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कातिल वसंत

24 अप्रैल 2017

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संस्मरण हर काबिल हर कातिल तक अपनी महक अपना हरापन फैलाते वसंत स्वागत है तुम्हारा....कैसा वसंत कौन सा वसंत ? मधुमास लिखी धरती पर देख रही हूँ एक कवि बो रहा है सपनों के बीज । किसके सपने है महाकवि मैं पूछती हूं और ग्रीक देवता नहीं अपोलो नहीं.. बोल पड़ा चतुरी चमार । ये कैसा मेल महाप्राण ? कोई मेल नहीं कोई समानता नहीं लेकिन साथ-साथ जैसे पतझर के साथ वसंत। मैं स्तब्ध !! लाल रेखाओं से पूर्ण समस्त मानव समाज में फैले हुई रुढियों को तोड़ते नेत्र जो वसंत की दस्तक से बेखबर चला जा रहा है विवाद और विकास के द्वंद्व में घिरे कालखंड की तरफ । क्या ये छायावाद है? किसने भेजा है उसे बोलो कवि यूं ही नहीं इस धरा पर में शिक्षा देने चली आई चले तो शिवमंगल सिंह सुमन जैसे कवि भी आए थे । हर कोई चला आता है तुम्हें खोजता इस धरा पर आज भी तुम्हारी पगध्वनि सुनाई देती है और सुनाई देता है मनोहरा का श्री रामचंद कृपालु भजमन हरण भव भय दारुणं... राम अर्चन उनके कंठ से फूट रहा है और फूट रही है रुलाई मेरी कंठ से आँखे बहा ले जा रही है मेरे अहंकार को मेरी श्रेष्ठा को तभी मनोहरा देवी का स्पर्श मेरे कंधे पर होता है मुक्त हो किरण इन झूठे राग से और मैं कॉलेज प्रांगण में खड़ी उनकी प्रतिमा के आगे नत हूं। निराला गा रहे है छल-छल हो गए नयन, कुछ बूंद पुन: ढलके दृग जल, रुक कंठ!! जा रही हूं महाकवि नौकरी का बोझ अब सह नहीं जाता दस साल बिताये उन क्षणों में अगर आप न होते तो कैसे समझ पाती वसंत में पतझड़ मिला होता है। कहाँ समझ पाती कविता स्त्री की सुकुमारता नहीं, कवितत्व का पुरुष गर्व है। कहाँ उतार पाती मन का अनकहा कहाँ कर पाती कागज की धरती को धानी कहाँ समझ पाती रिश्तों को जिन्होंने कच्चे सूत से आप को भी बांध लिया था। नमन तुम्हें मनोहरा अब चाहे तर्कों के बुने हुए जाल विरोध का झेलूं भाल स्नेह का नहीं मिले प्रतिदान चाहे भुला दे मुझे जीवन मनोहरा के समान फिर भी शूलों के रवि पथ पर चलती जाउंगी उनके लिए जिनके लिए वसंत पतझड़ में भेद नहीं...छिना हुआ धन, जिससे आधे नहीं वसन तन, आग तापकर पार कर रहे है गृहजीवन। बांधो न नाव इस ठांव बंधु. दस साल डलमऊ के पास बिताए कॉलेज में रहते हुये कुछ सुनी कुछ पढ़ी बातों पर आधारित संस्मरण। #डॉ किरण मिश्रा

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आदिशक्ति

29 मार्च 2017
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संपूर्ण सृष्टि में चीजे एक दूसरे से जुडी होती है और उनमें एक विशिष्ट तालमेल होता है। विज्ञान से लेकर हमारे धर्म ग्रंथ कहते है कि ऐसे कई नियम अविरल काम करते रहते हैं। कार्य कारण को लेकर घटी घटना का सम्बन्ध मनुष्य से सीधे तौर पर न भी हो तो परोक्ष रूप से होता है चाहे वो घटना पृथ्वी पर घाटे या आकाश में।

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13 अप्रैल 2017
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सारे दरवाजे बंद करघनघोर अँधेरे में बैठा वोनिराश हताश थादरारों से जीवन ने प्रवेश कियाखोल दी खिड़की, जीवन कीवो स्त्री थीजो रिक्त हुये में भरती रही उजालेऔर बदल गई अँधेरे के जीवाश्म मेंमेरी ये पंक्तियां स्त्री की स्थिति स्पष्ट करने के लिए काफी है । समय बहुत बदला है उसकी प्रक्रिया में बहुत बदलाव आया है ले

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दिमाग की सलाखों में कैद स्त्री

14 अप्रैल 2017
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उन्नीस सौ साठ के दशक से या यूं कहें कि उत्तर-आधुनिकता के आगमन से विश्व के सामाजिक,राजनितिक चिंतन और व्यवहार में कुछ नए आयाम जुड़े है। परंपरा और आधुनिकता के संघर्ष से मानव समाज के सामाजिक जीवन एवं व्यवहार में बदलाव होता जा रहा है। सामाजिक व्यवहार तथा मूल्यों में हो रहे बदलाव अच्छे भी है और नहीं भी । इ

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प्रेमिकाओं की गाथाएं

14 अप्रैल 2017
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शिलाओं पर नहीं उकेरी जाती प्रेमिकाओं की गाथाएंन ही लगाए जाते है उनकी वीरता के लौह स्तम्भलेकिन वो करती है बलिदान खुद कोअनगिनत सपने ,स्वार्थ और प्रेमियों के आमोद प्रमोद के लिए,बिसार दी गई प्रेमिकाएं होती हैक्वांटम लीप सिद्धांत की तरहजो बिना दूरी तय किये पहुंचाती है प्रेमी तकदुआएं और आशीष,मंदिरों में च

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थोडा सा रूमानी हो जाय

15 अप्रैल 2017
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कभी जाड़ों का कुहरा लिपटा चंद्रोदय देखा है या नितांत रातों को बालकनी में बैठ चाय पी है ? तो फिर पतझड़ की रातों को अपने कमरे की खिड़की पर बैठ पेड़ो से झरती पत्तियां तो देखी होंगी.. नहीं।अच्छा रात के दुसरे पहर बेघर सोता फुटपाथ ,सड़क पर उड़ती धूल ,टहनियां लिपटाए सोये पेड़ तो जरुर देखें है ? नहीं, हुंह 😢थोडा

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पगडंडियों पर ठहरी जिन्दगी....

20 अप्रैल 2017
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मैंने अलसाई सी आंखे खोली है। लेटे-लेटे खिड़की से दूर पहाड़ो को देखा पेड़ो और पहाडियों की श्रंखलाओ के पीछे सूर्य निकलने लगा है, हलकी - हलकी बारिश हो रही है, चिड़िया गा रही है कुछ धुंध भी है जो पहाड़ो से रास्ता बना कर होटल की खिड़की से मेरे कमरे मैं आ रही है ।पहाड़ो मैं मेरा बचपन बीता है फिर आज नय

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अहसासों की बारिश

30 जून 2017
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स्फटिक की छत कुछ देर पहले की बारिश से धुल कर किसी नायिका की हीरे की लौंग सी चमक रही है । छत के कोने पर रातरानी की डाल जैसे चूमना चाहती है उन सफेद लिहाफ को जो आधे खुले पडे है। अभी अभी हवा के हल्के झोके से लिहाफ का आंचल रातरानी ने भर दिया है। ऊपर अंबर में बड़े से बादलो के समूह से एक छोटी बदली अभी अभी अ

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टूटती घटाएं- उमड़ती यादें

5 जुलाई 2017
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बहकता मौसम या मन

12 जुलाई 2017
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हवाएँ बदली-बदली हैं ये मौसम बहका-बहका है ।मैंने सिर्फ़ मुहब्बत की तो फिर ये जादू कैसा है ।।नज़्मों के बादल घिरे थे कुछ ग़ज़लें भी बरसी थीं,मेरी कच्ची धरती से उठी भाप में चन्दन महका है ।उस रात चाँद से तुमने क्या कह दिया बता देना,आजकल मुझसे जाने क्यूँ वो उखड़ा-उखड़ा रहता है । तुम्हे जब याद करती हूँ तो

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अनाहत की गूंज

14 अगस्त 2017
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प्याली में तुफान

12 दिसम्बर 2017
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मानव समाज जब ताम्रयुग में पहुंचता हैसंस्कृति जब ग्रामीण पृष्ठभूमि पर खडीचरखे से बनाती है सभ्यताओं के विकास के धागेजिन का छोर पकड़प्राचीन जगत की नदीघाटी सभ्यताएंनगरों की स्थापना के लिएकरती है प्रसव लिपियों कातब ग्राम और नगर के बीचएक स्वर धीरे धीरे पनपता हैजो व्यंजन में बदलबॉस्टन हार्बर मेंकरता है विरो

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