संस्मरण
हर काबिल हर कातिल तक अपनी महक अपना हरापन फैलाते वसंत स्वागत है तुम्हारा....कैसा वसंत कौन सा वसंत ?
मधुमास लिखी धरती पर देख रही हूँ एक कवि बो रहा है सपनों के बीज । किसके सपने है महाकवि मैं पूछती हूं और ग्रीक देवता नहीं अपोलो नहीं.. बोल पड़ा चतुरी चमार । ये कैसा मेल महाप्राण ? कोई मेल नहीं कोई समानता नहीं लेकिन साथ-साथ जैसे पतझर के साथ वसंत।
मैं स्तब्ध !!
लाल रेखाओं से पूर्ण समस्त मानव समाज में फैले हुई रुढियों को तोड़ते नेत्र जो वसंत की दस्तक से बेखबर चला जा रहा है विवाद और विकास के द्वंद्व में घिरे कालखंड की तरफ । क्या ये छायावाद है?
किसने भेजा है उसे बोलो कवि यूं ही नहीं इस धरा पर में शिक्षा देने चली आई चले तो शिवमंगल सिंह सुमन जैसे कवि भी आए थे । हर कोई चला आता है तुम्हें खोजता इस धरा पर आज भी तुम्हारी पगध्वनि सुनाई देती है और सुनाई देता है मनोहरा का
श्री रामचंद कृपालु भजमन हरण भव भय दारुणं... राम अर्चन उनके कंठ से फूट रहा है और फूट रही है रुलाई मेरी कंठ से आँखे बहा ले जा रही है मेरे अहंकार को मेरी श्रेष्ठा को तभी मनोहरा देवी का स्पर्श मेरे कंधे पर होता है मुक्त हो किरण इन झूठे राग से और मैं कॉलेज प्रांगण में खड़ी उनकी प्रतिमा के आगे नत हूं।
निराला गा रहे है
छल-छल हो गए नयन, कुछ बूंद पुन: ढलके दृग जल, रुक कंठ!!
जा रही हूं महाकवि नौकरी का बोझ अब सह नहीं जाता दस साल बिताये उन क्षणों में अगर आप न होते तो कैसे समझ पाती वसंत में पतझड़ मिला होता है। कहाँ समझ पाती कविता स्त्री की सुकुमारता नहीं, कवितत्व का पुरुष गर्व है।
कहाँ उतार पाती मन का अनकहा कहाँ कर पाती कागज की धरती को धानी कहाँ समझ पाती रिश्तों को जिन्होंने कच्चे सूत से आप को भी बांध लिया था।
नमन तुम्हें मनोहरा
अब चाहे तर्कों के बुने हुए जाल
विरोध का झेलूं भाल स्नेह का नहीं मिले प्रतिदान चाहे भुला दे मुझे जीवन मनोहरा के समान फिर भी शूलों के रवि पथ पर चलती जाउंगी उनके लिए जिनके लिए वसंत पतझड़ में भेद नहीं...छिना हुआ धन, जिससे आधे नहीं वसन तन, आग तापकर पार कर रहे है गृहजीवन।
बांधो न नाव इस ठांव बंधु.
दस साल डलमऊ के पास बिताए कॉलेज में रहते हुये कुछ सुनी कुछ पढ़ी बातों पर आधारित संस्मरण।
#डॉ किरण मिश्रा