जीवन सूत्र 11: अंतरात्मा सच का अनुगामी होता है
भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन में चर्चा जारी है।
यह संसार नाशवान है और अगर कोई चीज नश्वर है तो वह है परमात्मा तत्व जो सभी मनुष्यों के शरीर में स्थित है।
(श्लोक 18 से आगे की चर्चा)
आत्म तत्व को और स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं:-
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।(2/19)।
इसका अर्थ है:-जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है और जो इसको मरा समझता है वे दोनों ही नहीं जानते हैं, क्योंकि यह आत्मा न किसी को मारती है और न मारी जाती है।
वास्तव में आत्मा मनुष्य द्वारा संपन्न किए जाने वाले कार्यों का कर्ता नहीं है। वह स्वयं कोई कार्य नहीं करती है।मन जो विषयों की ओर अभिमुख होता है, यहां-वहां भटकता रहता है,उसकी हमारे अस्तित्व में प्रभावी भूमिका होती है और आत्मा गौण होकर रह जाती है।हम मन को विचारों के उन बादलों की तरह समझें जो सूर्य के प्रकाश को ढक लेते हैं।अगर हम अपनी आत्मा को न पहचानें तो यह आत्मा धूल में पड़े हुए हीरे की तरह ही अप्रकाशित रह जाती है।मन विषय सुख की ओर दौड़ता है, बुद्धि मन की ही एक विशेष अवस्था है, जिसमें हम मस्तिष्क की सहायता से भले-बुरे का निश्चय करते हैं।वहीं आत्मा अपने स्वरूप में परमात्मा की ओर अभिमुख है क्योंकि वह परमात्मा का ही अंश है।आत्मा एक ऊर्जा है।शक्ति है।उसका सदुपयोग हमारे कार्यों पर निर्भर है।प्रायःआत्मशक्ति भी सुप्त अवस्था में होती है।यह मन पर आत्मा का ही प्रभाव है कि मनुष्य अनेक कार्यों को करने के बाद पश्चाताप का अनुभव करता है और अनेक अवसरों पर अंतरात्मा की आवाज कहकर अन्याय का विरोध भी करता है।मन हमें बंधनों में बांधता है और आत्मा की जाग्रति हमें बंधनों से मुक्त करती है। गीता में भी कहा गया है- मन से परे बुद्धि है और बुद्धि से परे आत्मा है।
मन तार्किक है।यह चीजों को स्वीकार करता है और अस्वीकार करता है,जबकि आत्मा के स्तर पर मनुष्य के ऊपर उठने के बाद स्वीकार या अस्वीकार का प्रश्न समाप्त हो जाता है।चित्तकोष या स्मृति कोष में संचित अनुभूतियां या ज्ञानेंद्रियों के एकत्र संज्ञान के आधार पर ही चित्त, बुद्धि को किसी निर्णय पर पहुंचने में सहायता प्रदान करता है। हमारा एक स्थूल शरीर है जो दिखाई देता है तो एक सूक्ष्म शरीर भी है जो प्रायः हमारी नींद जैसी सुप्तावस्था में भी सक्रिय रहता है।देह से प्राण निकलने के बाद स्थूल शरीर तो वहीं रह जाता है लेकिन सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ बाहर निकल जाती है।सूक्ष्म शरीर कामनाओं,वासनाओं,अनुभव,ज्ञान आदि के संचित रूप में सूक्ष्म शरीर;आत्मा के साथ आगे की यात्रा पर निकल पड़ता है। मोक्ष को प्राप्त आत्माओं के साथ सूक्ष्म शरीर और उसके विभिन्न उपादानों की इस तरह की यात्रा जारी नहीं रहती और ऐसी आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है।
आत्मा कोई कामना या इच्छा भी नहीं रखती है,जिससे यह कहा जाए कि यह कार्य मनुष्य आत्मा के निर्देश पर कर रहा है या आत्मा के लिए कर रहा है।कुल मिलाकर आत्मा मनुष्य के किसी भी कार्य का कर्ता नहीं है।न आत्मा स्वयं मरती है,न किसी को मारती है।यही कारण है कि युद्ध भूमि में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि उन्हें इस दृष्टिकोण(धर्म युद्ध में किसी को मारने में कर्ता की भूमिका) को लेकर युद्ध करने से नहीं बचना चाहिए।पांडवों और कौरवों के मध्य इस युद्ध का स्पष्ट रूप से सामना करना चाहिए।वास्तविक जीवन में भी कोई कड़ा निर्णय लेने के समय मनुष्य; अर्जुन की ही तरह दुविधा की स्थितियों से गुजरता है। जहां भगवान कृष्ण के उपदेश प्रासंगिक हो उठते हैं।
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय