आज मैं पूरे बत्तीस साल का हो गया हूँ। साथ-ही- साथ एक अकलमंद और सयाना लौंडा भी। इसलिए आज मैं पूरे होशो-हवास में यह निर्णय ले रहा हूँ कि आज के बाद मैं किसी कुंवारी लड़की की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखूंगा और ना ही किसी कन्या के सामने प्रणय प्रस्ताव रखूंगा। वैसे सच कहूं तो प्रेम प्रस्ताव रखने की उमर गई अपनी। अब सीधे विवाह प्रस्ताव रखने की उमर है, लेकिन यह भी मैं करने से रहा। आज तक तो कोई कन्या पटी नहीं, अब शादी करके क्या उखाड़ लूंगा ! घंटा ? सयाने लोग कहते हैं शादी कर ले। उमर हो गई तेरी अब। मैं कहता हूँ, अरे चच्चा और कोई टापिक नहीं है का आपके पास बतियाने के लिए ? खा-म-खा जब-तब दिमाग की दही बनाते रहते हो ! चच्चा बिचारे खामोश हो जाते हैं। खामोश न हों तो और करें भी क्या ?
यार-दोस्त अलग से बड़-बड़ लगाये रखते हैं। कहते हैं, बेटा शादी कर ले। उमर जा री तेरी। फिर कोई लड़की घास डालने से रही तुझे। मैं कहता हूँ, अरे आज तक कौन-सा किसी ने डाली ! सब हंसने लगते हैं। कहते हैं, हमारी शादी में तो कमरतोड़ नाच किया था बे तूने। अब हमको भी तो बदला लेने का मौका दे। वैसे भी डिस्को-भंगड़ा न किये लंबा अरसा हो गया है। मैं कहता हूँ, भाड़ में जाये तुम्हारा डिस्को-भंगड़ा। यहाँ जिंदगी का मजा किरकिरा हुआ जा रहा है और तुमको डिस्को-भंगड़ा की पड़ी है।
अब आप कहेंगे कि ये मजा किरकिरा कैसे हुआ ? तो सुनिए, इसके पीछे असफलताओं की एक लंबी कहानी है... लेकिन कहानी सुनाने से पहले हम आपको क्लियर-कट बताय दे रहे हैं कि अब हम ना किसी लड़की-वड़की के चक्कर में पड़ेंगे और ना किसी लड़की से शादी करेंगे। ये हमारा खुद से करार है। अब हमारे जीवन के दो ही आदर्श वाक्य हैं- पहला, नारी नरक का द्वार है। दूसरा, शादी मतलब बरबादी..।
बात उन दिनों की है, जब हम कक्षा आठवीं में पढ़ते थे। इस्कूल का नाम था राजकीय आदर्श विद्यालय चांदीपुर। विद्यालय आदर्श था या नहीं यह तो ठीक से नहीं कह सकते लेकिन विद्यालय का नाम जरूर आदर्श था। कुल बासठ बच्चों की हमारी कक्षा थी और कक्षा में हम यानी मिस्टर पवन प्रताप सिंह मानीटर हुआ करते थे। मानीटर होने के नाते कक्षा आठ में नहीं पूरे इस्कूल में हमारा दबदबा था। एक तो इस्कूल की सबसे सीनियर क्लास के मानीटर। ऊपर से पढ़ाई-लिखाई में भी अव्वल। इसीलिए इस्कूल के अध्यापक भी मानते थे कि हम बड़े होकर अपने माता-पिता का नाम रोशन करेंगे, लेकिन हुआ इसका उल्टा ही।
उन दिनों सातवीं-आठवीं कक्षा के बच्चे उम्र में काफी बड़े हुआ करते थे। वे किस्सागोई करने और गप्पें मारने में तो माहिर होते ही थे साथ ही लड़कियों के साथ नैन-मटक्का करने में भी दक्ष हुआ करते थे, भले ही वे पढ़ाई-लिखाई में बुद्धू हों। हम पर भी दोस्तों की संगत का ऐसा असर हुआ कि विद्यार्थी से बन बैठे मजनू। उन दिनों लड़के-लड़कियां आपस में प्रेम-पत्र लिखा करते थे। हमने भी अपने सहपाठी रघुवीर से प्रेम-पत्र लिखवाया। रघुवीर पहले तो मना करने लगा, लेकिन जब हमने उसे डराया- धमकाया और दोस्ती का हवाला दिया तो फिर वह राजी हो गया। आप यह भी जानना चाहेंगे कि प्रेम-पत्र किसके नाम पर लिखा ? प्रेम पत्र में क्या लिखा ? तो सुनिए....हमारी ही कक्षा में एक लड़की हुआ करती थी बबली। वह कक्षा की सबसे सुंदर लड़की थी। यही कारण है कि उसे देखकर हमारे दिल की घंटियाँ बजने लगती थीं। उसी के नाम पर हमने प्रेम पत्र लिखवाया-
प्रिय बबली,
तुझे देखते ही बजने लगती है मेरे दिल की ढपली। जब से तुझे देखा, बदल गई मेरे हाथ की रेखा। लिख रहा हूँ चिट्ठी, बना न देना मिट्टी। फूल तुम्हें भेजा है खत में, फूल में ही मेरा दिल है। बबली मेरी मुझसे मिलना, क्या ये तेरे काबिल है ? उत्तर जरूर देना।
आई लब यू।
तेरा मजनू,
पी. पी.।
रघुवीर से पत्र लिखवाकर हमने पत्र के अंदर गुलाब का फूल रखा और उसे अच्छी तरह से लपेटकर प्रकाश के हाथ में थमा दिया और कहा, जा इसे फटाफट बबली को दे आ। प्रकाश दौड़कर गया और बबली के हाथ में थमा आया। हमने सोचा कि पत्र का जवाब आयेगा, लेकिन नहीं आया। थोड़ी ही देर में इंटरवल बंद हुआ और पांचवाँ पीरियड शुरू हुआ। बबली उठी और सीधे वह पत्र महेश मासाब के हाथ में थमा दिया। मासाब ने पूछा- "किसने दिया ?" बबली ने ऊंगली प्रकाश की तरफ कर दी। दो थप्पड़ पड़ते ही प्रकाश ने सच्चाई उगल दी। फिर क्या था मासाब ने मेरी खूब खिंचाई की- "कहाँ तो सोचा था माँ-बाप का नाम रोशन करेगा। ऐसा रोशन कर रा है साला। लब लेटर लिखने वाला सपड़ा है। आइंदा से ऐसा किया तो तेरी खाल उधेड़ दूंगा। चल मुर्गा बन..।" पूरी कक्षा के सामने मैं पीरियड-भर मुर्गा बना रहा। कक्षा के पीछे बैठे बच्चे मेरी मसखरी ले रहे थे- "अंड झन दिये रे..( अंडे मत देना रे..)। मैं मन-ही-मन आग बबूला हो रहा था और सोच रहा था कि छुट्टी के बाद इनकी खबर लूंगा। इस घटना के बाद मैंने बबली की तरफ ध्यान देना ही छोड़ दिया।
अब हम कक्षा आठवीं पास कर पड़ौसी गाँव के इंटर कालेज में अपना नाम लिखा चुके थे। चूंकि पढ़ने में हम ठीक-ठाक थे, इसलिए साइंस वर्ग में अपना नाम लिखा लिए। खैर, पढ़ाई शुरू हुई। सब कुछ हुआ लेकिन इश्क के भूत ने हमारा पीछा यहाँ भी नहीं छोड़ा। कक्षा की ही एक कन्या से नयन लड़ा बैठे। नाम था उसका पूजा। चेहरे में मासूमियत। दिखने में इतनी गोरी-चिट्ठी कि कक्षा के लौंडे कहते थे मुंह पानी से नहीं बल्कि दूध से धोकर आती होगी। आवाज भी इतनी मधुर कि अहा पूछो मत ! अब ऐसी लड़की से कौन अभागा होगा जो नयन दो-चार नहीं करना चाहेगा। हम तो उसके लिए जी-जान देने को तैयार थे। उसके लिए गाँव से कभी अमरूद, तो कभी संतरे लेकर आते। अपनी पाकेट मनी से उसके लिए चाकलेट खरीदते। इंटरवल में वह सहेलियों के साथ गपियाती तो हम कभी कक्षा की खिड़कियों से तो, कभी पेड़ों व दीवालों की ओट से उसे निहारते रहते। यहाँ तक कि कक्षा में भी हम पीछे बैठकर उसे ही निहारते रहते। वह कभी-कभी कनअंखियों से हमारी ओर देखती तो हमारा दिल बल्लियों उछलने लगता। घर जाने के बाद मन उसके ही खयालों में रहता। हालत यह हो गई थी, जिस दिन वह कालेज नहीं आती थी तो मेरा भी कालेज में मन नहीं लगता था।
इधर किसी तरह मैं नवीं पास करके दसवीं में पहुँच गया। इन्हीं दिनों एक घटना घट गई। कक्षा ग्यारह के एक लड़के राकेश को जब पता चला कि मैं पूजा से प्यार करता हूँ, तो वह सीधे मेरे पास आकर बोला- "पूजा मेरी है। मैं उससे प्यार करता हूँ।"
मैंने कहा- "अच्छा ! पूजा तेरी नहीं साले मेरी है। मैं उससे प्यार करता हूँ।"
ऐसा सुनते ही उसका पारा गरम हो गया। उसने
आव देखा न ताव, भचम् एक मुक्का मेरे गाल में दे मारा। मैंने भी तुरंत पलटवार किया- "कमीने ! तूने मुझे मारा !" उसकी कमीज का कालर पकड़ा और भचम् एक मुक्का उसके नाक में दे मारा। उसकी नाक से खून टपकने लगा। खून टपकते देख लड़कों ने बीच-बचाव किया। वह गाली देता हुआ चला गया। उस दिन मामला टीचरों तक नहीं पहुंच पाया लेकिन दूसरे ही दिन पुनः बखेड़ा हो गया।
राकेश अपने दोस्तों के साथ निकील, चेन और चाकू लेकर आ धमका। मुझ पर भी जवानी का जोश चढ़ा था। मैंने भी कह दिया- "दम है तो हाथ से लड़के दिखाओ।" चारों ने चैलेंज स्वीकार किया और निकील, चेन और चाकू साइड रखकर मुझसे भिड़ गये। मैंने भी जै बजरंग बली का नारा लगाया और टूट पड़ा उन सब पर। मैं अकेला होकर भी उन पर भारी पड़ने लगा। तभी राकेश ने धोखा देकर मुझ पर चाकू से हमला कर दिया। चाकू मेरे पैर पर लगा और पैर से खून बहने लगा। खून देखकर चारों दोस्त नौ दो ग्यारह हो गये, लेकिन कहां तक भागते। पकड़े गये। इसी बीच किसी ने जाकर टीचरों से शिकायत कर दी। मेरे पैर में पट्टी की गई और सबको लाइन हाजिर किया गया। और बताया गया कि आज के बाद पांचों में से किसी ने भी लड़ाई की तो उसको कालेज से निकाल दिया जायेगा।
इस घटना के बाद भी मेरा इश्क का भूत उतरने के बजाय उल्टा सिर चढ़कर बोलने लगा। मैं अब पूजा की तरफ देखता तो मन-ही-मन कहता- "देख ! तेरे लिए मैं अपनी जान भी देने को तैयार हूँ।" लेकिन इधर राकेश की बात से मेरे मन में संदेह का कीड़ा कुलबुलाने लगा था। मैंने तय किया कि अब पूजा से प्यार का इजहार कर ही देना चाहिए। मैंने चमकने वाली खुश्बुदार रंगीन पैनों का एक बाक्स मंगाया और डायरी के पुष्प-सज्जित पन्नों में रात-भर मेहनत करके एक प्रेम-पत्र लिखा-
जै बजरंगबली !!
माई डियर पूजा,
किताबों की पूजा करते-करते पता ही नी चला कब तुम्हारी पूजा करने लगा। अब तो तुमसे यही कहना चाहूंगा किताबें बहुत सी पढ़ी होंगी तुमने मगर इस दिल को पढ़के तो देखो। जो हर बखत ( समय ) कहता है तुम दिल की धड़कन में रहते हो, रहते हो। अब कैसे कहूँ बहुत प्यार करते हैं तुमको सनम। कसम चाहे ले लो खुदा की कसम। सच कहूं जबसे तुमको देखा दिल हो गया तुम्हारा। अब फिरता है अकेला मारा-मारा। सनम अपनी मुहब्बत का गिफट मुझे दे दो, अपने दिल के टेंपल में लिफट मुझे दे दो। जिया बेकरार है तेरे इंतजार में। मजनू बीमार है तेरे लब-प्यार में। आशा है मेरे लिए तू गायेगी इक दिन, आजा पिया तुझे प्यार दूं। गोरी बहियाँ तो पे वार दूं। आंखरी में, कलम की गलती माफ करना। लेटर का अर्ली जबाब करना-
फूल है गुलाब का तोड़ा कैसे जाय
आप जैसी लबर को छोड़ा कैसे जाय।
तुम्हारा,
पी.पी.।
पागल मजनू।
( कक्षा में चुपके से तुमको देखने वाला।)
लेटर लिखकर हमने पूजा के बैग में हिंदी की कापी के अंदर रख दिया। अब पूजा के जवाब का इंतजार करने लगे। इंतजार करते-करते दिन बीते। हफ्ते बीते। और-तो-और पूरा महीना बीत गया। अब हमारे दिमाग की बत्ती फिर से जलने लगी- "आखिर क्या कारण है कि पूजा ने लेटर का जवाब नहीं दिया ?" हमने दिमाग के घोड़े दौड़ाये। अंत में निष्कर्ष निकला कि क्यूँ न पूजा के सामने मौखिक ही प्रेम का इजहार किया जाये ! इसके लिए दोस्तों से सुझाव लेकर मंगलवार का दिन तय किया गया क्योंकि हिंदू धर्म में मंगलवार को शुभ माना गया है। आखिर मंगलवार को डरते-कांपते हमने पूजा से प्रेम का इजहार कर ही दिया- "पूजा.. आई लव यू भेरी मच्च..।"
पूजा ने तुरंत उत्तर दिया- "हाँ, मुझे पता था तुम एक-ना-एक दिन जरूर मुझसे ऐसा कहोगे। तुम क्या सोचते हो मैंने तुम्हारा पत्र नी पढ़ा ! एक बार तो मन आया कि घरवालों को दे दूं, लेकिन तुम्हारी खिंचाई के डर से किसी से कुछ नहीं कहा। बड़ा आया लव करने वाला.. दूंगी ना सैंडिल उतार के...। आज के बाद भूलकर भी मुझसे ऐसी बात मत करना।" ऐसा कहकर वह चलती बनी और मैं बुत बना वहाँ पर खड़ा रहा। मन आया कि खुद को चार झापड़ रशीद दूं। पूजा की बात से मैं इतना निराश और हताश था कि कई बार पहाड़ से नीचे कूद जाने का मन किया। प्यार में असफलता शायद जीवन की सबसे बड़ी असफलता होती है।
खैर, उधर दो बार हम प्यार में असफल हो चुके थे और इधर इश्कबाजी और पढ़ाई में लापरवाही के चलते हमें हाईस्कूल में दो बार फेल होना पड़ा। किसी तरह तीसरे साल प्राइवेट से थर्ड डिवीजन में हाईस्कूल पास किया और ग्यारवीं में रेगुलर एडमिशन लिया। पूजा की बातों का हम पर ऐसा असर हुआ था कि ग्यारहवीं और बारहवीं के दौरान हमें इश्क करने का साहस ही नहीं हुआ या यूँ कहो कि पूजा ने हमारा इश्कबाजी का भूत उतार दिया था लेकिन इंटर पास कर जैसे ही हम शहर के डिग्री कालेज गये, तो वहाँ के माहौल ने हमारे भीतर के इश्कबाजी के भूत को फिर से जगा दिया। जब हम काले-कलूटे लौंडों को भी गोरी-चिट्ठी लड़की बाइक में बिठाकर घुमाने ले जाते देखते, तो भीतर-ही-भीतर हम जल-भुनकर रह जाते।
आखिर हमने साहस किया और तीसरी बार कूद पड़े इश्क की दरिया में। इस बार जिस लड़की से आंखें चार हुईं वह एकदम माडर्न थी। जींस-टाप पहने जब वह कालेज से गुजरती तो बला की खूबसूरत लगती। बड़ी-बड़ी फिल्मी हीरोइनें तक उसके सामने फीकी नजर आतीं। कालेज के लौंडे उसकी खूबसूरती और साज-सज्जा की तारीफ करते नहीं अघाते थे। समस्या यह हुई कि कैसे इस हसीना को प्रपोज किया जाय ? कहीं बबली और पूजा की तरह इसने भी हमारे प्यार की धज्जियाँ उड़ा दी तो...। हमने आल इज वैल-आल इज वैल करके मन को तसल्ली दी। दोस्तों से राय-मशविरा लिया।
एक दोस्त ने सुझाव दिया कि लड़की को महंगे गिफ्ट खरीदकर दिये जाएं और फिर मौका देखकर उसे प्रपोज किया जाय। दूसरे दोस्त ने सुझाव दिया, गिफ्ट क्या देना है लड़की को अकेले में बुलाकर सीधे किस कर दो, फिर देखो मियां लड़की कैसे दौड़कर तुम्हारी गोदी में आ गिरती है। तीसरे दोस्त ने सुझाव दिया कि पहले लड़की से नोट्स लिए जायें, फिर नोट्स के बहाने उसका फोन नंबर लिया जाय और धीरे-धीरे बातचीत आगे बढ़ाई जाए। हमें तीसरे दोस्त का सुझाव युक्तिसंगत लगा।
दूसरे ही दिन से सुझाव पर अमल करना शुरू कर दिया। अब चूंकि दौर चिट्ठी-पत्री से मोबाइल का आ चुका था। हमने भी मोबाइल क्रांति का भरपूर लाभ उठाने की सोची। लड़की का फोन नंबर लिया और लगे सुबह-शाम, दिन-रात फोन पर बतियाने- "हाय स्वीटी ! कैसी हो ? उठ गई ? खाना खाया कि नहीं ? कमरे में अकेले रहती हो ? आज कालेज क्यों नहीं आई ? संडे को क्या करती हो ? कभी हमारे साथ भी चलो काफी पीने...मूड फ्रेश हो जायेगा...।" चार-पांच दिन की बातचीत के बाद ही स्वीटी काफी के लिए राजी हो गई। वैसे मैं आपको बता दूँ कि उस हसीन बाला का नाम स्वीटी नहीं बल्कि संजना था। स्वीटी तो हम बस प्यार से पुकार लेते थे। जब पहली बार उसने हमारा फोन उठाया तो हम इतने खुश थे कि तब-से कमरे में अकेले गीत गाते रहते थे- 'स्वीटी, स्वीटी, स्वीटी तेरा प्यार चाई दा.....।'
आखिर रविवार को हम स्वीटी के साथ काफी पीने यारियाँ रेस्तराँ में चल दिये। आधा घंटे तक हमने वहाँ बातचीत की, फिर रसमलाई का स्वाद लूटा और अपने-अपने कमरों की तरफ लौट आये। शाम को जब हमने स्वीटी से पूछा कि काफी कैसी लगी, तो वह प्रफुल्लित होकर बोली- "बहुत अच्छी।" उसका बहुत अच्छी कहना और हमारा सातवें आसमान पर पहुँचना। हमें लगने लगा था कि इस बार हमारी मुहब्बत की ट्रेन स्टेशन पर पहुँचकर ही रूकेगी, लेकिन लगने और होने में जमीन-आसमान का फर्क है। दूसरे ही दिन हमारे कमरे में एक मूछों वाला नेता टाइप लड़का धमक गया। बोला- "देख ! सच-सच बता दे। क्या चल रहा है संजू के साथ आजकल तेरा ?"
हम सकपकाते हुए बोले- "कौन संजू ! संजय दत्त ! अरे भैया वो कहाँ, हम कहाँ।"
वह और झल्लाया- "भाई देख ऐसा है, ज्यादा नौटंकी मत झाड़। मैं वो जो तेरे साथ पढ़ती है संजना, उसकी बात कर रहा हूँ।"
मुझे एहसास हो गया कि अब बात बनाने से कोई फायदा नहीं- "नहीं दाज्यू ! ऐसा कुछ नहीं है। हम वो बाजार से गुजर रहे थे। सोचा चलो चाय पी लें।"
वह जेब से कट्टा निकालकर धमकाते हुए बोला- "भाई ऐसा है। ये चाय-वाय के चक्कर में कहीं गोली न खा लेना। और सुन ! कल से संजू की तरफ आंख उठाकर भी मत देखना। समझ गया।"
मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई- "जी दाज्यू , बिल्कुल नहीं देखूंगा।"
नेता टाइप लड़के को गये अभी एक घंटा भी नहीं हुआ था कि दूसरा लड़का आ धमका- "भाई, बहुत मजे ले रहा है संजू के साथ आजकल। देख उसके चक्कर में मत पड़ क्योंकि उसके साथ आलरेडी मेरा चक्कर है...।" इसके बाद भी दो और लड़के मेरे पास आये। सभी ने धमकी भरे अंदाज में एक ही बात कही- "संजना के फेर में मत पड़ना। उसके साथ मेरा चक्कर है।" अब हमें अपनी मुहब्बत की ट्रेन पटरी से उतरती हुई साफ नजर आ रही थी। फिर भी हमने बात को क्लियर करना उचित समझा और शाम को संजना से इस बारे बात की तो उसने कोई जवाब नहीं दिया। उल्टा उसने मेरा फोन काट दिया। इश्कबाजी का भूत तो उतर ही चुका था साथ ही लड़कों की धमकियों का हम पर ऐसा असर हुआ कि एक हफ्ते तक हम कालेज ही नहीं गये।
इस बीच हमने ना तो किसी का फोन रिसीव किया और ना ही किसी से बात की। इश्क के इक्जाम में हम तीसरी बार फेल हो चुके थे। अब हमें लगने लगा था कि शायद हमने विषय ही रांग चूज कर लिया था। नहीं तो बार-बार क्यों हमें फेल होना पड़ रहा है। इस बार हमें निराशा भी अधिक नहीं हुई क्योंकि अब हमें फेल होने की आदत पड़ चुकी थी। जब हमने दोस्तों का फोन नहीं उठाया, तो वे कमरे में आ पहुंचे- "अरे ! तू तो एक हफ्ते से कालेज ही नहीं आया। कहाँ था तू ? और वो संजना से बात हुई...।"
मुझे क्रोध आ गया- "चुप रहो यार। नाम भी मत लो उसका। भाई के सर से उतर गया इश्कबाजी का भूत...अब और कुछ नहीं। मन लगाकर पढ़ाई करेंगे। बस...।"
इश्कबाजी के खेल में तीसरी बार बोल्ड होने के बाद हमने इस खेल की तरफ ध्यान देना ही छोड़ दिया और मन लगाकर पढ़ाई करने लगे, जिसका परिणाम यह हुआ कि हम बी.ए. और एम.ए. प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए। इधर हमने बी.एड. की प्रवेश परीक्षा भी पास कर ली और अब हम बी.एड. के छात्र थे। यहाँ एक बार फिर हमारे भटकाव का दौर शुरू हुआ। इस बार हमें हर हाल में मुहब्बत के इक्जाम में पास होना था। इसलिए इस बार हमने प्रेम के कुछ मानक तय किये। पहला, लड़की अपनी ही जाति की होनी चाहिए क्योंकि गैर जाति की लड़की से हुआ प्रेम, विवाह की परिणति तक पहुँच पायेगा, कहना मुश्किल था। दूसरा, लड़की सुंदर, सुशील और संस्कारी होनी चाहिए। इसमें भी ज्यादा गोरी-चिट्ठी के बजाय सांवली लड़की को मैंने प्राथमिकता में रखा क्योंकि सुंदर लड़कियों के भटकने के चांस ज्यादा रहते हैं। तीसरा, लड़की सरल और गंभीर मिजाज की होनी चाहिए। वह अत्यधिक माडर्न नहीं होनी चाहिए। थोड़ा-बहुत चलेगी क्योंकि अत्यधिक आधुनिकता व्यक्तित्व का नाश कर देती है। चौथा, लड़की समझदार और प्रतिभाशाली होनी चाहिए। पांचवाँ, लड़की साहसी और उन्नत विचारों की होनी चाहिए।
अपने इन पंच-सूत्रीय मानकों पर कक्षा की एक ही लड़की खरी उतरी। नाम था उसका अंजलि, लेकिन समस्या यह थी कि कैसे उससे दिल की बात कही जाय। अंजलि के खयालों में रहते-रहते व सपने सजाते-सजाते आठ महीने बीत गये। आखिर एक दिन हिम्मत करके मैंने उससे मन की बात बोल डाली- "अंजलि, मैं तुम्हें चाहने लगा हूँ। तुम्हारे साथ जीवन के अनमोल क्षण गुजारना चाहता हूँ।" अंजलि ने सहजता से कहा- "मैं खुद को भाग्यशाली समझती हूँ, लेकिन...।"
पहला वाक्य सुनते ही मेरे दिल की बत्ती जल उठी थी, परंतु लेकिन...सुनते ही वह दुबारा बुझ गई- "लेकिन क्या....?"
"लेकिन मेरी सगाई हो चुकी है।" अंजलि के इतना कहते ही दिल में एक जोरदार झटका-सा लगा। ऐसा लगा जैसे दिल बेचारा टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया हो।
मुहब्बत के चौथे इक्जाम में भी हम बुरी तरह से फेल हो चुके थे। इस घटना के बाद तो हमने बजरंग बली को साक्षी मानकर करार कर लिया कि अब हम भूलकर भी किसी लड़की के सामने प्रणय-प्रस्ताव नहीं रखेंगे। वो बात अलग है कि कोई लड़की हमारे सामने प्रस्ताव रखे, तब मूड बना तो स्वीकार कर लेंगे। नहीं तो बाबाजी का ठुल्लू !!