भूल सा चुका था मैं, न गया था मैं मुड़कर उन्हे देखने..
किताबों में दबी उन सूखी सी पत्तियों को...
वर्जनाओं की झूठी सी परत में दबी उन बंदिशों को,
समय की धूल खा चुकी मृत ख्वाहिशों को,
क्षण भर को मन में हूक उठाती अभिलाषाओं को.....
वो ख़्वाब, उम्मीद, तमन्नाएँ, ताल्लुक, रिश्ते, सपने,
भूल सा चुका था मैं, न गया था मैं मुड़कर उन्हे देखने...
कभी सहेजकर जिसे रख दी थी यथावत मैने,
वो चंद अपूरित तिलमिलाती सी झंकृत ख्वाहिशें,
वो खुली आँखो से देखे मेरे जागृत से सपने,
वो कुछ सोई सी दिल में पलती हुई अधूरी हसरतें,
वो क्षणिक कंपित सी संकुचित हो चुकी अभिलाषाएँ,
वो ख़्वाब, उम्मीद, तमन्नाएँ, ताल्लुक, रिश्ते, सपने,
फिर न जाने क्यूँ ये मुझे देखकर लगे हैं हँसने....
भूल सा चुका था मैं, न गया था मैं मुड़कर उन्हे देखने...
सोचता हूँ मैं, शायद मै तो था ही इक मूरख,
उन अभिलाषाओं का बना ही क्यूँ मैं अनुगामी?
गर लग जाती मुझको पहले ये खबर.....कि,
ये ख़्वाब, उम्मीद, तमन्नाएँ, ताल्लुक, रिश्ते, सपने,
जान ले लेते हैं आख़िर ये सारे जीने के सहारे,
मुस्कुराते हैं ये अक्सर नयन में अश्रुबिन्दु छिपाए,
टीस देकर अंतर्मन को ये हरपल सताए,
तो, न सहेजता कभी मैं उन पत्तियो को किताबों में....
भूल सा चुका था मैं, न गया था मैं मुड़कर उन्हे देखने...