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दिमाग की सलाखों में कैद स्त्री

14 अप्रैल 2017

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उन्नीस सौ साठ के दशक से या यूं कहें कि उत्तर-आधुनिकता के आगमन से विश्व के सामाजिक,राजनितिक चिंतन और व्यवहार में कुछ नए आयाम जुड़े है। परंपरा और आधुनिकता के संघर्ष से मानव समाज के सामाजिक जीवन एवं व्यवहार में बदलाव होता जा रहा है। सामाजिक व्यवहार तथा मूल्यों में हो रहे बदलाव अच्छे भी है और नहीं भी । इसका निर्णय जितना अच्छा भविष्य देगा उतना वर्तमान नहीं। इस बदलते हुए समय का सबसे ज्यादा अगर किसी पर प्रभाव पढ़ा है तो वो है स्त्री। आज स्त्री पश्चिमी रंग में रंग कर उसमे ढली है परन्तु अपने दिमाग की सलाखों में वो आज भी कैद है इसलिए वह सहज और शांत नहीं वो अपनी स्वतंत्रता को अपना आत्मविश्वास नहीं बना पा रही है। स्त्री - सशक्तिकरण नारे सिर्फ जुमले बन हवा में तैर रहे है और वो प्रश्न अनुत्तरिण है कि स्त्री समाज के लिए क्या है?और समाज उसे कैसे देखता है? क्या स्त्री -पुरुष समान है ? या समाज स्त्री को द्धितीयक मानता है या आज भी गुलाम या दासी मानता है। क्या समाज स्त्री को लेकर आज भी कुंठित है ? ये यक्ष प्रश्न है इन सवालों के उत्तर के साथ ही समाज में मनुष्यता स्थापित हो जाएगी । इसलिए ये जरुरी है कि समाज इन सवालों को हल करे और स्त्री पुरुष संतुलन को कायम करे। स्त्री सृजनकर्ता रही है । हमेशा से उसने जीवन को रचा है उसे सवारा है। सभ्यता का मानवीय विकास स्त्री की ही देन है । उसने गुलामी और प्रताड़ना से हमेशा समाज को मुक्त कराया है, उसने मानव जीवन का रूपांतरण कर समाज को सभ्य बनाया है।(सम्राट अशोक कलिंग युद्ध और गोप)। आज बदलते हुए समय में सारे समाज की जिम्मेदारी बदल रही है इस बदलते समाज में स्त्री की जो सबसे बड़ी जिम्मेदारी है वो है उसका अपने प्रति जिम्मेदार होना ऐसा जिम्मेदार होना जिसमे भ्रम न हो । उसे संतुष्टिकारण का शिकार नहीं होना है उसे अपने दोषों और कमजोरियों पर भी नजर रखनी होगी और अपना आंकलन खुद ही करना होगा। उसे खबरदार भी रहना होगा कि वो प्रोडक्ट की तरह इस्तेमाल तो नहीं हो रही है। समाज में अपने स्थान को बनाने के लिए अपने संघर्ष को देह-विमर्श में उसे नहीं बदलने देना है और उन स्त्रियों से भी सावधान रहना है जो देह-विमर्श के नाम पर स्त्रियों की जिन्दगी को और कठिन बना अपने को चमकाने में लगी है। विभिन्न सम्प्रदाय,धर्म,जाति में फैले हमारे देश में स्त्रियों के संघर्ष बहुत अलग-अलग है जिनकी जड़े गहरे से गढ़ी है स्त्रियों को उन गढ़ी हुई बेशर्म जड़ो को निकाल कर अपने लिए उपयोगी बनाना है ताकि उस पर संस्कृति, मानवता, नैतिकता का पौधा लहरहा सके और स्त्री स्वतंत्रता के फल उस पर आ सके। अगर स्त्री हमारे देश में फैली समस्याओं जाति,धर्म आदि को नजरंदाज करती है तो उनकी मुक्ति की आस बेमानी होगी। स्त्री को अपने संघर्ष में चाहे घर हो या बाहार स्वलाम्भी होना होगा उसे चाहें पारिवारिक शोषण को तोडना हो या आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना हो दोनों ही सूरत में परिवार में पारिवारिक लोकतंत्र व कार्य स्थल में अपने हुनर का इस्तेमाल करना होगा न कि स्त्री होने का इस्तेमाल। स्त्री का सवतंत्रता के संघर्ष को लक्ष्य उसके चरित्र की द्धढता से मिलेगा और हर न्याय तभी मिलेगा। वो खुद भी अपने साथ तभी न्याय कर पाएगी जब वो अपने स्त्री होने को पीछे कर मनुष्य होने के बोध को जगाएगी। अन्तत: इस संकटग्रस्त मानवीय संबंधो के समय जब की रिश्ते पल-पल बदल रहे है लोग भ्रमित है उलझे है परेशान हो मशीन बन भाव और संवेदना खो रहे है विगत की भूल ने रिश्तो की नीव कमजोर की है ऐसी दशा में स्त्रियों को मानवीय संबंधो को पुन:स्थापित करने में अहम् भूमिका निभानी होगी उसे अपनी अंतरात्मा की कसौठी पर खुद अपने को पुरुष को और उन बच्चों को कसना होगा जो कल पुरुष बन स्त्री-पुरुष के संबंधो को जीयेंगे।लेकिन जीवन मुल्य को चलने के लिए गति को लय में चलन ही होगा पुरुष गति है शिव है और स्त्री लय है शक्ति है शिव बिना गति के शव है और स्त्री बिना लय के शक्तिहीन अर्धनारीश्वर के रूप में पुरुष समानताओं और विपरीतताओं से परे स्रष्टि को गति और लय देते है तभी सुन्दर और शांत स्रष्टि की रचना हो सकती है। ये सम्बन्ध संतुलित हो जीवन में गुणवता बनी रहे समाज में सकारात्मकता और सृजनात्मकता बनी रहे इसलिये ये जरुरी है कि स्त्री हर बार नए सिरे से खुद को और पुरुष के साथ उसके रिश्ते को परिभाषित करती रहे। आने वाली सदी में स्त्री-पुरुष के संबंधो में उर्वरता बनी रहे और बुद्ध के दर्शन सम्यक जीवन का आधार स्त्री-पुरुष जीवन का आधार हो हम ये कामना तो कर ही सकते है। #डॉकिरणमिश्रा

किरण मिश्रा की अन्य किताबें

किरण मिश्रा

किरण मिश्रा

भौतिक शास्त्र के अनुसार गति और लय किसी भी पदार्थ का आधारभूत गुण है । गति अगर स्त्री है तो लय पुरुष इसीलिए हमारे धर्म ग्रंथों ने अर्धनारीश्वर की कल्पना की गई है शक्ति(देवी) शिव की शक्ति या बल है वे उसकी स्त्रैण उर्जा है उनकी माया का कारण और प्रभाव दोनों है । लेकिन इस कारण स्त्री या देवी श्रेष्ट नहीं क्योंकि उसकी उर्जा को धारण करने वाला जो यानी पुरुष या शिव भी उर्जा समाहित कर्ता है । सच पूछो तो जगत का अर्थ ही उभयलिंगी है तभी पूर्ण है।

14 अप्रैल 2017

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आदिशक्ति

29 मार्च 2017
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संपूर्ण सृष्टि में चीजे एक दूसरे से जुडी होती है और उनमें एक विशिष्ट तालमेल होता है। विज्ञान से लेकर हमारे धर्म ग्रंथ कहते है कि ऐसे कई नियम अविरल काम करते रहते हैं। कार्य कारण को लेकर घटी घटना का सम्बन्ध मनुष्य से सीधे तौर पर न भी हो तो परोक्ष रूप से होता है चाहे वो घटना पृथ्वी पर घाटे या आकाश में।

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स्त्री प्रश्न है महज़ विचार नहीं' - स्त्री विवाह और तलाक'

13 अप्रैल 2017
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सारे दरवाजे बंद करघनघोर अँधेरे में बैठा वोनिराश हताश थादरारों से जीवन ने प्रवेश कियाखोल दी खिड़की, जीवन कीवो स्त्री थीजो रिक्त हुये में भरती रही उजालेऔर बदल गई अँधेरे के जीवाश्म मेंमेरी ये पंक्तियां स्त्री की स्थिति स्पष्ट करने के लिए काफी है । समय बहुत बदला है उसकी प्रक्रिया में बहुत बदलाव आया है ले

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दिमाग की सलाखों में कैद स्त्री

14 अप्रैल 2017
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उन्नीस सौ साठ के दशक से या यूं कहें कि उत्तर-आधुनिकता के आगमन से विश्व के सामाजिक,राजनितिक चिंतन और व्यवहार में कुछ नए आयाम जुड़े है। परंपरा और आधुनिकता के संघर्ष से मानव समाज के सामाजिक जीवन एवं व्यवहार में बदलाव होता जा रहा है। सामाजिक व्यवहार तथा मूल्यों में हो रहे बदलाव अच्छे भी है और नहीं भी । इ

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प्रेमिकाओं की गाथाएं

14 अप्रैल 2017
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शिलाओं पर नहीं उकेरी जाती प्रेमिकाओं की गाथाएंन ही लगाए जाते है उनकी वीरता के लौह स्तम्भलेकिन वो करती है बलिदान खुद कोअनगिनत सपने ,स्वार्थ और प्रेमियों के आमोद प्रमोद के लिए,बिसार दी गई प्रेमिकाएं होती हैक्वांटम लीप सिद्धांत की तरहजो बिना दूरी तय किये पहुंचाती है प्रेमी तकदुआएं और आशीष,मंदिरों में च

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थोडा सा रूमानी हो जाय

15 अप्रैल 2017
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कभी जाड़ों का कुहरा लिपटा चंद्रोदय देखा है या नितांत रातों को बालकनी में बैठ चाय पी है ? तो फिर पतझड़ की रातों को अपने कमरे की खिड़की पर बैठ पेड़ो से झरती पत्तियां तो देखी होंगी.. नहीं।अच्छा रात के दुसरे पहर बेघर सोता फुटपाथ ,सड़क पर उड़ती धूल ,टहनियां लिपटाए सोये पेड़ तो जरुर देखें है ? नहीं, हुंह 😢थोडा

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पगडंडियों पर ठहरी जिन्दगी....

20 अप्रैल 2017
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मैंने अलसाई सी आंखे खोली है। लेटे-लेटे खिड़की से दूर पहाड़ो को देखा पेड़ो और पहाडियों की श्रंखलाओ के पीछे सूर्य निकलने लगा है, हलकी - हलकी बारिश हो रही है, चिड़िया गा रही है कुछ धुंध भी है जो पहाड़ो से रास्ता बना कर होटल की खिड़की से मेरे कमरे मैं आ रही है ।पहाड़ो मैं मेरा बचपन बीता है फिर आज नय

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कातिल वसंत

24 अप्रैल 2017
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संस्मरणहर काबिल हर कातिल तक अपनी महक अपना हरापन फैलाते वसंत स्वागत है तुम्हारा....कैसा वसंत कौन सा वसंत ?मधुमास लिखी धरती पर देख रही हूँ एक कवि बो रहा है सपनों के बीज । किसके सपने है महाकवि मैं पूछती हूं और ग्रीक देवता नहीं अपोलो नहीं.. बोल पड़ा चतुरी चमार । ये कैसा मेल महाप्राण ? कोई मेल नहीं कोई सम

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अहसासों की बारिश

30 जून 2017
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स्फटिक की छत कुछ देर पहले की बारिश से धुल कर किसी नायिका की हीरे की लौंग सी चमक रही है । छत के कोने पर रातरानी की डाल जैसे चूमना चाहती है उन सफेद लिहाफ को जो आधे खुले पडे है। अभी अभी हवा के हल्के झोके से लिहाफ का आंचल रातरानी ने भर दिया है। ऊपर अंबर में बड़े से बादलो के समूह से एक छोटी बदली अभी अभी अ

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टूटती घटाएं- उमड़ती यादें

5 जुलाई 2017
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🍃कभी किसी रोजबारिश की शाम में भींगकर आकाश का अंधेराभारी हो रहा होगातब तुम लिख रहे होंगेकोई प्रेम कविताउसी खिड़की के पासजहां तेज बारिश में आ ही जाती थी फुहार,उस फुहार से भींगतीतुम्हारी पीठ पर गीली होकमीज कैसे तो चिपक जाती थीतुम्हारे बाल हवा के झोंके से अस्त व्यस्त हो करमाथे को छूने लगते थेबालों को मा

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बहकता मौसम या मन

12 जुलाई 2017
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हवाएँ बदली-बदली हैं ये मौसम बहका-बहका है ।मैंने सिर्फ़ मुहब्बत की तो फिर ये जादू कैसा है ।।नज़्मों के बादल घिरे थे कुछ ग़ज़लें भी बरसी थीं,मेरी कच्ची धरती से उठी भाप में चन्दन महका है ।उस रात चाँद से तुमने क्या कह दिया बता देना,आजकल मुझसे जाने क्यूँ वो उखड़ा-उखड़ा रहता है । तुम्हे जब याद करती हूँ तो

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अनाहत की गूंज

14 अगस्त 2017
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नृत करती आकाशगंगाएग्रह नक्षत्र तारे,नाद करता आकाशइनके बीच जो काला घना अंधकार हैवो तुम हो युग्म कृष्णतुम्ही तो होएक अनाहत की गूंजतुम्हारी बंसीगति और आवृति भी हैजो जोडती हम मानव कोएक लय और ताल मेंअरे पारिजातसारयात अश्वान इति सारधि :हमारे जीवन संचालकतुम ही हो हमारे प्रारंभ और अंतओ युग्महमें काल के प्रव

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प्याली में तुफान

12 दिसम्बर 2017
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मानव समाज जब ताम्रयुग में पहुंचता हैसंस्कृति जब ग्रामीण पृष्ठभूमि पर खडीचरखे से बनाती है सभ्यताओं के विकास के धागेजिन का छोर पकड़प्राचीन जगत की नदीघाटी सभ्यताएंनगरों की स्थापना के लिएकरती है प्रसव लिपियों कातब ग्राम और नगर के बीचएक स्वर धीरे धीरे पनपता हैजो व्यंजन में बदलबॉस्टन हार्बर मेंकरता है विरो

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