घर से निकलते ही एक अजीब सी जल्दीबाजी थी, पहुचने का न जाने क्यों आज वही घर मुझे रोक नही रहा जहा सालो साल गुजारे थे हमने एक पारिवारिक माहौल में जहाँ माँ थी पापा थे दो छोटे भाई बहन थे। मगर न जाने क्यों आज इनसे दूर जाने का मुझे कोई गम नही था, जी हां नही था। जानते हो क्यों क्योकि मैं जा रहा था एक अलग दुनिया में जहाँ मुझे अपने ज़िन्दगी के चार अहम साल गुजारने थे, जहाँ नये लोग होंगे, नया माहौल होगा सबकुछ नया होगा। मेरे लिए ये सफर कारगिल के युद्ध जैसा ही था मतलब की हर हाल में जीत कर आना है । बस में जैसे ही बैठे तो एक अजब सी ख़यालात दिमाग में आने लगे यार कॉलेज कैसा होगा, कैसे लोग होंगे, कितने दूर-दूर से लोग आएंगे पढ़ने, कितने विद्वान लोग होंगे अरे यार कितने बड़े बड़े घर से लोग आएंगे अच्छा उनकी अंग्रेजी तो बहुत तेज होगी मने की पूरा का पूरा अंग्रेजी में ही बात करेंगे यार हम कैसे रहेंगे उनके साथ हमको तो टेन्स तक ठीक से नही आता तो अंग्रेजी तो बहुत दूर की है । इन्ही अब सपनो को देखते देखते कब कॉलेज पहुच गये पता ही नही चला। खैर कॉलेज पहुचे हॉस्टल में आये तो देखे एक महानुभाव टांग फैलाये अंग्रेजी गाना चलाये पड़े है । हमारा तो मूड वही ऑफ सीधे भगवान के पास पहुचे का भोले नाथ रस्ते भर यही सोचते आ रहे थे कौनो अंग्रेज से पाला न पड़े और आप सीधे दर्शन करा दिये । हमारे गांव में तो वो ही अंग्रेज था जिसे अंग्रेजी ठीक से आती हो। खैर भाई साहब ने जाते ही पूछा रमेश हो ?
मैंने बोला जी हां
आपकी तारीफ माय नेम इज विशाल आई ऍम फ्रॉम डेल्ही।
मैंने भी सर हिला कर बोल दिया अच्छा पुरे ताव में मतलब की ऐसा फील हो हमारी हिंदी भी कम नही है। खैर बन्दा दिल का बड़ा अच्छा था दिन गुजरे दोस्ती गहरी होती गयी। माने की अंग्रेजी और हिंदी का मिलन हो गया था ठीक उसी तरह जिस तरह सीता बनवास के बाद राम से मिली थी । ऐसे ही दिन गुजर रहे थे । एक दिन न जाने किस बात से हमारे अजीज मित्र से बहस हो गयी वो भी इस बात पर हिंदी भाषा सबसे अच्छी है और उसके लिए अंग्रेजी सबसे अच्छी है। बहस इतना बढ़ा की देख लेने की बात तक आ गयी देख लेंगे तुम क्या कर लेते हो इस हिंदी के बलबूते गवार कही के मगर न जाने क्यों वो गवार शब्द बहुत बुरा लगा मुझे ऐसा लगा की कोई हमको नही हमारे मातृ को गाली दे रहा है मैंने भी ताव में कह दिया हमभी देख लेंगे तुम क्या कर लोगे अंग्रेज के औलाद । न जाने क्यों जितना वक़्त गुजर रहा था मैं उतना ही हिंदी के करीब जा रहा था । एक अलग सी चाहत बढ़ती जा रही थी हिंदी से फेसबुक ,ट्विटर हर जगह हिंदी के पेज लाइक किये जा रहा था । इसी बीच फेसबुक के ही एक पेज से प्रेरणा मिली यार मुझे भी कुछ लिखना चाहिए कब तक दुसरो की कहानियां पढ़ता रहूंगा । इसीबीच फेसबुक पर लिखते-लिखते कब लोगो को हमारी लेखनी इतनी पसन्द आने लगी पता ही नही चला। फॉलोवर तो दिन ब दिन बढ़ते जा रहे थे। लोगो ने एक बुक छपवाने की बात तक कह डाली उसी में से एक फॉलोवर ने हमारी बुक पब्लिश करवाने की जिम्मेदारी ले ली कुछ दिन बाद बुक भी आ गयी । लोगो ने खूब प्यार दिया। एकदिन मैंने अपने फेसबुक पेज के नोटिफिकेशन में देखा विशाल हैज बीन कमेंटेड आन योर पोस्ट मुझे लगा ये नाम तो जाना पहचाना लगता है मैंने कमेंट देखा "भाई अच्छा लिखते हो" मैंने उसकी प्रोफाइल ओपन करके देखी ।यार ये तो वही विशाल है। मेरा कॉलेज टाइम वाला रूम पार्टनर अरे वही अंग्रेज की औलाद। नीचे लिखा था एम्पलोयी ऐट क्स वाई जेड कंपनी। मैंने उसको मैसेज किया कैसे हो मित्र ? उसका रिप्लाई आया बस भाई कट रही है । न जाने ये पहला शब्द सुन कर मुझे एक अजीब सी ख़ुशी हुई,ऐसा लगा आज जाकर "मेरी हिंदी" जीत हुई । आज मेरी हिंदी वाकई में जीत गयी थी। मैं खुश था अपने काम से चार पैसे कम कमाता था उससे पर उतने में मैं खुश था। आज जाकर लगा हिंदी ने मुझे कितना कुछ दिया ।