"आप, आप तो पिछली बार भी आये थे।"
"जी मैंम।"
"हां,तभी तो। कुछ याद जैसा आ रहा है।"
थोड़ी देर चुप्पी...।
"सेवन वन ऐट टू....।" वह चालान फार्म में लिखे अकाउंट नंबर को पढ़ने लगी...
फिर रूककर बोली-" कालेज में हैं ?"
"जी।"
"हर बार आपको ही भेज देते हैं।"
"जी,मैं अल्मोड़ा ही रहता हूँ। इसीलिए मुझे ही दे देते हैं।"
"अच्छा।" वह मुस्कुरा दी।
उसका मुस्कुराना था कि हवा में जैसे खुश्बू बिखर गई। यूँ लगा जैसे मुस्कुराना दुनिया की सबसे खूबसूरत क्रिया है। उसके मुस्कुराने के रूप में जैसे मुझे संजीवनी मिल गई थी।
वह कौन थी। मुझे नहीं पता। उसका क्या नाम था, वह भी मुझे नहीं पता। मुझे तो बस इतना पता है कि वह तो बैंक के काउंटर नम्बर 5 में बैठती है। इस काउंटर में बैठकर वह बैंक ग्राहकों के कैश डेबिट, कैश क्रेडिट आदि कार्यों को सम्पन्न करती थी।
जब उसे मैंने पहली बार देखा, तब भी मैं चालान लगाने के लिए ही बैंक में आया था। उस दिन जब बैंक में पहुंचकर मैंने पीआन से टोकन मांगा, तो उसने टोकन के पीछे 5 लिखकर मुझे काउंटर नंबर 05 में भेज दिया। काउंटर 05 में ग्राहकों की लंबी कतार लगी थी। मैं भी पुरूषों वाली लाइन में पीछे से खड़ा हो गया। मेरी नजरों ने जब उसे देखा तो उन्हें लगा जैसे उन्होंने आज पहली बार खूबसूरती की परिभाषा पढ़ी हो।
एक जीता-जागता आसमान मेरे सामने था। नीले परिधान में उसका गौरवर्ण बादल के किसी टुकड़े-सा लग रहा था। न चाहते हुए भी नजरें उसके चेहरे पर जाकर टिक जा रहीं थीं। जब मेरा नंबर आया तो मैंने चालान फार्म उसकी ओर बढ़ा दिया। वह कम्प्यूटर पर साइट खोलकर डाटा भरने लगी। मैं कभी उसके चेहरे को देखता, कभी उसके हाथों को, तो कभी सामने रखे कम्प्यूटर पर निगाहें दौड़ाता।
एकाएक वह बोली- "लाइए पैसे दीजिए...।"
मैंने एक हजार दो सौ अट्ठाईस रूपये उसकी ओर बढ़ा दिये।
वह सिक्कों को गिनती हुई बोली- "ये आपने सही किया। खुले हों तो परेशानी नहीं होती है और काम भी जल्दी होता है।"
"जी।" मैं बस इतना ही कह पाया।
उसके बाद उसने तीनों चालान फार्मों में ठक-ठक स्टेंप ठोकी, लाल पेन से एक नंबर भरा और एक फार्म मेरी ओर बढ़ा दिया। मैंने 'थैंक्यू' कहा और एक नजर उसकी ओर दौड़ाई और चला आया। यही थी मेरी उससे पहली मुलाकात।
पता नहीं इस मुलाकात में ऐसा क्या था, जो मुझे बार-बार न चाहते हुए भी बैंक में जाने के लिए प्रेरित करता था। वैसे तो काम में व्यस्तता के कारण बार-बार बैंक जाना संभव नहीं था, लेकिन फिर भी हर महीने कालेज के काम हेतु मुझे एक-न-एक दिन बैंक का राउंड लगाना ही पड़ता था।
अल्मोड़े की माल रोड में केमू स्टेशन के सामने अल्मोड़ा एस. बी.आई. बैंक की मुख्य शाखा स्थित है। हाँ, माल रोड ! वही माल रोड जो आप समझ रहे हैं। माल, बाल, पटाल में से एक। पटालें यानि पतली बिछी हुई पाथरें, जो अब अल्मोड़े में नहीं दीखती। बस माल रोड और बाल मिठाई ही यहाँ बचीं है। अल्मोड़े की बहुत सारी प्रसिद्ध जीचें इसी माल रोड पर आपको मिलेंगी। चाहे वह बाल मिठाई की सबसे पुरानी दुकान हो, शहर का सबसे बड़ा होटल हो या किताबों की दुकानें हों, पोस्ट आफिस हो या फिर आकाशवाणी हो, लेकिन मेरे लिए इन सारी चीजों में बैंक सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण था। इसलिए नहीं कि बैंक में मेरा अकाउंट था, बल्कि इसलिए कि बैंक में काउंटर नं० 5 था और उस काउंटर नं० 5 पर था वह खूबसूरत चेहरा, जिसे देखकर मेरे मन में हजारों सपने पलते थे। ठीक उसी तरह से जिस तरह से बगीचे में पलते हैं फूल। तरह-तरह के रंग-बिरंगे फूल। जीवन भले ही खूबसूरत न हो, लेकिन सपने बहुत खूबसूरत होते हैं।
उस दिन रिमझिम-रिमझिम बारिश की फुहारें पड़ रहीं थीं। आसमान में बादल यहाँ-से-वहाँ मंडरा रहे थे। मैं छतरी ओढ़े बैंक की तरफ बढ़ा जा रहा था। मन-ही-मन भगवान से प्रार्थना भी कर रहा था कि हे भगवान चपरासी की बुद्धि काम करती रहे और वह टोकन में नं० 5 लिखकर ही मुझे दे। और हुआ भी वैसा ही। ईश्वर ने मेरी सुन ली थी, लेकिन यह क्या !काउंटर नं० 5 पर तो कोई दूसरा चेहरा बैठा है। भीड़ और दिनों की अपेक्षा आज कम थी, लेकिन मैं पहला ऐसा ग्राहक होता हूँगा, जो लाइन में खड़े रहना पसंद करता है। हर कोई चाहता है कि जल्द उसका नंबर आये, लेकिन मैं चाहता था कि मेरा नंबर सबसे लास्ट में आये।
आज काउंटर 5 पर उसे न पाकर मेरा हृदय धक से रह गया। नजरें इधर-उधर दौड़ाई, लेकिन वह न दिखी। लाइन में जाकर खड़ा हो गया। सोचता रहा, आखिर कहाँ गई होगी ! अचानक उसी समय एक मीठी-सी आवाज कोनों को गुदगुदा गई- "सर, हो गया। आप देख लीजिए।" काउंटर पर बैठा वह व्यक्ति उठकर चला गया और वह अपनी जगह पर बैठ गई। उसके बैठते ही यूँ लगा जैसे सांसों को हवा मिल गई हो। मन परिंदा बन उड़ने लगा।
हमेशा की तरह वह फार्म में भरी अंकना को पढ़ती हुई कार्य करने लगी, लेकिन एक ही व्यक्ति का कार्य करने में दस से पंद्रह मिनट का समय लग जा रहा था। एक व्यक्ति ने पूछा ही लिया-"मैडम, इतना टाइम क्यों लग रहा है ?"
"सर्वर काफी स्लो है। आप लोगों की अच्छी किस्मत है कि चल जा रहा है। बारह बजे तक सर्वर इतना डाउन था कि काम ही नहीं हो रहा था।" उसने जवाब दिया।
"अच्छा।" व्यक्ति ने ऐसा कहकर चुप्पी साध ली।
कुछ देर बाद मुझसे आगे वाले व्यक्ति की बारी आई।
"अरे, आपने तो दो लाख भर दिये। इतने नहीं निकाल सकते। नोटबंदी के कारण परेशानियां आ रही हैं।" उसने डेबिट फार्म देखते हुए कहा।
"अच्छा, तो कितने निकाल सकते हैं ?" वह व्यक्ति बोला।
"हमको बीस हजार अधिकतम देने के निर्देश हुए हैं।"
"इतने से क्या होगा मैडम। दे दीजिए बेटी की शादी करनी है।"
"ओह मैं समझ सकती हूँ। आप सामने वाले काउंटर पर मैनेजर सर से बात कर लीजिए। हाँ, कहेंगे तो मैं कर दूंगी।" वह फार्म थमाती हुई बोली।
वह व्यक्ति चला गया। अब मेरी बारी थी।
"ओह, फिर आ गये आप। चालान ही होगा आपका ?" चालान फार्म हाथ में पकड़ने से पहले ही वह अनुमान लगा चुकी थी।
"जी, मैंम।" मैं इतना ही कह पाया।
"लाइये, पैसे भी दे दीजिए।"
"जी, मैंम।" मैंने एक हजार आठ सौ तीस रूपये उसकी ओर बढ़ा दिए।
"पांच सौ के तीन, सौ-सौ के तीन और तीन दस-दस के। कुल एक हजार आठ सौ तीस यानि पांच वापस करने हैं। अच्छा पांच मैं रख लूँ....।" वह मुस्कुराती हुई बोली।
"अरे मैडम, आप कहिए तो सही। पूरा पर्स आपके हवाले है...।" मैंने भी हाजिर जवाब बनते हुए कहा।
मेरा इतना कहना था कि वह खिलखिलाकर हंस दी। उसका खिलखिलाना खिलखिलाना नहीं था, बल्कि वह था मेरे हृदय का बल्लियों उछलना। मन की एक और मुराद जैसे पूरी हो गई हो। आखिर यही तो चाह रहा था मैं। वह मुस्कुराये-खिलखिलाए और मैं उसे अपलक देखता रहूँ।
वक्त बीतता गया, लेकिन मेरा बैंक के काउंटर नं. 5 पर जाना नहीं छूटा, आखिर छूटता भी कैसे क्योंकि उस काउंटर पर मौजूद था मेरा हृदय, जिसे मैं कुछ महीनों पहले वहाँ छोड़ आया था। यह हृदय भी बड़ी अजीब चीज है, गाहे-बेगाहे कहीं भी छूट जाता है। जैसे छूटना ही इसकी नियति हो। शायद विधाता ने इसे अपने पास रहने के लिए बनाया ही नहीं है। अगर सामने वाले ने उठाकर अपने पास रख लिया तो अच्छा, वरना धकेल दिया तो न इधर का रह पाता है, न उधर का। बीच में त्रिशंकु-सा लटकता रहता है, लेकिन इसके बावजूद हृदय की यह खूबी है कि वह गैरों के पास ही रहना पसंद करता है और मेरे हृदय ने पसंद किया काउंटर नं० 5 पर रहना।
वक्त पीछे छूटता गया, लेकिन मेरा बैंक जाना नहीं छूटा। नहीं छूटा काउंटर नं० 05 की लाइन में खड़े होना। बैंक के ग्राहकों को लाइन में खड़े होने में परेशानी होती थी। वे ऊब जाते थे, लेकिन मैं चाहता था कि लाइन और लंबी होती जाये। कभी-कभी तो मैं जान-बूझकर खुद से पीछे खड़े व्यक्ति को अपने आगे लगा लेता। लड़की को एहसास होने लगा था कि शायद मेरे मन में उसके नाम का गुलमोहर महक रहा है। वह कभी-कभी बीच में मेरी ओर देखकर मुस्कुरा देती।
उस दिन क्या वार था ! हाँ, इतवार ही तो था। इतवार को हमेशा अल्मोड़ा के लाला बाजार व सब्जी मंडी में संडे बाजार लगती है। मैं भी सब्जी लेने बाजार गया था। शाम के चार बज रहे थे। अचानक बारिश होने लगी। खुले में सामान बेचने वाले दुकानदारों ने अपने सामान को ढकना शुरू कर दिया था। मेरे पास भी छाता नहीं थी। इसलिए मैंने सोचा क्यों ना पास के रेस्तराँ में बैठकर कुछ जलपान किया जाय। तब तक बारिश भी बंद हो जायेगी। यही सोचकर मैं कन्हैयालाल रेस्तरां में घुस गया। ज्योंही मैं टेबल नंबर 04 की चेयर पर बैठा तो मेरे सामने काउंटर नं0 5 मौजूद था। आंखों को सहसा विश्वास नहीं हुआ। मैंने गौर से उसकी ओर देखा। वह छुईमुई सी शरमा गई। पास बैठी उसकी सहेली ने आंखों-ही- आंखों में उससे कुछ कहा। उसने भी मुझे पहचान लिया था- "आइये सर आइए ! टिकिया लेंगे ?"
मैं मना नहीं कर पाया- "हाँ, मैं भी यही सोच रहा था। मुझे भी पसंद है।"
उसने एक और टिकिया का आर्डर दे दिया। वो चम्मच से काट-काटकर टिकिया का आस्वादन ले रही थी और मैं उसे देखे जा रहा था।
"स्वाति! जल्दी करो। ?" उसकी सहेली ने मेरी चेतना को भंग किया।
अच्छा तो स्वाति नाम है इनका। कितना खूबसूरत नाम है ! नाम के मुताबिक ऐसी खूबसूरत और गुणों वाली हैं कि हर कोई चातक बनना चाहेगा !
"सर टिकिया...!" उसने कहा
वेटर मेरे सामने टिकिया की प्लेट रख गया था, लेकिन मैं तो...मैं तो था ही कहाँ.....
"अच्छा तो स्वाति है आपका नाम !" मेरे मुंह से सहसा फूट पड़ा।
"हाँ और आपका ?"
"मैं, मैं चातक ! आप स्वाति हैं तो मैं चातक !" पता नहीं मेरे मुंह से स्वत: निकल गया। दोनों सहेलियाँ खिलखिलाने लगीं।
"बैंक वालों से झूठ ! पूरी हिस्ट्री बता देंगे आपकी !"
"अच्छा!"
"हाँ और क्या ! अच्छा चंदन सर, अभी चलते हैं। बारिश भी थम गई है। बाय।" ऐसा कहकर उसने अपनी सहेली के साथ काउंटर पर जाकर पैसे दिए और चली गई।
उसके दरवाजे से बाहर निकलते ही मैं आधी टिकिया वहीं पर छोड़ उसके पीछे-पीछे चला आया। मैंने देखा कि वह नंदादेवी मंदिर के पास वाली सीढ़ियों से चली जा रही है।
ओह कितना खूबसूरत दिन था आज का। काश! ऐसा ही कोई और दिन आता मेरे जीवन में। मैंने सोचा अगली बार जब मिलेगी तो जरूर दिल की बात कह दूंगा। और फिर वही काउंटर नं 05 मेरे मष्तिक में घूमने लगा।
इस खूबसूरत मुलाकात के एक हफ्ते बाद मुझे फिर बैंक जाने का मौका मिला। आज और दिनों से कुछ अधिक ही उतावला था मैं। होता भी क्यों नहीं! रेस्तरां वाली मुलाकात ने मेरे सपनों में पंख लगा दिए थे। मैं अब और अधिक लंबी उड़ान भरना चाहता था। एक ऐसी उड़ान जिसका अंत तो पता नहीं था, लेकिन जिसकी शुरुआत हुई थी, काउंटर नं०5 से।
उस दिन जब मैं बैंक गया तो वह काउंटर नं० 05 पर नहीं थी। उसके स्थान पर कोई नवयुवक बैठा था। यह सोचकर कि शायद वह कहीं दूसरे काउंटर पर कार्य कर रही होगी। मैं बैंक के सभी काउंटरों के चक्कर काटने लगा, लेकिन वह कहीं नहीं दिखी। अंततः मैं बैंक के मैनेजर से पूछ ही बैठा- "सर काउंटर 05 की स्वाति मैडम आज नहीं आई हैं ?"
मैनेजर ने जवाब दिया- "नहीं बेटा, उनका तो ट्रांसफर हो गया। वो चली गईं।"
मेरे पांव अंगद के पावों की तरह वहीं पर जम गये। चातक को लगा कि अब उसे जल के लिए हमेशा व्रत रखना पड़ेगा। उसे आजीवन प्यासा ही रहना पड़ेगा। स्वाति नक्षत्र अब उसके जीवन में कभी नहीं आयेगा।
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