14.सुंदरता के बदले आंतरिक प्रसन्नता और सक्रियता है जरूरी
इस लेखमाला में मैंने गीता के श्लोकों व उनके अर्थों को केवल एक प्रेरणा के रूप में लिया है।यह न तो उनकी व्याख्या है न विवेचना क्योंकि मुझमें मेरे आराध्य भगवान कृष्ण की वाणी पर टीका की सामर्थ्य बिल्कुल नहीं है।मैं बस उन्हें आज के संदर्भों से जोड़ने व स्वयं अपने उपयोग के लिए जीवन सूत्र ढूंढने व उनसे सीखने का एक मौलिक प्रयत्न मात्र कर रहा हूं।वही आप सुधि पाठकों के समक्ष भी प्रस्तुत कर रहा हूं।आज प्रस्तुत है 14 वां जीवन सूत्र:
सुंदरता के बदले आंतरिक प्रसन्नता और सक्रियता है जरूरी
(भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन में चर्चा जारी है।)
जो पुरुष इस आत्मा को अविनाशी, नित्य और नष्ट न होने वाला अव्ययस्वरूप जानता है,वह कैसे किसी को मरवाएगा और कैसे किसी को मारेगा?
अगर अर्जुन यह सोच रहे हैं कि वे किसी को मार रहे हैं या किसी के निर्देश पर किसी की हत्या कर रहे हैं तो उनका यह सोचना गलत है।इस धर्म युद्ध और न्याय युद्ध में यही अधर्म हो जाता ,अगर सत्य के पक्ष में भगवान श्री कृष्ण के समझाने पर भी अर्जुन दोबारा हथियार नहीं उठाते।
भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझाने के लिए आगे कहते हैं: -
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।(2/22)।
इसका अर्थ है:-
जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।।
वास्तव में मनुष्य के जन्म से लेकर अवसान तक सभी भौतिक क्रियाएं देह के माध्यम से ही संपन्न होती हैं।शरीर के स्वरूप में भी परिवर्तन होते रहता है। जन्म लेने के साथ ही मनुष्य की जीवन यात्रा शुरू हो जाती है।शैशवकाल,बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्थायुक्त जीवन के बाद मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति से पूर्व नए-नए देहों की प्राप्ति होती रहती है। न जीवन की कोई एक अवस्था स्थिर है और न स्थायी है। वास्तव में मृत्यु जीवन का अंत नहीं है बल्कि केवल शरीर का विसर्जन है और मनुष्य इस पड़ाव के बाद भी अपनी यात्रा आगे जारी रखता है।
स्वदेश प्रेम कविता में श्री रामनरेश त्रिपाठी लिखते हैं:-
निर्भय स्वागत करो मृत्यु का ,
मृत्यु एक है विश्राम-स्थल ।
जीव जहाँ से फिर चलता है ,
धारण कर नव जीवन-संबल ॥
मृत्यु एक सरिता है, जिसमें ,
श्रम से कातर जीव नहाकर ।
फिर नूतन : धारण करता है,
काया-रूपी वस्त्र बहाकर ॥
प्रायः मनुष्य इच्छाओं, कामनाओं के पीछे भागता है और जीवन भर की भागदौड़ के बाद भी अंत समय में भी अगर वह ईश्वर या उस परम सत्ता के प्रति समर्पित न हो और अगर उसके मन में संतुष्टि का भाव न रहे तो फिर यह जीवन आनंद के बदले कष्ट पूर्ण बन जाता है और इसका प्रभाव उसकी भावी यात्रा पर भी पड़ता है।
प्रख्यात अंग्रेजी कवि विलियम वर्ड्सवर्थ(ओड, इंटिमेशन ऑफ इम्मार्टलिटी में)ने क्या खूब लिखा है:-
हमारा जन्म तो निद्रा और विस्मरण मात्र है। हमारा जीवन- नक्षत्र आत्मा जो हमारे साथ उदित होता है वह तो कहीं अन्यत्र अस्त हुआ था और दूर से आता है।
योगेंद्र