"म्याऊँ... म्याऊँ.... बिल्लो रानी कहो तो अभी जान दे दूं...."- डब्बू बिल्ला पूसी बिल्ली को मनाने के लिए यह गीत गा रहा था, लेकिन पूसी पर गीत का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। तब डब्बू बिल्ले ने गीत के कुछ शब्दों में परिवर्तन करके यह गीत सुनाया-
"बिल्लो रानी कहो तो तुम्हें चूहा दे दूं...
मोटा-मोटा, लंबा-चौड़ा तुम्हें चूहा दे दूं...
ओ बिल्लो रानी कहो तो तुम्हें चूहा दे दूं....।"
पूसी पर इस गीत का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। वह हंसते-हंसते मिट्टी में लोटपोट हो गई- "हा हा हा... चुप मोटे ! यह भी कोई गीत हुआ ?"
"क्या हुआ फिर ? तू बता.. ?"- बिल्ले ने पूंछ हिलाते हुए कहा।
" इसे गीत नहीं कहते हैं। गीत मैं सुनाती हूँ तुझे अभी"- ऐसा कहकर पूसी अपने पिछले दो पैरों में खड़े होकर गीत गाने लगी-
"ओ मेरे मोटे बिल्ले, तुम कितने प्यारे हो।
तुम कितने प्यारे हो बिल्ले, तुम कितने प्यारे हो।"
तब बिल्ला भी उसी की तर्ज पर गाने लगा-
"ओ मेरी लंबी पूसी, तुम कितनी प्यारी हो।
तुम कितनी प्यारी हो पूसी, तुम कितनी प्यारी हो।"
डब्बू और पूसी गाँव के बंजर खेतों में मगन होकर गीत गाते रहे थे। उनके आगे-पीछे, दाएँ-बाएं चारों ओर से चिड़ियों की चीं-चीं, चूं-चूं की आवाज आ रही थी। खेतों के बीच में से एक हंसती-शरमाती हुई नहर चली जा रही थी। दूर से वह एक सोये हुए सांप- सी दिखाई दे रही थी। नहर के एक ओर दो बड़े-बड़े मेहल के पेड़ थे। आगे वाले पेड़ में झिमौड़ौं ( बर्र ) ने एक बड़ी-बड़ी पोली ( छत्ता ) बनाई थी।
शाम के पांच बज रहे थे। सूर्य देवता अपने घर की ओर प्रस्थान कर रहे थे। ग्रीष्म ऋतु होने के कारण अभी भी वातावरण में गर्मी बनी हुई थी, लेकिन डब्बू और पूसी के लिए तो आजकल भी बसंत आया हुआ था। डब्बू और पूसी एक-दूसरे को बहुत अच्छा मानते थे, जिस कारण वे एक-दूसरे से मिलने रोज खेतों में पहुँच जाते थे। इन दोनों की प्रेम कहानी रिक्शे की तरह धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी।
डब्बू बिल्ले और पूसी की प्रेम कहानी की शुरुआत कैसे हुई, इस सवाल के जवाब में एक रोचक कथा छिपी हुई है। सावन का महीना था। झमाझम बारिश हो रही थी। डब्बू अपने घर की खिड़की से बाहर का दृश्य देख रहा था। अचानक उसने किसी के रोने की आवाज सुनी। आवाज उसके सामने वाले मकान से आ रही थी। वह मकान राजू बिल्ले का था। राजू गरीब बिल्ला था और वह मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पाल रहा था। परिवार में उसके पत्नी जूसी सहित एक लड़का पंकू और एक लड़की पूसी थी।
डब्बू अपने कमरे से बाहर आया और दौड़कर राजू के घर जा पहुंचा। वहाँ उसने देखा कि पूसी ने रो-रोकर पूरा घर सिर पर उठा रखा है। उसके पैर से खून टपक रहा था और उसके माता-पिता उसके पैर पर कपड़ा बांध रहे थे। डब्बू को देखकर राजू ने कहा- "बेटा, इसे अस्पताल ले जाने के लिए हमारे पास न तो गाड़ी है और न ही छाता। जेब में फूटी कौड़ी तक नहीं है। हमारा तो भगवान ही मालिक है।"
डब्बू को दया आ गई। उसने कहा- "अंकल, चिंता मत करो। पूसी को मैं अपने स्कूटर में बिठाकर अस्पताल ले जाऊंगा और इसका इलाज कराऊंगा।" ऐसा कहकर वह सीधे अपने घर जाकर स्कूटर लाया और उसमें पूसी को बिठाकर अस्पताल ले गया। पूसी के इलाज का सारा खर्चा उसी ने उठाया। तब से पूसी और डब्बू के बीच में एक-दूसरे के प्रति प्रेम का अंकुर फूटा। समय के आगे बढ़ने के साथ-साथ यह अंकुर भी बढ़ता गया और अब वह फल-फूल कर पेड़ बन चुका था।
***
पिछले वर्ष गाँव में पंचायत चुनाव हुए। सामान्य शाखा के उम्मीदवार को सभापति बनाया जाना था। गाँव वालों ने तय किया कि इस बार किसी नौजवान को सभापति बनाया जाना चाहिए। डब्बू बिल्ले को चुनाव में उतार दिया गया। उसने गाँव में जगह-जगह ताबड़तोड़ भाषणबाजी की। उसके भाषणों में गजब का आकर्षण होता था। एक दिन उसने गाँव में विशाल सभा को संबोधित करते हुए कहा- "मेरे बिल्लानगर वासियों ! मेरे प्यारे भाई-बहनों ! मैं तुमसे यह नहीं कहता हूँ कि तुम मुझे भोट ( वोट ) दो। मैं यह कहता हूँ कि जिसे तुम सभापति पद के लिए योग्य मानते हो, उसे भोट देना। मित्रों ! अगर आपका डब्बू बिल्ला सभापति बनेगा, तो वह गाँव का खूब विकास करेगा। यह मेरा आपसे वादा है।
आपके खाने के लिए तमाम नये किस्म के चूहों की व्यवस्था की जायेगी। अमेरिका, चीन, जापान, इंग्लैंड सब देशों से सफेद, लाल, हरे सब रंगों के रंग- बिरंगे चूहे मंगाये जायेंगे। उनको खाने में आपको खूब मजा आयेगा। आपके पीने के लिए गाँव में उत्तम क्वालिटी के दूध की व्यवस्था भी की जायेगी। इसके लिए गाँव में एक विशालकाय डेरी प्लांट भी तैयार किया जायेगा, जहाँ सभी प्रकार के जानवरों का दूध मिलेगा। इस डेरी प्लांट में सिंधी, हरयाणवी, जर्सी जैसी उत्तम नस्ल की गायों का दूध मिलेगा। इसके अलावा मुर्रा भैंस और जमुनापारी बकरी का दूध भी इस प्लांट में मिलेगा। आप लोग बहुत कम कीमत में इस प्लांट से दूध घर ले जा सकते हैं और छककर पी सकते हैं।
भाइयों-बहनों ! बुजुर्गों ! मैं आप लोगों की समस्या समझता हूँ। भाई-बहनों ! ये जो मनुष्य जाति के जानवर हैं, हमको बहुत कम दूध देते हैं। एक छोटे-से कटोरे में दो चम्मच दूध फैंक देते हैं, जैसे हम कोई भिखारी हों। मैं आप लोगों को बता देना चाहता हूँ कि हम भिखारी नहीं हैं। हमारा भी स्वाभिमान है। हम इनका काम आसान बनाते हैं। इन्हें मदद करते हैं। इनके घर के चूहों को मारते हैं। इनके घर के अनाज को सुरक्षित रखते हैं, लेकिन ये मनुष्य जाति के लोग हमारा शोषण करते हैं। हमको हमारी डाइट से बहुत कम दूध देते हैं। इनके बच्चे भी हमें बहुत परेशान करते हैं। जब हम गाँव में भ्रमण पर जाते हैं, तब इनके बच्चे हमें पत्थर मारते हैं। मनुष्य जाति के अलावा श्वान जाति के लोग भी हमें बहुत सताते हैं। जहाँ-तहाँ हमारे पीछे पड़ जाते हैं। मित्रों ! अब हमको एकजुट होना पड़ेगा और अपने अधिकारों के लिए सचेत होना पड़ेगा, तभी हम अपने आप सुरक्षित रख सकते हैं और जिंदा रह सकते हैं। साथियों ! अगर आप लोग इस तरह की व्यवस्था चाहते हैं और सुरक्षित रहना चाहते हैं, तो अपने प्यारे डब्बू बिल्ले को जरूर जिताना और दूध के गिलास में बटन दबाना। मेरा चुनाव चिन्ह है-दूध का गिलास।"
इस भाषण का जनता पर गहरा प्रभाव पड़ा। पूसी तो तब से उसकी जबरदस्त प्रशंसक बन गई। वह हरिजन जाति की थी। उसका पूरा नाम था- 'पूसी आर्या।' उसने भी अपने टोले ( समूह ) में डब्बू सिंह का खूब प्रचार-प्रसार किया। गाँव में जगह-जगह पर नारे लगाये- हमारा नेता कैसा हो : डब्बू बिल्ला जैसा हो, डब्बू बिल्ला : जिंदाबाद, जिंदाबाद- जिंदाबाद : डब्बू बिल्ला जिंदाबाद !!
एक माह तक गाँव में चुनाव की जबरदस्त गहमा-गहमी रही। इस चुनावी माहौल को देखकर बिल्ला नगर गाँव के एक बड़े गायक गधाप्रसाद ने एक गीत की रचना की। यह गीत पूरे बिल्ला नगर में जबरदस्त हिट हुआ। अब सबके घरों में यही गीत बजता था-
"दूध के गिलास पर बटन दबाना है।
डब्बू बिल्ले को गांव का, सभापति बनाना है।
सबका चहेता, डब्बू बिल्ला
असली नेता, डब्बू बिल्ला
डब्बू बिल्ले के नाम का डंका बजाना है।
डब्बू बिल्ले को गांव का, सभापति बनाना है।
गाँव में यारो, प्लांट लगेगा
किसम-किसम का, दूध मिलेगा
गरीबी को अब दूर भगाना है
डब्बू बिल्ले को गांव का, सभापति बनाना है।"
***
चुनाव के दौरान डब्बू बिल्ले ने गाँव में खूब दूध बांटा, साथ ही मरे हुए चूहे भी बांटे। मतदान से कुछ दिनों पहले गाँव के बदमाश बिल्लों के बीच एक पेड़ के नीचे मीटिंग हुई-
एक बिल्ला- "चुनाव प्रचार के दौरान मनुष्य जाति के प्राणी तो सबको काले रंग का पानी पिलाते हैं।"
दूसरा बिल्ला- "अरे, पानी नहीं कहते हैं यार उसे।"
तीसरा बिल्ला- "क्या कहते हैं फिर ?"
दूसरा बिल्ले ने जवाब दिया- "शराब कहते हैं उसे शराब !"
एक बड़ा सफेद मूछों वाला बिल्ला आगे आया- "हाँ- हाँ, यह ठीक कह रहा है। शराब कहते हैं उसे शराब।"
पहला बिल्ला- "मेरा यह मानना है कि डब्बू बिल्ले को भी हमारे लिए शराब की व्यवस्था करनी चाहिए। दूध पी-पीकर हम अघा गये हैं।"
चौथे बिल्ले ने उसका समर्थन किया- "हाँ यार, ददा एकदम ठीक कह रहे हैं।"
ठीक इसी समय डब्बू बिल्ले का दल चुनाव प्रचार करता हुआ वहाँ पहुंचा। डब्बू बिल्ले ने सभी की बातें सुन ली थीं। वह उनके सामने आया और उनको समझाने लगा- " देखो साथियों ! मैं आपकी भावनाओं की कदर करता हूँ। उनको समझता हूँ। आप लोग दूध पी-पीकर अघा गये होंगे। इसीलिए इस समस्या का समाधान करने के लिए मैंने गाय-भैसों के अलावा दूसरे जानवरों के दूध की व्यवस्था करने का भी संकल्प लिया है। जहाँ तक शराब का सवाल है तो वह बहुत ही बेकार पेय पदार्थ है। उसे पीकर नशा लगता है। वह अच्छे-खासे तंदुरुस्त मनुष्य को मरीज बना देती है। आप लोग देखते नहीं हैं क्या, तमाम मनुष्य खेतों, सड़कों, नालियों में, जहाँ-तहाँ गिरे मिलते हैं। उनके मुँह से गंदी-गंदी बू आती है। परसों एक दिन में शहर गया था। वहाँ मैंने देखा कि एक मनुष्य गटर में गिरा हुआ था और मुंह से अनाप-शनाप बोल रहा था। शहर तो छोड़ो, हमारे गाँव में ही देख लो। पिछले साल एक मासाब पहाड़ी से नीचे गिर पड़े, जिस कारण उनकी मौत हो गई। पोस्टमार्टम के बाद पता चला कि उन्होंने बहुत ज्यादा शराब पी थी। दोस्तों, शराब पीने से गुर्दे खराब हो जाते हैं। मनुष्य किसी काम का नहीं रहता। शराबी व्यक्ति को यमराज जल्दी अपने घर बुला लेते हैं।"
एक बिल्ला बीच में ही सवाल पूछता है- "शराब इतनी ही खराब चीज है तो मनुष्य जाति के लोग इसे क्यों पीते हैं ?" डब्बू बिल्ला उसे समझाते हुए कहता है- "जो मूर्ख मनुष्य हैं, वही शराब पीते हैं। जो समझदार मनुष्य हैं, वो शराब नहीं पीते। शराबी मनुष्यों का घर-परिवार सब बरबाद हो जाता है। जो शराब नहीं पीते हैं, उनके घर में खुशहाली रहती है। वैसे भी शराब कोई पौष्टिक और ताकतवर चीज नहीं है। ताकतवर और पौष्टिक चीज तो दूध है। हम दूध पीते हैं, तभी हम मोटे-तगड़े चूहों को मारते हैं। दूध से हमें ताकत मिलती है। दूध में प्रोटीन-विटामिन सब होते हैं। अगर हम दूध छोड़कर शराब पीना शुरू कर दें, तो हमारे भीतर बिल्कुल ताकत नहीं रहेगी और हम भी पड़े रहेंगे कहीं गाड़-गधेरों में। चूहे हमारे घरों में कब्जा कर लेंगे। हमारे भाई-बहनों को अपना गुलाम बना लेंगे। और हमें मार-मारकर भगा देंगे। तो दोस्तों ! अब आप समझ गये होंगे कि हमें शराब क्यों नहीं पीनी चाहिए ?"
सब बिल्लों ने 'हां' में सिर हिलाया और जोर-जोर से नारे लगाये- हमारा सभापति कौन बने : केवल डब्बू भाई बने, डब्बू भाई : जिंदाबाद !, जिंदाबाद- जिंदाबाद : डब्बू भाई जिंदाबाद !!
डब्बू बिल्ला मूछों में ताव देता हुआ आगे-आगे चल रहा था।
***
सारे गाँव में डब्बू की तूती बोल रही थी। जब चुनाव के परिणाम आये तो डब्बू बंपर वोटों से जीता। उसके विपक्षी जग्गू बिल्ले की तीन सौ पचपन वोटों से हार हुई। तब से डब्बू बिल्ले की धाक सारे गाँव में और बढ़ गई। जब पूसी को पता चला कि डब्बू तीन सौ पचपन वोटों से जीत गया है, तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। जीत का जश्न मनाने के लिए बिल्ले ने सभी गाँव वालों को इकट्ठा किया और उस रात मनुष्यों के गोदाम में छककर चूहों की दावत उड़ाई। गोदाम में दावत उड़ाने के बाद डब्बू बिल्ला पूसी को खेतों में ले गया। खेतों में चूहों ने खूब आतंक मचाया था। डब्बू और पूसी चुपचाप एक बिल के सामने छिप गये। जैसे ही एक मोटा-तगड़ा चूहा बाहर आया डब्बू ने आव देखा न ताव तुरंत छलांग मारकर चूहे की गर्दन पकड़ ली। चूहा चूं-चूं करने लगा। डब्बू ने सोचा कि अब तो वह पकड़ा गया। इसीलिए वह खुशी-खुशी चूहे को पूसी के पास ले गया, लेकिन अचानक चूहा उसकी पकड़ से भागने लगा। ठीक उसी समय पूसी ने एक पंजा मारा और चूहा बेचारा वहीं पर ठंडा हो गया। फिर दोनों ने वहीं पर दावत उड़ाई। दावत उड़ाने के बाद दोनों ने खूब मौज-मस्ती की।
अंधेरी रात थी। आसमान में तारे शाइनिंग बल्बों की तरह चम-चम चमक रहे थे। चांद कटे हुए सेब-सा दिखाई दे रहा था। बेड़ू, टूणी, भ्योला, मेल, केला आदि तमाम वृक्ष अंधेरे के कारण खड़े हुए राक्षसों-से दिखाई दे रहे थे। रात्रि के बारह बज चुके थे और सब सो चुके थे, लेकिन डब्बू और पूसी अपनी ही दुनिया में मगन थे। उन्होंने खेतों में खूब मस्ती की। प्रेम के गीत गाये। पूसी कह रही थी- "ओ मेरे सभापति बिल्ले, तुम कितने प्यारे हो।" डब्बू गा रहा था- "ओ सभापति की पूसी, तू कितनी प्यारी है।"
इसी तरह गीत गाते, नाचते-झूमते, खेलते-कूदते, हंसते-हंसाते दोनों ने रात बिताई। दोनों एक-दूसरे को चिढ़ाते, रूठते, मनाते, बहलाते, एक-दूसरे के लिए शायरी कहते। एक-दूसरे के लिए कविता बनाते। अंताक्षरी खेलते। एक बार हंसते-खेलते डब्बू ने पूसी से कहा- "पूसी ! तू है मेरे मन की खुशी।" पूसी भी पीछे कहाँ रहने वाली थी ! उसने भी नहले-पे-दहला मार दिया- "डब्बू ! तू है बड़ा गप्पू।" इसी तरह हंसी-मजाक करते दोनों ने रात बिताई। सुबह दोनों अपने-अपने घर की ओर चल दिए।
***
एक कहावत है कि दीवालों के भी कान होते हैं। डब्बू और पूसी की कहानी सारे गाँव में फैल गई। बिल्लों ने बात का बतंगड़ बनाकर तिल का ताड़ कर दिया। कोई कहता हमारे सभापति जी बड़े रंगीले मिजाज के हैं। कोई कहता डब्बू तो एक नंबर का रसिक आदमी है। कोई कहता हमारे सभापति जी तो चुड़ैल के चक्कर में घनचक्कर बन गये हैं और कोई कहता, डब्बू को सभापति बने दो महीने नहीं हुए हैं और पंख अभी से लग गये हैं। उड़ते-उड़ते खबर डब्बू के पिताजी तक पहुंची। खबर सुनकर उनके क्रोध की सीमा न रही।
उन्होंने जोर-जोर से डब्बू को आवाज लगाई- "डबुवा ! अरे ओ रे डबुवा ! कहाँ मर गया रे साले ! क्या सुन रहा हूँ मैं ? सच है यह बात ?"
डब्बू दौड़ता हुआ आया- "कौन-सी बात पिताजी ?"
"यही कि पूसी के साथ तेरा चक्कर चल रहा है। बहुत मजे में आ रहे हो तुम दोनों।" डब्बू के पिताजी ने गुस्सा जताते हुए कहा।
"अरे पिताजी, आप भी.... यह भी कोई बात हुई ?" डब्बू ने कहा।
"साले ठाकुर होकर हरिजन के साथ चक्कर चला रहा है ! बड़ी बात नहीं हुई तो क्या हुई ?" डब्बू के पिता ने नाराजगी व्यक्त की।
"अरे पिताजी, आज के जमाने में हरिजन-ठाकुर कुछ नहीं चलता है। सब एक ही हैं।"
"चुप र यार तू ! ठाकुर के खानदान को बदनाम करने में लगा हुआ है। जात-बिरादरी का कुछ तो खयाल रख। खालि क्यों पड़ा है उसके पीछे ?"
"पिताजी, आज के जमाने में शादी करने के लिए लड़की देखते हैं, बाकी कुछ नहीं। लड़की अच्छी और समझदार होनी चाहिए। देखने में गोरी-चिट्ठी न हो चलेगा, लेकिन समझदार जरूर होनी चाहिए।"
"चुप साले ! यह फिल्मी डायलॉग अपने पास ही रख। मुझे मत सिखा। थोड़ा-बहुत दहेज नहीं मिला तो शादी करने का क्या फायदा ? खाली बिरादरी में काला मुंह दिखाना पड़ेगा।"
"पिताजी, बिरादरी-सरादरी कुछ नहीं। दहेज-वहेज कुछ नहीं। सब मैं देख लूंगा। मुझे पूसी अच्छी लगती है, बस।"
"अच्छा, बहुत बड़ा हो गया है तू अब। अपने पिताजी को भी कुछ नहीं समझता !"
"ऐसी बात नहीं है, लेकिन मैं पूसी को अच्छा मानता हूँ। उसी के साथ शादी करूंगा। बस !" ऐसा कहकर डब्बू कमरे से बाहर चला आया।
***
शाम के चार बज रहे थे। गाँव में पीपल के पेड़ की छांव में पंचायत हो रही थी। दरअसल अपने पिताजी से पंगा लेना डब्बू बिल्ले को बहुत महंगा पड़ा। नाराज होकर डब्बू बिल्ले के पिताजी ने पंचायत बुलाई थी, जिसमें गाँव के बड़े-बुजुर्गों को बुलाया गया था। ठीक सवा चार बजे पंचायत शुरू हुई। डब्बू बिल्ले के पिताजी ने पंचों के सामने अपनी बात रखी- "पंचों ! मेरा बेटा हाल में ही सभापति बना है, लेकिन राजू की बेटी के चक्कर में उसका दिमाग फिर गया है। फिर क्या गया है, इस हरामखोर की आवारा बेटी ने पता नी मेरे बेटे के ऊपर क्या मंतर फूंक दिया है। इंद्रजाल, वशीकरण, जादू-टोना पता नहीं क्या-क्या जानती है इसकी बेटी। इसकी बेटी ने तो सारे गाँव का माहौल खराब कर दिया है। मेरा बेटा ही नहीं बल्कि गाँव के और लड़के भी इसकी बेटी के पीछे पागल होकर फिर रहे हैं।"
राजू बिल्ला जो अभी तक चुपचाप अपने परिवार के साथ पीछे बैठा हुआ था, खड़ा होकर बोला- "पंचों ! भुप्पू दा मेरी बेटी पर जो आरोप लगा रहे हैं, वे सरासर झूठे हैं। पिरमू दा नमक-मिर्च लगाकर अपनी बात रख रहे हैं।"
पिरमू दा ( डब्बू के पिता )- "इसी को कहते हैं छोटी जात, करे उत्पात। चुप रह साले ! तेरी बेटी जो क्या है वह, एक नंबर की जुगाड़ है जुगाड़ ! मित्रों, इस राण के किस्से बताऊंगा तो तुम सब चकित हो जाओगे। मित्रों, इसकी बेटी पिछले साल जग्गू बिल्ले के साथ किसा-किसी करते हुए पकड़ी गई थी। पिछले साल की बात छोड़ो, दो महीने पहले ही इसकी बेटी को मैंने गुड्डू सिंह के गाज्यौ के लुटे ( एकत्रित घास रखने का स्थान ) के भीतर तीन-चार बिल्लों के साथ रंगरलियां मनाते देखा। मित्रों ! इसकी बेटी ने पूरे गाँव का माहौल खराब करके रख दिया है। इसीलिए इसकी बेटी का मुंह काला करके पूरे गाँव से बेदखल कर देना चाहिए।"
पिरमू बिल्ले की बात सुनकर सरपंच भीम बिल्ला खड़ा हो जाता है और मुंह में डाला हुआ रजनीगंधा पान पिच्च करके थूकते हुए कहता है- "कूल डाउन-कूल डाउन, पिरमू सैप....कूल डाउन। आपका बेटा डब्बू कोई मामूली बिल्ला नहीं है। वह गाँव का सभापति है। जहाँ तक राजू बिल्ले की बेटी का सवाल है मेरा यह मानना है कि वह बिगड़ैल नहीं है। वह आपके बेटे को अच्छा मानती है, लेकिन उसका यह अच्छा मानना ठीक नहीं है। उसको अपनी जाति के बिल्ले के साथ आंखें चार करनी चाहिए। अगर वह ऐसा नहीं कर रही है, तो मामला जरूर गड़बड़ है। मुझे लगता है कि राजू की बेटी को छुई नदी का छल लगा है। ( पंचों की ओर देखकर ) कैसा पंचों ! मैं ठीक कह रहा हूँ या नहीं ?"
सब पंच एक साथ खड़े होकर सरपंच की बात का समर्थन करते हैं- "हाँ-हाँ... पूसी को छल लगा है।"
एक बुजुर्ग बिल्ली पीछे से खड़ी होकर कहती है- "हाँ पंचों ! उसे मैंने परसों छुई नदी में उछलकूद करते देखा। उसे पक्का मशाण ( एक भूत का नाम ) लगा होगा।"
सरपंच जी रजनीगंधा पान दुबारा थूकते हुए कहते हैं- "हाँ, काखी ( चाची ) तू सच कह रही है। ( पंचों की ओर देखकर ) तो पंचों ! हमारा यह निर्णय है कि पूसी का छल उतारा जाय और इसके लिए चार चूहों की बलि ली जाए। कल सुबह छुई नदी में मशाण पूजा कराई जाय। मशाण को चार चूहे खिलाने के साथ साथ पंचों के लिए भी एक-एक चूहे की व्यवस्था की जाए। इन सबकी व्यवस्था करने की जिम्मेदारी राजू बिल्ले के परिवार के ऊपर रहेगी। तो गाँव वालो पंचों का यही फैसला है।"
सब पंच कहते हैं- "समर्थन है। समर्थन है।"
गाँव वाले नारे लगाते हैं- "पंचों की जै हो ! पंच परमेसरों की जै हो !!"
***
एक कमरे के भीतर चारपाई के नीचे पूसी और डब्बू आपस में बातचीत कर रहे हैं-
"यार ये साले तो कह रहे हैं कि तुझे छल लगा है !" डब्बू बिल्ले ने पूंछ हिलाते हुए कहा।
"हाँ यार, सब एक-से-एक नौटंकीबाज हैं। नौटंकी कर रहे हैं और कुछ नहीं।"
"अपने आप करते हैं साले ! मेरे माँ-बाप तो चूहे मारने गये हैं। चल हम भी कहीं से एक-दो चूहे मार लाते हैं।छल पूजने के बहाने से पार्टी हो जायेगी।"
"हाँ यार सही कहा तूने ! बड़ा इंटेलिजेंट बिल्ला है तू मेरा..!" पूसी डब्बू को गले लगा लेती है।
थोड़ी देर बाद दोनों खेतों में उछल-कूद करते दिखते हैं। उछलकूद के दौरान पूसी को एक मोटा चूहा मिल पड़ा। उसने चूहे पर झपट्टा मारा, लेकिन चूहा चालाक था। भागकर बिल के अंदर छिप गया। पूसी ने थोड़ी देर तक उसका इंतजार किया, लेकिन वह बाहर नहीं आया। जैसे ही पूसी ने वापस जाने के लिए बिल की ओर पीठ लौटाई वैसे ही बिल के भीतर छिपे चार मोटे-मोटे चूहों ने उसकी पूंछ खींच दी। पूसी की पूरी पूंछ अब बिल के भीतर चूहों के हाथों में थी और पूसी दर्द से चिल्लाने लगी थी- "ओ इजा ( माँ ), मार दिया। ओ बबाहो ! ओ डब्बू डार्लिंग ! कहाँ हरा ( खो ) गये तुम ? मेरी प्यारी पूछड़ ( पूंछ ) को मूसों ( चूहों ) ने लूछ ( खींच ) दिया है। डब्बू डार्लिंग, जल्दी आकर मुझे बचाओ ! डार्लिंग ! तुम्हारी प्रियतमा की जान खतरे में है। आह....!"
डब्बू जो दूसरे खेत में चूहे ढूंढ रहा था, दौड़ते हुए आया- "प्रिये ! चिंता मत करो। मैं अभी बताता हूँ इन मूसों को।" ऐसा कहकर डब्बू ने अपना पंजा बिल के भीतर डाल दिया। बिल्ले के आक्रमण को देखकर चूहों ने पूसी की पूंछ छोड़ दी।
"ओह जानेमन ! तुमने तो मेरी जान ही ले ली थी।" बिल्ले ने पूंछ को सहलाते हुए कहा।
"हाँ, इतना चिल्लाती नहीं तो वे जालिम मूसे मेरी जान ही ले लेते। फिर तुम किसके साथ प्रेम की पीगें बढ़ाते ?" पूसी ने नाराज होते हुए कहा।
"आय-हाय इतने नखरे ! सुंदर लग रही हो।" बिल्ले ने एक आंख झपकाते हुए कहा।
"तू तो हर समय बस....!"
"क्या हर समय ? सच कह रहा हूँ। माल लग रही हो माल।"
"तेरी सौत होगी माल साले ! मैं तो पूसी हूँ।"
"हाँ सच कह रही हो ! डब्बू की प्यारी पूसी हुई तुम तो।" बिल्ला मुस्कुराता है।
"चुप यार, बहुत बोलता है।"
"यार मेरे दिमाग में एक आइडिया आ रहा है।" बिल्ले ने बात बदली।
"क्या ?"
"यार हमको कहीं भाग जाना चाहिए। कहाँ लगे रहें झंझटों में। गाँव वाले भी खाली हमारे कारण आपस में लड़ रहे हैं। हमारे माँ-बाप को भी परेशानी हो रही है।"
"हाँ,कह तो ठीक रहा है तू, लेकिन भागेंगे कहाँ ?" पूसी ने प्रश्न किया।
"कहीं दूर के गाँव में भाग जायेंगे।"
"तू तैयार है ?"
"हाँ।"
"तो चल फिर। देर किस बात की !"
दोनों म्याऊं-म्याऊं करते हुए, चिंता ता चिता-चिता गीत गाते हुए दौड़ लगा देते हैं।
***
आज पूसी और डब्बू को भागे हुए दो साल हो गये हैं। अब वे दूसरे गाँव में रहते हैं। उनकी जिंदगी खुशहाल है। उनके आठ बच्चे भी हैं। हालांकि उनका परिवार बड़ा है, लेकिन फिर भी वे खुशहाल हैं। वैसे एक बार डब्बू ने पूसी से कहा भी कि हमको भी आदमियों की तरह परिवार नियोजन करना चाहिए और छोटा परिवार सुखी परिवार की विचारधारा को अपनाना चाहिए, लेकिन पूसी ने बात नहीं मानी, जिसका परिणाम यह हुआ कि उनके बारह महीनों में आठ बच्चे पैदा हो गये। चार एक बार पैदा हुए और चार दूसरी बार। डब्बू बिल्ला का पड़ौसी मंकू बिल्ला कभी-कभी उसे चिढ़ाता भी था- "यार डब्बू तूने तो दोनों बार चौका मारा। इस बार जरूर छक्का मारना।"
यह सुनकर डब्बू हंसने लग जाता था और कनअंखियों से पूसी की ओर देखता था। पूसी तब 'धत्त' कहकर भीतर भाग जाती थी।
***** समाप्त *****