भूल सा चुका था मैं, न गया था मैं मुड़कर उन्हे देखने..किताबों में दबी उन सूखी सी पत्तियों को...वर्जनाओं की झूठी सी परत में दबी उन बंदिशों को,समय की धूल खा चुकी मृत ख्वाहिशों को,क्षण भर को मन में हूक उठाती अभिलाषाओं को.....वो ख़्वाब, उम्मीद, तमन्नाएँ, ताल्लुक, रिश्ते, सपने,भूल सा चुका था मैं, न गया था