पाकिस्तान क्या है? क्या सिर्फ एक देश जिसने भारत से अलग हो कर अपना वजूद तलाशने की कोशिश की? या फिर पाकिस्तान एक सोच है? एक सोच जिसमें कि एक ही देश के लोग अपने बीच एक सेकटेरियन मानसिकता को पहले उपजाते हैं, फिर उसको सींचते हैं और फिर हाथों में हंसिये और कुदाल ले कर उसी फसल को काटते हैं। एक ऐसी सभ्यता जो 5000 सालों से तमाम ज्वार भाटों के बीच अक्षुण्ण बनी रही, तो ऐसा क्या हो गया जो रातोंरात अचानक एक नए देश की ज़रूरत आन पड़ी?
क्या इतिहास सिर्फ वही होता है जो किताबों और पन्नों पर कलम से रिसती स्याही से कुरेदा गया हो? टाइपराइटर पर हिज्जों के हथौड़े जब तलक वक़्त के कागज को लहू लुहान ना कर दें, क्या इतिहास पैदा नहीं हो सकता? क्या साम्राज्यवादी नस्लों ने जिस प्रपगैंडा को लिपिबद्ध किया है सिर्फ वही इतिहास है? दरअसल सच्चा इतिहास तो एक निरपेक्ष दृष्टा होता है। ब्रिटिश ने जो हिंदुस्तान का इतिहास लिखा, औरंगजेब के समय जो शिबली नोमानी की कलम से बहा वो एक प्रपगैंडा है ठीक वैसे ही जैसे वर्णाश्रम को कर्म प्रधान बताने की तमाम कोशिशें ब्राह्मणवाद ने अपनी कलम से उकेरी हैं। सच्चा इतिहास वह है जो उन शोषितों और दलितों की आत्माओं पर टंकित है जिन्होनें उस इतिहास को जिया है। और अगर ऐसा नहीं है तो कोई बताए कि मंटो का टोबाटेक सिंह उन इतिहास की किताबों में कहाँ है? कहाँ है गंगौली के फुन्नन मिया? सच्चा इतिहास तो लोगों के मन मस्तिष्क और हृदय में घटित होता है और इसका एक ही साक्षी है - खुद समय।
कल्पना कीजिये कि यदि समय की अदालत लगे और उसमें उन सभी पक्षों को हाजिर होना पड़े जो अपनी शक्लों पर काला पोत कर इन तमाम किताबों पर चिपकी मात्राओं की ओट में छुपे हुए थे। जब औरंगजेब से दारा शिकोह का हिसाब मांगा जाये, हिन्दू राजाओं से दारा से गद्दारी करने का हिसाब मांगा जाये, अंग्रेजों से विभाजन का हिसाब मांगा जाये और अमेरिका से हिरोशिमा-नागासाकी का हिसाब मांगा जाये। कमलेश्वर की 'कितने पाकिस्तान' एक ऐसी ही अदालत का लेखा जोखा है। एक अनूठी कल्पना जिसमें मानव इतिहास के 5000 सालों को साढ़े तीन सौ पन्नों में उतारा गया है। कमलेश्वर की इस अदालत का दरवाजा खटखटाटी हैं वे लाशें जो कभी आक्रांताओं और विजेताओं की शौर्य गाथाओं के बोझ तले कुचली जाती थीं और आज के समय में वे न्यूज़ चैनलों पर दौड़ती न्यूज़ पट्टी को अपने सिरों पर ढोते हुए तेज़ी से गुज़र जाती है। कोलैटरल डैमेज के आकड़ों और पाई चार्टों में अपने प्रतिनिधित्व के लिए एक एक पिक्सल को मोहताज होकर स्पोन्सर्स का मुंह ताकती लाशें झकझोरते हुए कहती हैं कि बस अब और पाकिस्तान नहीं।
बिपन चन्द्र ने अपनी किताब History of Modern India में लिखा था कि किसी देश की आम जनता की आवश्यकताएँ अपने आप में ही सेकुलर होती हैं। सड़कें बनेंगी तो सबके लिए बनेंगी, अस्पताल बनेंगे तो सबको अच्छी स्वास्थ सेवाएँ मिलेंगी, शिक्षा, रोजगार, छत, बिजली, साफ पानी, सभी के लिए यही प्राथमिकताएँ हैं। गाँव-गाँव तक अगर बिजली पहुंचेगी तो वो हिन्दू के घर का भी बल्ब जलाएगी और मुसलमान के घर का भी। आम जनता की जरूरतें अपने आप में धर्मनिरपेक्ष होती हैं। लेकिन जब जनता को ये यकीन दिलाया जाये कि किस तरह उनकी ज़रूरतें तभी पूरी हो पाएंगी जब वे अलग हो जाएंगे। जब जनता को यकीन दिलाया जाता है कि बाबर ने हिंदुओं पर आक्रमण किया था, ना कि दिल्ली के मुसलमान शासक इब्राहिम लोदी पर। बाबर ने मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाई और एक लाख चौहत्तर हज़ार हिंदुओं को अयोध्या में मारा गया था जबकि पंद्रहवीं सदी में अयोध्या की आबादी ही ज़्यादा से ज़्यादा चार हज़ार रही होगी। राम तो लोकप्रिय ही हुए तुलसीदास की रामचरित मानस के बाद। उस समय तो वैष्णवों के सबसे बड़े आराध्य कृष्ण कन्हैया ही थे। तुलसीदास ने रामचरित मानस लिखी बाबर के मरने के बाद। बाबर की राजधानी आगरा से मथुरा बाजू में था जो लोकप्रिय कृष्ण का स्थान था, वो बाजू वाला ज़्यादा लोकप्रिय स्थान तोड़ने के बजाए अयोध्या जा कर मंदिर क्यों तोड़ेगा? अंग्रेजों के जरिये जिस बाबरनामा को इतिहास का हिस्सा बनाया उसके वे पन्नें फटे हुए थे जिसमें उस यात्रा का ज़िक्र था जब वो फैजाबाद से आगरा गया। उन फटे हुए पन्नों के बारे में ही अफवाह उड़ाई गई कि उनमें ही बाबरी मस्जिद का जिक्र था। उसकी बेटी गुलबदन के लिखे हुमायूँनामा में उन फटे पन्नों का ज़िक्र कुछ यूं आता है कि बाबर की बीवी मेहम बेगम और बेटी गुलबदन पहली बार काबुल से आगरा आ रहीं थीं तो बाबर फैजाबाद से ही वापस आगरा उन्हें मिलने को आया गया था। वो कभी अयोध्या गया ही नहीं। बाबर की कब्र के ऊपर का शिलालेख भी अंग्रेज़ी इतिहासकारों के पढ़ने के बाद मिटा दिया गया। खुद बाबर की कब्र को आगरा से खोद कर काबुल ले जाया गया। काबुल में उसका क्या था? काबुल से तो वो हार कर एक नए वतन की तलाश करने हिंदुस्तान आया था। दरअसल ये सब हुआ 1857 की क्रांति के बाद जिसमें हिन्दू-मुसलमान साथ-साथ अंग्रेजों का विरोध कर रहे थे। इस तरह एक बेलगाम साम्राज्यवादी ताकत ने अपने मंसूबे पूरे करने के लिए पाकिस्तान तो तभी बना दिया था। वर्तमान समय में अमेरिकी इलैक्शन में भी डोनाल्ड ट्रम्प के द्वारा अमेरिका में भी एक पाकिस्तान कुछ ऐसे ही बनाया जा रहा है। खुद पाकिस्तान में भी बांग्लादेश एक और पाकिस्तान बन के उभरा। हिंदुस्तान में तो दलितों को ब्रह्मा के पैर में बने किसी गर्भाशय से पैदा हुआ बता कर एक पाकिस्तान बना दिया गया था। रसूल के बाद मौलवियों, उलेमाओं, काजियों और खलीफाओं ने इंसान और उस निराकार ब्रम्ह के बीच जगह-जगह दाढ़ियों, टोपियों, हिजाबों और बुर्कों के खेत लगा दिये जिनमें लगी अफीम की फसल ने आने वाली नस्लों में शियाओं का एक पाकिस्तान और एक सुन्नियों का पाकिस्तान बना डाला। खुद हिंदुओं ने गीता के कर्मवाद को छोड़ कर निरंकुश ब्राह्मणवादी वर्णवाद को खाद पानी देकर अपना-अपना पाकिस्तान बना लिया था।
5000 सालों में जो भी बड़ी घटनाएँ हुईं जिसने इस धरती के इतिहास जो मोड़ा वो कमलेश्वर ने बहुत रोचक ढंग से किताब में उतारा है। शुद्धतावादी इसे उपन्यास न मानकर अनुपन्यास कहते हैं, लेकिन कमलेश्वर का कहना है कि मैंने इसे उपन्यास समझ कर लिखा और लोगों ने इसे उपन्यास ही समझ कर पढ़ा।
कमलेश्वर ने नई कहानी विधा को समृद्ध बनाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है। मैंने उन्हें कॉलेज के समय दैनिक भास्कर के संपादकीय पन्ने पर पढ़ना शुरू किया था। मुझे याद है कि अखबार में सबसे पहले यही चेक करता था कि कमलेश्वर का लेख आया है कि नहीं। उसके बाद हिन्दी सिनेमा में उनके योगदान के बारें में एक किताब 'कथाकार कमलेश्वर और हिन्दी सिनेमा' पढ़ी। उनके लिखे उपन्यास 'काली आंधी' पर गुलज़ार ने 'आंधी' और 'आगामी अतीत' पर 'मौसम' फिल्में बनाईं। उसी किताब में मैंने पहली बार 'कितने पाकिस्तान' के बारे में पढ़ा था। सन 2000 में निकला यह उपन्यास इतना बिका कि तीन महीने में ही दूसरा संस्कारण निकाला गया। इसकी पाइरेटेड फोटोकॉपियाँ भी खूब ब्लैक में बिकीं।
इतिहास पर ज़बरदस्त पकड़, भाषा में ज़बरदस्त ईंटेंसिटी और लिखावट में बेजोड़ प्रवाह। समय के इतने लंबे दौर में बार-बार आगे-पीछे आना-जाना बहुत अच्छा अनुभव है। ऐसा ही एक प्रयोग अश्विन सांघी ने रोजाबाल वंशावली में भी किया जिसमें वो कहते हैं कि प्राचीन समय की एशियाई सभ्यता हमारी समझ से कहीं ज़्यादा समृद्ध थीं। ये सिर्फ इत्तेफाक नहीं है कि यहूदियों के अब्राहम (Abraham) का A अगर आगे से हटा कर पीछे लगा दें तो ये ब्रम्हा (Brahama) हो जाता है। अमीश की Shiva Trilogy में भी ज़िक्र है कि महादेव शिव तो तिब्बत के थे और उनके पहले जो महादेव हुए थे 'रुद्र' वो पश्चिम एशिया के थे। उनके प्राचीन ग्रन्थों को देखें तो अग्नि देवता हैं 'अहुरमज़दा'। सभी अच्छी शक्तियों को कहा जाता था 'अहुर' जो कि 'असुर' से निकला शब्द है और उनके ग्रन्थों में जो बुरी शक्तियाँ हैं उन्हें कहा जाता है 'दैव'। ये ग्रंथ इतिहास का हिस्सा हैं। ये संस्कृतियाँ और सभ्यताएँ जो बनी, फली फूलीं और मिटीं या साम्राज्यवादियों ने जिन्हें मिटाया और जगह-जगह पाकिस्तान बनाने का एक जो ये सिलसिला शुरू किया अब बस। बहुत पाकिस्तान देख लिए दुनिया ने! अब और नहीं! और नहीं! और नहीं!