हिस्से में जीवाल मछली रहती है। बाकी सारी मछलियाँ अपने अंडों को तोड़कर बाहर आ जातीं हैं लेकिन जीवाल मछलियाँ अपने अंडों को कभी नहीं तोड़तीं। ये अंडे ही नीप कहलाते। जैसे जैसे अंडे के अंदर जीवाल मछली बड़ी होती नीप में एक गोल छेद आकार लेने लगता। जब मछली पूरी तरह बड़ी हो जाती तब तक उसका नीप भी पक जाता और मजबूत हो जाता। सिर्फ एक झिल्ली से उसका मुंह ढंका रहता। मछली झिल्ली तोड़कर बाहर जा जाती लेकिन ताउम्र उसी नीप में रहती। वह नीप ही उसका घर होता। धीरे धीरे ये नीप अलग अलग रंगों में बदल जाते, हल्के पारदर्शी हो जाते, चमकने भी लगते और रात में जब यावी की रोशनी पड़ती तो दूर गावों की दीवारों तक अपने अस्तित्व की गूंज को बिखेरते। मुझे वे झिलमिलातीं परछाइयाँ बहुत अच्छी लगतीं। रात को देर तलक सामने की दीवार पर उन्हें देखा करता। कई बार मैं उन्हें देखने छत पर चढ़ जाता जहां से ऐसा लगता कि पूरा गाँव ही जलमग्न हो। कभी कभी रात में किनारे पर भी चला जाता। वहाँ से समंदर बहुत खूबसूरत दिखाई पड़ता। किनारे की तरफ के उथले पानी में चमक ज़्यादा होती जबकि आगे जैसे जैसे पानी गहराता जाता चमक भी मद्ध्म पड़ती जाती। उन रोशनियों की वजह से हमारे गाँव में अंधेरा सिर्फ अमावस को होता जब यावी की रोशनी न होती। मुझे अमावस बिलकुल भी पसंद नहीं थी। लेकिन पूनम की रात जब यावी अपने पूरे रूप में होता तो लगता जैसे आसमान में नीपों का सरदार आ गया हो और अपने सरदार को देखकर सारे नीप दुगनी ताकत से अंधेरे को परास्त करने में जुट जाते। यूं तो हर रात ही समन्दर किनारे जश्न की होती पर पूनम की रात बहुत ज़्यादा चहल पहल वाली हुअा करती। हम सब बच्चे किनारे की रेत पर दौड़ते, रेंगते अौर रेत में नीप ढूंढते। बच्चों को नीपों के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी। हम सब दौड़-दौड़ के बड़ों के पास जाते और उन्हें अपने खोजे नीप दिखलाते और इस उम्मीद में उनका मुंह ताकते कि वो कह दें कि ये नीप तो नायाब है, लेकिन वो कभी नहीं कहते। वे नीप भले ही नायाब ना रहे हों लेकिन ग़ुज़रते वक्त के साथ लम्हें ज़रूर नायाब हो जाते हैं। आज जब उस समय के बारे में सोचता हूं तो लगता है जाने किस युग की बात हो। कुछ भी तो ऐसा नहीं था, जैसा अब है। जैसे जैसे सवेरा होता, इरा की रोशनी वक्त की चादर की तरह आती और समेट लेती सारे रंगों को और रह जातीं यादें, लम्हों सी झिलमिलाती, कुछ हमारे भीतर, कुछ सागर की सतह पर।