जीवन सूत्र 17. इस जन्म की पूर्णता के बाद एक और नई यात्रा,कुछ भी
स्थायी न मानें इस जग में
भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन की चर्चा जारी है।
आत्मा की शक्तियां दिव्य हैं और यह हमारी देह में साक्षात ईश्वरत्व
का निवास है।
आत्मा की अन्य विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए भगवान श्री कृष्ण अर्जुन
से आगे कहते हैं: -
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।(2/27)।
इसका अर्थ है:-
हे अर्जुन!जिस व्यक्ति ने जन्म लिया है,उसकी मृत्यु निश्चित है और
मरने वाले का(मोक्ष की प्राप्ति से पूर्व)जन्म निश्चित है;इसलिए जो अटल है,अनिवार्य
है,अपरिहार्य है,उसके विषय में तुमको शोक नहीं करना चाहिए।
कहा जाता है कि मृत्यु जीवन की अनिवार्यता है और इसके बाद पुनर्जन्म
होता है, तब तक; जब तक मनुष्य की आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती है।तथापि
अपने परिजनों की मृत्यु पर मनुष्य दुखी होता है और यह अत्यंत स्वाभाविक भी है।
आखिर मनुष्य को इस जन्म के अलावा अतीत और भावी जीवन की स्मृतियां
क्यों नहीं? इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं: -
कुछ भी स्थायी नहीं है इस जग में
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:-
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।(2/28)।
इसका अर्थ है:-हे अर्जुन ! सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और
मरनेके बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं, केवल बीचमें ही प्रकट है; फिर ऐसी स्थितिमें
क्या शोक करना है ?
भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम यह संदेश ग्रहण कर सकते हैं
कि दुनिया में मनुष्य का आना और रहना केवल एक समय अवधि के लिए है और वास्तव में मनुष्य
के पहले भी जन्म हो चुके होते हैं और बाद में भी जन्म होते हैं,तब तक जब तक आत्मा मोक्ष
प्राप्त न कर ले। इस तथ्य से अनभिज्ञ मनुष्य इस पृथ्वी पर स्वयं की उपस्थिति और अपने
जीवन को स्थायी मानकर चलता है।यही सोचकर अधिकांश मनुष्य अपने जीवन में स्वयं के लिए
अधिक से अधिक सुख सुविधाएं और ऐश्वर्य की वस्तुएं जुटाने की कोशिश करते रहते हैं।वहीं
सच यह है कि मनुष्य खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है। जीवन की नश्वरता के बारे
में संत कबीर ने क्या खूब लिखा है:-
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।।
जीवन परमसत्ता और सृष्टि द्वारा मनुष्य को दिया गया सबसे बड़ा उपहार
है।अतः जीवन जीना चाहिए और आनंदपूर्वक जीना चाहिए। यहां आनंद से तात्पर्य अपनी सोच
में प्रसन्नता और उत्साह से परिपूर्ण रहने से है। वास्तव में धन, संपदा और समृद्धि
ही सुख का पर्याय नहीं हैं। एक सीमा तक धन भी जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक है, लेकिन
सारे कार्यों की प्रेरणा और दिशा धन-केंद्रित कर देना कहीं से भी उचित नहीं है।वहीं
धनार्जन के लिए गलत तरीके अपनाना तो और भी अनुचित और अस्वीकार्य है।दुनिया में परम
सत्ता के सिवाय कुछ भी स्थायी नहीं है और चीजें सतत परिवर्तनशील हैं, इसीलिए न जीवन
में सुख स्थायी है न दुख, न लाभ, न हानि।ये सब तो जीवन में लहरों की तरह आते-जाते हैं।अतः
इन्हें समान भाव से लेने की कोशिश करना चाहिए और जीवन के सच्चे आनंद अर्थात अंतर्मन
की गहराइयों में डूब कर प्रसन्नता को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
डॉ.योगेंद्र कुमार पांडेय