आप और हम सब हर युग में रहेंगे
भारतवर्ष का भावी इतिहास तय करने वाले निर्णायक युद्ध के पूर्व ही अर्जुन को चिंता से ग्रस्त देखकर भगवान श्री कृष्ण ने समझाया कि मनुष्य का स्वभाव चिंता करने वाला नहीं होना चाहिए।आगे इसे स्पष्ट करते हुए श्री कृष्ण वीर अर्जुन से कहते हैं कि किन लोगों के लिए चिंता करना और किन लोगों को खो देने का भय?
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।2/12।।
इसका अर्थ है,हे अर्जुन!(तू किनके लिए शोक करता है?)वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तुम नहीं थे या ये राजागण नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे आने वाले समय में हम सब नहीं रहेंगे।
श्री कृष्ण :- हर युग में मैं था,तुम भी थे,
हर काल में नृपगण भी थे।
पार्थ!आगे भी हम-तुम होंगे,
भावी कल में भी ये सब होंगे।
समय आगे बढ़ता जाता है और मनुष्य अनेक बातों को लेकर अफसोस करता है कि काश वह यह कार्य कर पाता। अगर जीवन के अब तक के सफर में उसकी इच्छाएं पूरी नहीं हुई और वह अपने द्वारा निर्धारित किए गए लक्ष्यों को प्राप् असंतुष्ट रहता है।अगर संपूर्ण प्रयास के बाद भी लक्ष्य नहीं मिला तो हताशा और निराशा की स्थिति भी निर्मित होती है। वास्तव में मनुष्य अनेक लक्ष्यों को निर्धारित करने के बाद इस मानव जीवन में सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहता है। यह भूल जाता है कि भौतिक संसाधन एक सीमा तक ही कारगर हैं और उसके जीवन पथ पर सहायक हैं।इसके आगे उसे अपने भीतर झांकना होगा। मन की गहराइयों की यात्रा करनी ही होगी। अपने सर्वश्रेष्ठ संभव प्रयास के बाद भी अगर कुछ हासिल नहीं हो पाया तो कोई बात नहीं।
यह मानव देह दुर्लभ है। यहां संसार में रहते हुए कर्म करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है तो इसे भी अपने आराध्य की इच्छा मानकर मनुष्य को मन लगाकर करना चाहिए।मनुष्य अपने मित्रों,संबंधियों,परिजनों के वियोग के अवसर पर व्यथित होता ही है।यह बहुत स्वाभाविक भी है।अगर आत्मीयता इस सीमा तक बढ़ जाए कि 'तेरे बिन रहना मुश्किल' वाली स्थिति हो तो आगे का रास्ता कैसे तय होगा? जो आज हमारे साथ हैं, संभव है उनका साथ आगे नहीं रहेगा,लेकिन अनंत की यात्रा में हर प्राणी अग्रसर है।पृथ्वी पर बिताए इस जन्म के कालखंड से पहले भी मनुष्य के जन्म हुए हैं। वर्तमान काल खंड के बाद मोक्ष के पूर्व भी अनेक जन्म संभव होते हैं।इस जीवन के आगे मनुष्य की वही आत्मा,कर्म प्रकारों के अनुसार एक नया देह धारण करती है।अगर इस बात को स्वीकारा जाए तो किसी पश्चाताप या अफसोस की स्थिति नहीं रहेगी।
सृष्टि के आरंभ से यह अनंत की यात्रा जारी है। उस परम सत्ता के श्री चरणों में स्थान मिलने तक।ऐसे में अफसोस कैसा? अवसरों की कमी नहीं है। कोई किसी से कहां अलग होता है,वृत्ताकार कहीं जाने वाली इस दुनिया में लोग मिलते और अलग होते रहते हैं। क्या आगे ब्रह्मांड भी वृत्ताकार नहीं होगा?दूसरी देह को प्राप्त होने के बाद रिले रेस के धावक की तरह मनुष्य को पूर्व जन्म की आत्मा और सूक्ष्म देह के संचित संस्कारों के साथ फिर अपनी ही आत्म- छड़ी लेकर एक नई दौड़ पर निकलना होता है। भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को यही समझाना चाहते हैं कि जिन लोगों के लिए वह व्यथित हो रहा है,वे सब अपने अस्तित्व में आगे भी रहेंगे।अतः मनुष्य को इस जन्म में कुछ खो देने और कुछ पा लेने की चिंता,संयोग या वियोग की परवाह किए बिना अपने कर्म पथ पर आनंदपूर्वक आगे बढ़ते जाना है।
डॉ. योगेंद्र