कुम्हला गयी नलिनी भँवर की मौन सृष्टि हो गयी है,
सर्प के बंधन में बंद्धकर मृत्यु चन्दन की हुई है,,
बोले स्वर्णिम तन्तु मुझसे है पूर्णिमा तेरे निलय में,,
है पूर्णिमा की रात तो फिर क्यों अंधेरी हो गयी है।।।
वेदना अंजुली में भरकर मैंने नमन तुमको किया है,,
सोम के सागर में घुसकर विसपान मैंने भी किया है,,
मेरी व्यथाएं चिन्ह हैं उस भावना के अद्भुत समर की,,
कण्ठ में तुमको सजोंकर मौन अपना स्वर किया है।।।--
तुम इला की प्रतिमूर्ति जैसी,,
मैं न जाने सृस्टि कैसी?
काल कलरव कर रहा है,,
बदलो की गर्जना में,,
अच्छा प्रिये चलता हूं मैं मेरा निमन्त्रण आ गया है।।
छोड तेरे बाजुओं के सप्तरंगी इस वलय को,,
स्वीकारना है अब मुझे परिवर्तनों की इस प्रलय को।।।।
कुम्हला गयी नलिनी भँवर की,,,,, -. -सर्वेश तिवारी