हमेशा की तरह आज भी वह चांदनी रात में मेरे पास आई और अपने कोमल हाथों से मेरी दोनों पलकों को बंद करती हुई बोली- "बताओ कौन हूँ मैं ?"
मैंने कहा- "बोसी !"
वह अपने हाथों को हटाती हुई बोली- "ना ! चांदनी हूँ मैं तुम्हारी और तुम मेरे चांद।"
मैंने कहा- "चोरनी ! चोरी करती हो मेरा डायलॉग !"
वह अपने चिर-परिचित अंदाज में रूठती हुई बोली- "हूँ ! आप भी तो मुझसे बड़े चोर हो।"
मैं बनावटी गुस्से में बोला- "बताओ तो जरा क्या चोरी की है मैंने ?"
अपने दोनों पांखों को मेरे गले का हार बनाकर मेरी पलकों में झाँकती हुई वह बोली- "मेरे दिल की।"
बोसी से मेरी पहली मुलाकात गाँव जाने वाली पगडंडी पर हुई थी। मैंने ही उसकी ड्रेस को देखकर, उसे राह में रोकते हुए पूछा, मैंम क्या आप बी.एड. कर रही हैं ? उसने हां में सिर हिलाया। फिर मैंने पूछा कि आपके कालेज में इक्जाम कब-से हैं ? उसने बताया, आठ मार्च से। और इस तरह हमारे बीच बातचीत शुरू हुई। उसने मुझे अपना फोन नंबर दिया और बोली कि कोई समस्या हो तो बताना।
वास्तव में उसका नाम बिंदिया था, बोसी नहीं। पहली ही मुलाकात में इतने अपनेपन का कारण यह था कि हम एक ही इलाके के रहने वाले थे। उसका गाँव भी मेरे गाँव से कुछ ही दूरी पर स्थित था। वह उस दौरान गाँव से दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित सरकारी कालेज से बी.एड. का प्रशिक्षण ले रही थी और मैं दूर शहर के कालेज से।
धीरे-धीरे हमारे बीच फोन पर बातचीत का सिलसिला चल निकला। वह मुझे कभी मैसेज में तो कभी काल करके पूछती थी- कहाँ हो अभी..? क्या कर रहे हो..? खाना खाया कि नहीं..? कोई परेशानी तो नहीं है..? इस तरह समय-समय पर वह मेरा हाल-चाल पूछती रहती थी। उसकी बातों में मेरी चिंता साफ झलकती थी। शायद पहली ही मुलाकात से वह मुझे पसंद करने लगी थी।
सात-आठ महीने बीत चुके थे। कालेज के इक्जाम भी समाप्त हो गये थे। इस बीच बातों-बातों में ही मुझे भी कब उससे लगाव हुआ, पता ही नहीं चला। आखिर एक दिन पूर्णमासी की रात में फोन पर मैंने अपनी भावनाएँ प्रकट कर ही दीं- "बिंदु ! छत पर आकर देखो तो आज चांद पूरा खिला है। बिल्कुल उस दिन गाँव की पगडंडी पर खिले चांद की तरह।"
मेरी इस बात पर वह खिलखिलाकर हंस दी। बोली- "अरे वाह ! कविता अच्छी कर लेते हो।"
मैंने कहा- "कविता नहीं है। यह सच है। तुम उस दिन नीली साड़ी में थी ना तो लग रहा था कि आज आसमान और चांद दोनों जमीं पर उतर आये हैं। तुम्हारा गोल-गोल रोशनी भरा मुखड़ा पूर्णिमा के चांद से कम भी तो नहीं।"
यह बात शत् प्रतिशत सच है कि उसकी वह मोहक छवि आज भी मेरे मन में ज्यों-की-त्यों बसी हुई है।
वह शरमाती हुई बोली- "पागल ! मजाक कर रहे हो। इतनी भी सुंदर नहीं हूँ मैं।" ऐसा कहकर वह फिर से खिलखिलाने लगी।
तब मैंने बात आगे बढ़ाई- "इतना ही नहीं बिंदिया जी, हमें आपकी ये खिलखिलाहट भरी मुस्कान भी बहुत पसंद है। क्या हम इसे अपनी बना सकते हैं ?"
वह मतलब समझी तो शरमाती हुई बोली- "धत्त !" फिर धीरे से मुस्कुराई और बोली- "हाँ।"
उस रात मेरे आंगन में खिली रातरानी महक उठी। सुबह हुई, सूरज की किरणें पड़ते ही सूरजमुखी भी खिलखिला उठी। पेड़-पौधे, फूल-पत्ती, घास-शबनम सब खुश थे।
एक दिन फोन पर उत्सुकतावश उसने मुझसे पूछा- "अगर हम मिलेंगे तो एक-दूसरे को किस नाम से पुकारेंगे ?"
मैंने कहा- "मैं तुम्हें बोसीदनी कहकर पुकारूंगा।"
वह हंसती हुई बोली- "पागल ! यह भी क्या..अजीब नाम है। अच्छा, पहले इसका अर्थ बताओ ?"
मैंने कहा- "जो होंठों से छूने योग्य हो, उसे बोसीदनी कहते हैं।"
अर्थ जानकर वह खिलखिलाई- "मजाक कर रहे हो..।"
मैंने कहा- "ना, यही होता है।"
तब वह बोली- "हाँ ठीक है। तुम मुझे बोसीदनी कहकर पुकारना और मैं तुम्हें बोसादान।"
अब खिलखिलाने की बारी मेरी थी- "पगली ! यह भी कोई नाम है ! इससे अच्छा कूड़ेदान, शैतान या कुछ और कहकर पुकार लेना।"
वह बोली- "बुद्धू कहीं के ! समझते नहीं हो। जिस तरह से होंठों से छूने योग्य लड़की को बोसीदनी कहते हैं, उसी तरह होंठों से छूने योग्य लड़के को बोसादान।" इतना कहकर वह फिर खिलखिला उठी।
मैं भी अपनी हंसी रोक नहीं पाया और हम दोनों की हंसी मिलकर एक हो गई। तब से हम बोसादान- बोसीदनी के शार्ट रूप यानि बोसा-बोसी कहकर ही एक-दूसरे को पुकारते थे।
फोन पर हुई ऐसी ही ढेर सारी बातों ने हमारे दिलों की गहराइयों का चप्पा-चप्पा छान मारा था। एक-दूसरे को अब हम अच्छी तरह से समझ गये थे। हमने अपने क्षणों को एक-दूसरे के लिए समर्पित करने का संकल्प कर लिया था और जीवन-भर साथ निभाने का वायदा भी। मैं अपने प्रत्येक क्षण में उसे अनुभव करता था। मेरे अंग-प्रत्यंग, मेरी हर बात उसके होने का एहसास दिलाती थी। उसकी खुशी में मेरा रोम-रोम खिल उठता था और उसकी उदासी के एहसास से मेरी रूह काँप उठती थी। ऐसा हो भी क्यों न ? जब से वो मिली, तब से सूरजमुखी और रातरानी दोनों के महकने का सिलसिला कभी थमा नहीं।
उससे मेरी दूसरी मुलाकात गाँव के बस स्टेशन पर हुई। तब हम एक-दूसरे के मात्र दर्शन करके ही संतुष्ट हो लिए। जी बहुत कर रहा था बात करने का, परंतु मुंह से शब्द नहीं फूटे।
कुछ समय बाद हमारी तीसरी मुलाकात हुई और इस मुलाकात से हमारी मुलाकातों की खूबसूरत दुनिया की शुरुआत हुई। वह भी अब आगे की पढ़ाई के लिए शहर आ चुकी थी। कालेज जाने वाली सड़क, पुस्तकालय, वाचनालय जैसी जगहों पर हमें एक-दूसरे के साथ अकसर देखा जा सकता था। वैसे भी हफ्ते का एक पूरा दिन हमने एक-दूसरे के नाम कर लिया था। ढेरों वादे, ढेरों सपने उस खास दिन में महकते रहते थे। जीवन के विलक्षण अनुभव, प्रेम के सातों रंग, श्रृंगार के दोनों रूप और खुशियों के अनगिनत रंगीन कल्ले उस खास दिन में फूटा करते थे।
प्रेम में दुनिया कितनी हसीन लगती है, इस बात को दो प्रेमी ही जान सकते हैं। आंधी, तूफान, लू के थपेड़े सच्चे प्रेमियों को कष्ट नहीं पहुंचाते, बल्कि उन्हें जीना सिखाते हैं। मजबूती से आगे बढ़ना सिखाते हैं। वास्तव में प्रेम में इंसान असंभव को भी संभव कर जाता है। इधर मेरा चयन सरकारी स्कूल में लेक्चरर के पद पर हो गया था, यही कारण है कि मेरी खुशी का कोई ठिकाना न था। मेरे ऊपर आसमां में चांद-चांदनी थे तो नीचे धरती पर सूरजमुखी और रातरानी...।
लेकिन वक्त-तो-वक्त है, वह हमेशा एक-सा नहीं रहता। इधर जैसे मेरी खुशियों को किसी की नजर लग गई हो। पिछले दो सप्ताह से मैं बिंदिया के दर्शन के लिए तरस गया था। कई बार उसे फोन मिलाया लेकिन हर बार उसका फोन स्विच आफ आ रहा था। मैंने सोचा शायद गाँव गयी होगी, कुछ समय बाद लौट आयेगी। महीना बीत गया, पर वह न आई। मैं उसके पदचिह्न खोजता हुआ उसके गाँव जा पहुँचा। वह वहाँ भी नहीं मिली। मैं निराश, अपने गाँव लौट आया। एक दिन किसी की बारात मेरे घर के सामने से गुजर रही थी। कुछ औरतों और युवतियों ने दुल्हन का चेहरा देखने के लिए घूंघट उठाया...। मेरे तो जैसे प्राण ही सूख गये। वही चांद... वही चांदनी....।
एक अरसा बीत गया। चांद अब उदास है। चांदनी गुम हो गई है। पूर्णमासी की रातों में अब पूरा खिला चांद नहीं दिखता। बादल ढक लेते हैं उसे हर बार। रात को रातरानी भी नहीं महकती और ना अब दिन में खिलती है सूरजमुखी।