कल पाँच राज्यों में चुनाव के नतीजे आ गए। दिन भर YouTube और Facebook पर ऑनलाइन नतीजे देखते रहे। ये चुनाव भी एक बार फिर डेमोक्रेसी की च्विंगम ही साबित हुए। रस तो कब ही का खत्म हो चुका है बस रबड़ है जब तक चबाते रहो। प्रधानमंत्री एक बार फिर सबसे शक्तिशाली साबित हुए। उनकी जीत के बाद तथाकथित liberals एक बार फिर छाती पीटते हुए नज़र आए। पूरी दुनिया में यही हो रहा है। हर जगह conservatives आगे आ रहे हैं और liberals पीछे जाते जा रहे हैं। हिंदुस्तान में पीछे नहीं बल्कि बाहर ही हो जाएँगे लगता है। लेकिन सवाल है कि हिंदुस्तान में क्या liberals हैं भी? मुझे नहीं लगता। हिन्दुस्तान में सही अर्थों में कोई liberal पार्टी है ही नहीं।
भारत दरअसल एक वोट-बैंक की राजनीति है, ideologies की नहीं। किसी भी तरह का 'ism' एक विचारधारा होती है लेकिन जब आप वोट-बैंक की बात करते हैं तो कहीं न कहीं आपके लिए विचारधारा गैर ज़रूरी हो जाती है बनिस्बत चुनाव जीतने के।
तमाम पब्लिक भी बहुत खुश है कि उनकी पसंद की पार्टी जीत गई। जिन्हें खुश होना हों, हो लें, लेकिन खुद से एक सवाल भी करें कि जो व्यक्ति एक पार्टी में रह के भ्रष्ट है वो दूसरी में जा के दूध का धुला कैसे हो गया? इन नेताओं की दरअसल कोई व्यक्तिगत विचारधारा है ही नहीं। जो व्यक्ति एक पार्टी में रह के धर्मनिरपेक्ष है वही दूसरी में जा के कट्टरपंथी कैसे हो जाएगा? ये सरासर नामुमकिन है। सिद्धू और बहुगुणा के उदाहरण ताज़ातरीन सबके सामने हैं। क्या सिद्धू जब तक भाजपा में थे तो क्या मुसलमान विरोधी थे और आज तथाकथित धर्मनिरपेक्षवादियों के खेमे में जा कर धर्मनिरपेक्ष हो गए? वहीं रीता बहुगुणा कांग्रेस से निकल कर भाजपा में गईं तो क्या हिंदुत्ववादी हो गईं? दरअसल ये सारे लोग शातिर, मौकापरस्त और चालाक राजनीतिज्ञ हैं। अपनी शातिर चालों में ये पब्लिक को उलझा के रखते हैं। यहाँ सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि क्या जनता को विकल्प मिला?
एक राजनेता पार्टी 'A' से विधायक है और चुनाव के पहले एंटिइंकमबेनसी को देखते हुए पार्टी 'A' से पार्टी 'B' में चला जाता है। जनता 'विकल्प' की तलाश में 'PARTY B' को चुनती है लेकिन जो राजनेता चुन के आता है वो तो वही है जो पिछली सरकार में था। हम ये सोचें कि क्या यह व्यक्ति अचानक एक भ्रष्टाचारी से आदर्शवादी बन जाएगा? क्या ऐसा हो सकता है? और सबसे बड़ी बात है कि पार्टी 'B' ने तो चुनाव में जाने से पहले ही जनता को धोखा दे दिया। अगर दूसरी पार्टियों के दलबदलुओं को चुनाव में उतार कर एक विकल्प देने की बात की जा रही है, तब तो ये पहले दिन से ही ढोंग कहलाएगा और इसका पर्दा फ़ाश तो तभी हो जाता है जब टिकिटों का बंटवारा होता है।
जनता को ये पता तो होता है कि चुनाव भी आईपीएल की तरह हो चुका है। पिछली बार जो इस टीम से खेल ा था अबकी बारी इस वाली से खेलेगा। अब जब जनता की जानकारी में सारी बातें हैं तो वह तो पुराने अनुभवों के आधार पर candidates को वोट देगी। इसलिए ठीक इसी समय उम्मीदवारों से और उनके ट्रैक-रिकॉर्ड से ध्यान हटाना बहुत ज़रूरी हो जाता है। अगर ध्यान नहीं हटाया जाएगा तो पब्लिक तो हर उम्मीदवार के पिछले काम-काज को तौलेगी ही। इसमें सबसे पहले ज़रूरी हो जाता है जनता के सामने आदर्श पेश किया जाना। एक पार्टी विचारधारा के नाम पर हिन्दुत्व को परोसती है, दूसरी liberalism को। जबकि अभी तक जो धर्म-निरपेक्ष थे वही अब हिंदुत्ववादी खेमे में बैठे हैं। वोटों का ध्रुवीकरण ज़रूरी हो जाता है। जनता की स्टीरियो-टाइपिंग ज़रूरी हो जाती है। स्टार-प्रचारकों को न्यौते दिये जाते हैं। ये सब इसलिए कि जनता से ये मौका छीनना है कि वह अपने क्षेत्र के बारे में, चुनाव में उतरे सभी प्रत्याशियों के बारे में, उनके पिछले रेकॉर्ड के बारे में, किसी के ऊपर कोई क्रिमिनल केस है तो उसके बारे में कुछ भी मूल्यांकन करे। इस कड़ी में सबसे पहले कोई विवाद पैदा किया जाता है। हम सभी ने देखा था कि किस तरह पिछले कुछ चुनावों के समय भी लव जिहाद, घर वापसी, intolerance जैसे मुद्दे यकायक चुनावी discourse के बीच पटक दिये गए थे। इस बार रामजस कॉलेज में मार-पिटाई के बाद फिर एक नया मुद्दा आया - कौन nationalist है कौन anti-national? हालांकि ये मुद्दा पहले भी उठा है लेकिन चुनाव के समय ही इसे परवान चढ़ाया गया। पूरा देश इस debate में फंस गया। जब बाहर से कोई स्टार-प्रचारक जाता है तो उसे ना तो लोकल मुद्दों की detail में जानकारी ही होती है और ना ही वो कोई ठोस या objectivity भरा कोई वादा ही कर सकता है। उसके भाषणों में एक ही बात होती है 'विकास' की बातें। विकास अपने आप में बहुत vague शब्द है। आवारा पूंजी और कॉर्पोरेटीकरण का ही दूसरा नाम विकास रख छोड़ा है। कोई मॉडेल किसी के पास नहीं है। दो विकल्प हैं - एक नागनाथ है और दूसरा सांपनाथ। पूरे चुनाव के दौरान टीवी चैनल और बाकी सोशल मीडिया इस विवाद में कूद-कूद के भाग लेतें है। एक पार्टी nationalist बन जाती है, बाकी सब एंटी-नेशनल। चुनाव कई चरणों में होता है और चरण-दर-चरण ये debate भी बहुत तीखा होता जाता है। चुनाव खत्म होते ही देशभक्ति के बादल छंट जाते हैं और कान फोडू debates की जगह ले लेते हैं Exit Polls। शेयर बाज़ार Exit Polls के दम पर एक दिन और हरे निशान में चढ़ता है।
अब भाजपा को ये समझ आ गया है कि राम मंदिर में अब वो आकर्षण नहीं रहा। अब ज़रूरत है एक नए और पहले से बड़े ध्रुवीकरण के जुमले की। जो लोग कट्टर हिन्दू नहीं हैं वो भी nationalist तो बन ही सकते हैं क्योंकि सतही तौर पर nationalism काफी कुछ patriotism या देशभक्ति की तरह लगता है। आम दुनियादारी वाले आदमी के लिए ये बहुत पेचीदा बातें हैं कि भारत माता की जय न बोलना किस तरह से फ्रीडम ऑफ स्पीच से कनैक्टेड है और राष्ट्रगान के लिए खड़ा ना होना किस तरह ज़रूरी नहीं है। जो बातें दरअसल अकैडमिक मुद्दों के discussions की हैं उन्हें राजनीतिज्ञ बहुत चालाकी से प्राइमटाइम debate में तब्दील कर देते हैं। आम आदमी जो न तो इन मुद्दों की संवैधानिक पेचीदगियों से उतना परिचित होता है न ही उसे इतनी फुर्सत है। उसे बस एक स्टैंड लेना होता है। वो देखता है उन liberals को न्यूज़-स्टूडिओ में गला फाड़ते हुए जिन्होनें उसे बेरोजगारी और भुखमरी की कगार पर खड़ा कर दिया था और जहां उसे वे लोग ये कहते हुए नज़र आते हैं कि भारत माता की जय बोलना ज़रूरी नहीं है, राष्ट्रगान में खड़े होना ज़रूरी नहीं है। वो फैसला कर लेता है और इस तरह वो न केवल एक liberal पार्टी को ही छोडता, बल्कि liberalism को भी छोड़ देता है। तमाम नतीजों के सारे भोंपू जब कल बजे, तो यही लगा कि हर शख्स liberals से खार खाये बैठा है।
liberals से ये नफरत आज एक ग्लोबल पैटर्न है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। ग्लोबलाइज़ेशन का दौर है। पूंजी एक देश से दूसरे देश में बह रही है और साथ में बहुत से sentiments भी बहा के ले जा रही है। इसी आवारा पूंजी के भरोसे टिके स्टॉक मार्केट, वायदा कारोबार, रीयल एस्टेट और War Against Terror के बुलबुले में क़ैद है सारी अर्थव्यवस्थाएँ। और ये बुलबुला ऐसा है जो अक्सर ही फटता भी रहता है। इसका फटना ही हर बार एक असंतोष, एक एंटी-इंकमबेनसी खड़ी कर देता है। और तब यही आवारा पूंजी एक दलबदलू की तरह दूसरे खेमे में शिफ्ट हो जाती है और एक rebellion की बोली बोलने बोलती है। बस, यहीं से पैदा होता है फासीवाद। फासीवाद कोई अचानक से नहीं आ जाता। 'विकल्प' की लंबी और थकाऊ तड़प या तो एक क्रान्ति को जन्म देती है या एक फासीवादी को जन्म देती है। इतिहास की जानकारी रखने वाले मेरी इस बात से तो सहमत होंगे ही कि पब्लिक ने liberals को भरपूर मौका दिया है। काफी समय उन्होनें राज किया। लेकिन उन्होनें liberalism की चाशनी में लपेट कर गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार ही दिये हैं। ये तो बस चाशनी के बदलने का दौर है। लेकिन चाशनी बदल भी जाये तो भी चीनी तो वही रहनी है।