उन्नीस सौ साठ के दशक से या यूं कहें कि उत्तर-आधुनिकता के आगमन से विश्व के सामाजिक,राजनितिक चिंतन और व्यवहार में कुछ नए आयाम जुड़े है। परंपरा और आधुनिकता के संघर्ष से मानव समाज के सामाजिक जीवन एवं व्यवहार में बदलाव होता जा रहा है। सामाजिक व्यवहार तथा मूल्यों में हो रहे बदलाव अच्छे भी है और नहीं भी । इसका निर्णय जितना अच्छा भविष्य देगा उतना वर्तमान नहीं।
इस बदलते हुए समय का सबसे ज्यादा अगर किसी पर प्रभाव पढ़ा है तो वो है स्त्री। आज स्त्री पश्चिमी रंग में रंग कर उसमे ढली है परन्तु अपने दिमाग की सलाखों में वो आज भी कैद है इसलिए वह सहज और शांत नहीं वो अपनी स्वतंत्रता को अपना आत्मविश्वास नहीं बना पा रही है। स्त्री - सशक्तिकरण नारे सिर्फ जुमले बन हवा में तैर रहे है और वो प्रश्न अनुत्तरिण है कि स्त्री समाज के लिए क्या है?और समाज उसे कैसे देखता है?
क्या स्त्री -पुरुष समान है ? या समाज स्त्री को द्धितीयक मानता है या आज भी गुलाम या दासी मानता है। क्या समाज स्त्री को लेकर आज भी कुंठित है ?
ये यक्ष प्रश्न है इन सवालों के उत्तर के साथ ही समाज में मनुष्यता स्थापित हो जाएगी । इसलिए ये जरुरी है कि समाज इन सवालों को हल करे और स्त्री पुरुष संतुलन को कायम करे।
स्त्री सृजनकर्ता रही है । हमेशा से उसने जीवन को रचा है उसे सवारा है। सभ्यता का मानवीय विकास स्त्री की ही देन है । उसने गुलामी और प्रताड़ना से हमेशा समाज को मुक्त कराया है, उसने मानव जीवन का रूपांतरण कर समाज को सभ्य बनाया है।(सम्राट अशोक कलिंग युद्ध और गोप)।
आज बदलते हुए समय में सारे समाज की जिम्मेदारी बदल रही है इस बदलते समाज में स्त्री की जो सबसे बड़ी जिम्मेदारी है वो है उसका अपने प्रति जिम्मेदार होना ऐसा जिम्मेदार होना जिसमे भ्रम न हो ।
उसे संतुष्टिकारण का शिकार नहीं होना है उसे अपने दोषों और कमजोरियों पर भी नजर रखनी होगी और अपना आंकलन खुद ही करना होगा। उसे खबरदार भी रहना होगा कि वो प्रोडक्ट की तरह इस्तेमाल तो नहीं हो रही है।
समाज में अपने स्थान को बनाने के लिए अपने संघर्ष को देह-विमर्श में उसे नहीं बदलने देना है और उन स्त्रियों से भी सावधान रहना है जो देह-विमर्श के नाम पर स्त्रियों की जिन्दगी को और कठिन बना अपने को चमकाने में लगी है।
विभिन्न सम्प्रदाय,धर्म,जाति में फैले हमारे देश में स्त्रियों के संघर्ष बहुत अलग-अलग है जिनकी जड़े गहरे से गढ़ी है स्त्रियों को उन गढ़ी हुई बेशर्म जड़ो को निकाल कर अपने लिए उपयोगी बनाना है ताकि उस पर संस्कृति, मानवता, नैतिकता का पौधा लहरहा सके और स्त्री स्वतंत्रता के फल उस पर आ सके।
अगर स्त्री हमारे देश में फैली समस्याओं जाति,धर्म आदि को नजरंदाज करती है तो उनकी मुक्ति की आस बेमानी होगी।
स्त्री को अपने संघर्ष में चाहे घर हो या बाहार स्वलाम्भी होना होगा उसे चाहें पारिवारिक शोषण को तोडना हो या आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना हो दोनों ही सूरत में परिवार में पारिवारिक लोकतंत्र व कार्य स्थल में अपने हुनर का इस्तेमाल करना होगा न कि स्त्री होने का इस्तेमाल।
स्त्री का सवतंत्रता के संघर्ष को लक्ष्य उसके चरित्र की द्धढता से मिलेगा और हर न्याय तभी मिलेगा। वो खुद भी अपने साथ तभी न्याय कर पाएगी जब वो अपने स्त्री होने को पीछे कर मनुष्य होने के बोध को जगाएगी।
अन्तत: इस संकटग्रस्त मानवीय संबंधो के समय जब की रिश्ते पल-पल बदल रहे है लोग भ्रमित है उलझे है परेशान हो मशीन बन भाव और संवेदना खो रहे है विगत की भूल ने रिश्तो की नीव कमजोर की है ऐसी दशा में स्त्रियों को मानवीय संबंधो को पुन:स्थापित करने में अहम् भूमिका निभानी होगी उसे अपनी अंतरात्मा की कसौठी पर खुद अपने को पुरुष को और उन बच्चों को कसना होगा जो कल पुरुष बन स्त्री-पुरुष के संबंधो को जीयेंगे।लेकिन जीवन मुल्य को चलने के लिए गति को लय में चलन ही होगा पुरुष गति है शिव है और स्त्री लय है शक्ति है शिव बिना गति के शव है और स्त्री बिना लय के शक्तिहीन अर्धनारीश्वर के रूप में पुरुष समानताओं और विपरीतताओं से परे स्रष्टि को गति और लय देते है तभी सुन्दर और शांत स्रष्टि की रचना हो सकती है।
ये सम्बन्ध संतुलित हो जीवन में गुणवता बनी रहे समाज में सकारात्मकता और सृजनात्मकता बनी रहे इसलिये ये जरुरी है कि स्त्री हर बार नए सिरे से खुद को और पुरुष के साथ उसके रिश्ते को परिभाषित करती रहे।
आने वाली सदी में स्त्री-पुरुष के संबंधो में उर्वरता बनी रहे और बुद्ध के दर्शन सम्यक जीवन का आधार स्त्री-पुरुष जीवन का आधार हो हम ये कामना तो कर ही सकते है।
#डॉकिरणमिश्रा