बरसों से सहेजा ख्वाब,
सूखे पत्ते-सा उड़ जायेगा।
सोचा नहीं था,
इक आंधी के झौंके-से,
दो हंसों का जोड़ा बिछुड़ जायेगा...!
आह ! इंदु.. तुम भी ना ! ऐसे, ऐसे कौन बिछुड़ता है अपनों से ! जैसे तुम बिछुड़े.. अब.. अब.. तुम ही बताओ मैं कैसे जिऊँ ? कैसे काटूं अपने दिन ? कैसे ? दिन तो किसी तरह घर के काम-काजों में खुद को भुलाकर गुजार देती हूँ, लेकिन रातें ! तुम ही बताओ कैसे गुजारूं ? पता है मेरी आँखों से नींद उड़ गई है। मेरे हृदय से चैन खो गया है ! पता है मेरी नींद तो तुम थे ! मेरा चैन तो तुम थे ! किसी तरह मन को समझाती हूँ, लेकिन ये मन भी कुछ समझता ही नहीं ! निरा नादान है ! तुम्हारी ही यादों में उलझा हुआ रहता है।
मैं कुछ नहीं कर पाती। बस टीवी खोलकर बैठ जाती हूँ। और देखती हूँ कि टीवी में भी तुम ही मुस्कुराते रहते हो ! अहा ! कितनी खूबसूरत मुस्कुराहट थी तुम्हारी ! एकदम प्योंली के फूल जैसी ! कोमल और पीली शर्माहट वाली। इतना कौन शर्माता है आज के जमाने में ? मैं भी नहीं शर्माती इतना तो ! तुम तो लड़के होकर भी शर्माते रहते थे। एक दिन जब मैंने तुमसे पूछा कि आखिर तुम इतना शर्माते क्यों हो ? तो तुमने भीनी-भीनी मुस्कान बिखेरते हुए कहा था- "पगली, गाँव का गोविंदा हूँ मैं, शहरी सलमान नहीं। जो शर्माऊंगा नहीं !"
तुम्हारी बात सुनकर मेरे होठों से हंसी फूट पड़ी थी- "पागल ! ऐसे में तो हो गई हमारी प्रेम की नैया पार ! तुम शर्माते रहो और तब तक ले भागेगा मुझे कोई दूसरा राजकुमार !" मैंने तुम्हें छेड़ने के इरादे से कहा था।
"अरे, किसकी नैया ? कैसी नैया ? मैं तुमसे कोई प्रेम-स्रेम नहीं करता। कोई राजकुमार तुम्हें भगाना चाहे तो मैं उसे पूरा सपोर्ट करूंगा। कहूंगा ले जा इस
बबाल की जड़ को मुझसे दूर, जितनी जल्दी हो सके।" तुम्हारा ऐसा जवाब सुनकर मेरी आंखों में आंसू उमड़ आये थे।
आह... इंदु मैं जानती हूँ कि तुम मुझसे प्यार नहीं करते, लेकिन मैं तो तुमसे प्यार करती हूँ ना ! तुम तो उस बड़बोली मानसी पर जा मरे हो। तभी तो जब भी वह तुम्हारे सामने होती है तो तुम एकदम बावले हो उठते हो। चुड़ैल कहीं की ! मेरे जिगर के टुकड़े को मुझसे छीनकर पता नहीं कहाँ ले गई ! ल.. ल.. लेकिन मैं हार नहीं मानूंगी। प्यारे इंदु ! मैं तुमको मानसी से ज्यादा प्यार करूंगी। अपनी आंखरी सांस तक तुम्हें चाहूंगी।
प्यारे इंदु ! उस दिन के सवाल पर मैं चाहती थी कि तुम वही जवाब दो, जो तुमने मानसी को दिया था चिट्ठी में लिखकर ! सच कहूँ तो मैंने तुम्हारी थाह लेने के लिए ही तुमको छेड़ा था। चिट्ठी में लिखे तुम्हारे वो शब्द आज भी मेरे मन में एक अजीब सा रोमांच पैदा करते हैं- "अरे मानू ! कोई कैसे ले भागेगा तुम्हें ? हम उसे ले भागने देंगे तब ना ! देशी गाय का दूध और मट्ठा पीकर बड़े हुए हैं। अगर किसी ने ऐसी हिमाकत की तो हम उसे छठी का दूध याद दिला देंगे !"
सच कहूँ तो इंदु मैं चाहती थी कि तुम ये शब्द मुझसे कहो ! मेरी सहेली से नहीं। उठना-बैठना, मिलना-जुलना हम दोनों का है। तुम्हारा और मानसी का नहीं, लेकिन फिर भी तुमने किताब की जिल्द के भीतर लेटर छिपाकर मानसी को देना चाहा। वो भी मेरे माध्यम से ? इंदु ! तुम पागल हो सकते हो, मैं नहीं ! मैंने मानसी की जगह अपना नाम लिखकर वो लेटर आज भी अपने पास संभालकर रखा है !
मेरे इंदु ! मेरे प्यारे..देखो ना ! देखो ना ! तुम्हारे वियोग में आखिर कैसी दशा हो गई है मेरी ! न तो कुछ खाने का मन करता है और न पीने का। बस पापी पेट की खातिर दो गास गले से नीचे उतार लेती हूँ। जब तक तुम थे तो महीने में एक बार मुझे जरूर शहर के रेस्तरां में खिलाने ले जाते थे। एक दिन तुम मुझे पिथौरागढ़ के सबसे बड़े होटल मेघना होटल में भी तो ले गये ! मैंने उस दिन पहली बार चाऊमीन खाई। चाऊमीन ! उफ्फ ये भी अजीब खाने की चीज है ! पहले तो मैं उसे देखकर सोचने लगी थी, कहीं ये नानवेज तो नहीं ! क्योंकि मुझे लगा था कि जैसे यह कोई केंचुए से बनी डिश होगी ! बाद में तुमने मेरी शंका को दूर किया था।
जब हम शहर जाते थे तो शहर में जी-भरकर घूमते थे। कभी महाराजा पार्क, तो कभी उल्का देवी मंदिर। कभी नैनी सैनी हवाई पट्टी, तो तो कभी रई गुफा। एक ही दिन में तुम सारे शहर में घुमा देने वाले ठैरे। और तो और इक्जाम के दौरान डिग्री कालेज के गेट तक मुझे छोड़ने भी तो तुम ही आने वाले ठैरे ! तुमने मेरे ही नहीं कई बार मेरे घरवालों की भी मदद की। भगवान ही जानता है कि तुम्हारा मेरे जीवन में कितना महत्व था ! तुम भी शायद मुझसे प्रेम करते थे, लेकिन तुम्हें अपना ही प्रेम दिखता नहीं था।
अगर तुम मुझसे प्रेम नहीं करते थे, तो क्यों मेरे साथ उठते-बैठते थे ? क्यों मुझे घुमाने ले चलते थे ? क्यों मेरी मदद करते थे ? एक दिन मैंने अनायास ही तुमसे यह सवाल पूछा भी था, तो तुमने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- "यह सब मैं इंसानियत के नाते कर रहा हूँ और अपना पड़ोसी होने का फर्ज निभा रहा हूँ।"
तब मैं आग बबूला होती हुई तुम्हारे सामने से चली गई थी और गुस्से में इतना ही बोल पाई थी- "तुम जैसा नासमझ तो मैंने आज तक नहीं देखा।" तब तुम कुछ नहीं बोले थे और बस मेरी ओर ताकते रहे थे।
***
इस जनम से मिलाया कि
उस जनम से मिलाया
हे खुदा, तूने मुझे न जाने किस
बेवफा सनम से मिलाया।
इंदु ! सच कहूँ तो तुम बेवफा थे ! एक नंबर के बेवफा ! तुमको मेरी मुहब्बत का जरा भी इल्म नहीं था और ना कदर थी ? बस लगे रहे उस मानसी के चक्कर में ! आखिर ऐसा क्या था उसमें ? और मुझमें क्या कमी थी ? मेरा गुनाह बस इतना था कि मैं थोड़ी सांवली थी या फिर गरीब थी या तुम्हारी पड़ोसन थी।
लेकिन इंदु मैं जब भी तुम्हारे सामने आई तो हमेशा सज- संवरकर आई। तुम अगर हौसला बढ़ाते तो मेरी नौकरी भी लग जाती ! पड़ोसन होना तो मेरी नियति है ना ! इंदु.. छोड़ो भी मैं क्या- क्या बोली जा रही हूँ ! पगला गई हूँ अच्छे-से !
लेकिन इंदु.. कुछ भी कहो। मैं तुम्हारी हूँ। ये मानसी तो तुम्हें चाहती ही नहीं थी। बस तुम्हारी अमीरी पर आ मरी थी। तुम्हें चाहती तो वो तुम्हें सभी तरह से खुश रखती ! तुम्हारे साथ वक्त बिताती, लेकिन उसे तो अपने दोस्तों के साथ गुलछर्रे उड़ाने से फुरसत मिले तब ना ! अंशुमान तो उस दिन उसे अपनी बाइक में बिठाकर पता नहीं कहाँ- कहाँ घुमा रहा था ! चुड़ैल कैसी चिपककर बैठी थी उसके साथ ! जैसे कि वो उसका हसबैंड हो ! कभी-कभी तो सोचती हूँ ये दुष्टा ना तो तुम्हारी प्रेमिका थी और ना मेरी सहेली !
रहने देती हूँ। क्या शिकायत करूँ इससे भी। लड़की ही हुई बिचारी ! दोष तो तुम्हारा था इंदु, जो तुम्हें मेरी मुहब्बत दिखाई नहीं देती थी। अपने दगा दें तो गैरों से क्या शिकवा !
शिकवा नहीं किसी से, किसी से गिला नहीं
नसीब में नहीं था जो, हमको मिला नहीं।
सब नसीब का खेल है इंदु ! किसी से क्या शिकायत रखनी ? ल.. ल लेकिन मुझे शिकायत है तुमसे और जिंदगी भर रहेगी, क्योंकि मैं तुमसे बेपनाह प्यार करती हूँ। तुम्हें तो पता भी नहीं होगा इंदु, जब तुम आर्मी में आफिसर बने थे, तो तब मैंने पूरे गाँव भर में मिठाई बंटवाई थी। मैं कितनी खुश थी उस दिन ! जब तुम ट्रेनिंग के बाद पहली बार घर आये, तो सचमुच कितनी बेसब्र थी मैं उस दिन। मेरा इंदु आर्मी का आफिसर बनकर घर आ रहा है ! अहा ! आर्मी की वर्दी में कितना सुंदर लग रहा होगा मेरा इंदु ! जब वह आयेगा तो सबसे पहले मैं उसे बधाई दूंगी ! कैसे दूंगी ! रात को सोच-सोचकर तुम्हारे लिए एक कविता लिखी थी। जब तुम आये तो इतने व्यस्त थे, कि मैं वो कविता तुम्हें सुना ही नहीं पाई।
इंदु ! क्या करूँ मैं। तुमने तो सुनी नहीं या मैं सुना नहीं पाई, लेकिन अब वो कविता रोज तुम्हारी तस्वीर सुनती है ! हा ! मेरे ईष्ट देव ! गजब लीला है तेरी भी।
घर आने के कुछ ही दिनों में तुमने मानसी से शादी कर ली और मुझे रोता-बिलखता अकेला छोड़ गये। इंदु, आखिर इतने निष्ठुर कैसे हो सकते हो तुम ! इतने बेपरवाह आखिर कैसे हो सकते हो तुम ! मेरे एक बुलावे पर दौड़कर आने वाले इंदु तुम्हें मेरा जरा भी खयाल नहीं आया ! तुमने इतना भी नहीं सोचा कि मेरे हृदय के कितने टुकड़े होंगे !
तुम्हारी शादी से दो दिन पहले ही मैं आंखों में आंसू भरकर कालेज की परीक्षा के बहाने शहर चली आई थी। कैसे देख सकती थी मैं अपनी आंखों के सामने अपने जिगर के टुकड़े को किसी और का होते हुए ! तुम्हें तो एहसास भी नहीं होगा कि एक माह तक मैं कितना रोई ! बस बिस्तर पर लेटी रही। बेसुध होकर। मौसी पूछती कि तू दिन भर कमरे के भीतर क्या करती रहती है, तो मैं कहती पढ़ाई कर रही हूँ मौसी। आखिर मौसी को कैसे बताती कि अपनी मुहब्बत से बिछुड़ने का मातम मना रही हूँ ! अपने टूटे हृदय के टुकड़ों को जोड़ने का प्रयास कर रही हूँ !
***
कोई दिल से दिल्लगी,
दिलबर की सोहबत ना करे।
जमाने में कोई किसी से,
मुहब्बत ना करे।
इंदु जब तक तुम थे तो मैं भी थी। अब मैं हूँ या नहीं, यह मुझे भी नहीं मालूम। तुम थे। भले ही किसी और थे, लेकिन थे तो सही। लेकिन अब तुम नहीं रहे। यह कहना मेरे लिए सबसे अधिक पीड़ादायी है। उस दिन जब तुम्हारे शहीद होने की खबर अखबार में पढ़ी तो हृदय बुरी तरह झुलस गया। कश्मीर में आतंकवादियों के साथ हुई एक मुठभेड़ में तुमने भारत माँ की रक्षा के लिए स्वयं का बलिदान कर दिया था। इंदु... तब मेरे मन में माँ- बाबूजी और मानसी का खयाल आया। आखिर अपने माँ-बाप के इकलौते बेटे थे तुम ! तुमने मेरे हृदय के टुकड़े तो किए ही अब उन सबके हृदय भी छलनी-छलनी करके चल दिए।
इंदु, कोई कुछ कहे ! कोई कुछ करे, लेकिन मैं तो हमेशा तुम्हारी ही रहूंगी। तन से भले ही हम कभी एक नहीं हो पाये, लेकिन मन से तो मैंने केवल तुम्हें ही चाहा है। उस दिन दीवाली का त्योहार था। महालक्ष्मी के दिन सभी लोग घरों में दिए जला रहे थे। मैं भी मौसी के घर दिए जला रही थी। एक थाली में सजाए हुए दिए लेकर मैं छत में गई और छत के किनारों पर दिए सजाने लगी। उसी समय मैंने देखा कि पड़ोस के घर की छत से एक लड़का टकटकी लगाए मुझे घूर रहा है। मैंने उसकी ओर देखा भी नहीं। दिए जलाए और चुपचाप छत से नीचे उतर आई।
जब भी गाँव जाती हूँ तो इजा-बाबू, सब लोग कहते हैं बेटी शादी कर ले, शादी कर ले। कब करेगी शादी तू अब ! मैं कहती हूँ, शादी तो मैं कर चुकी अपने इंदु के साथ। मेरी शादी के एक-दो नहीं कई रिश्ते आ चुके हैं, लेकिन मैंने सबको मना कर दिया। पता है, मेरा मन ही नहीं करता।
एक अजीब- से बंधन में बंधी रहती हूँ। ऐसा लगता है जैसे किसी नशीले पदार्थ का सेवन किए बैठी हूँ। मौसी कहती है कि तुझे कोई बीमारी हो गई है। एक-दो बार डाक्टर को बुला भी दिया, लेकिन उसकी दवाई का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। नबजिया वैद्य क्या जाने, मुझे दिल की बीमारी है।
सच इंदु, तुम्हारे प्रेम ने मुझे पागल कर दिया है। जी करता है कि प्यासी मछली की तरह तड़प-तड़पकर प्राण त्याग दूं ! लेकिन प्राण त्यागना भी इतना आसान कहाँ है ? प्यारे इंदु... तुम ना रहे, तुम्हारा दोष नहीं। तुमने मुझसे प्रेम नहीं किया कोई बात नहीं। यह तुम्हारा निर्णय था। लेकिन मैं तुमसे प्रेम करती थी और मरते दम तक करती रहूंगी। यह मेरा निर्णय है। मेरा अधिकार है। इस अधिकार को मुझसे कोई नहीं छीन सकता।
सच्चा प्रेम प्रतिदान नहीं मांगता। सच्चा प्रेम तो समर्पण मांगता है। मेरे इंदु.. मेरे प्यारे इंद्रजीत ! अच्छा होता कि तुम मौत को जीत जाते। साल में एक बार ही सही कम-से-कम तुम्हारा चेहरा तो देख पाती ! लेकिन कोई बात नहीं, नियति को यह भी मंजूर नहीं होगा। अब तो केवल तुम्हारी यादों का ही सहारा है। ये अभागन..आकांक्षा.. तुम्हारी यादों को सहेजकर रखेगी और तुम्हारी तस्वीर को सीने से लगाकर पूरी उम्र गुजार देगी। इस उम्मीद के साथ कि शायद अगले जनम में हम एक हो पायें।