ज्ञानयोग के मार्ग में चलने पर कभी कभी हम ये भूल जाते है कि हमें प्रकृति के नियमों की केवल जानकारी है, नियंत्रण नही। जिस प्रकार एक पेंडुलम को एक ओर खींचने पर वह दूसरी ओर जरूर जाता है उसी प्रकार कर्म, सुख और दुःख को जीवन में खिंच लाता है। ज्ञान का पर्दा माया के परदे से कम नही है। ज्ञान अगर उपयोग में न लाया जाये तो उससे व्यर्थ कुछ भी नही। जब व्यक्ति किसी ऐसी परिस्थिति में आता है जिस पर उसका कोई नियंत्रण नही तब उसे एहसास होता है की वह गलत जा रहा था। ऐसे में गुरु की आवश्यकता आ पड़ती है, एक ओर उसका ज्ञान जिस पर उसे घमंड था और दूसरी ओर उसकी हालत जिस पर उसका बस नहीं, व्यक्ति झुंझला जाता है और ईश्वर पर इसका आरोप लगाता है। ईश्वर तो केवल मदद करता है, सही गलत का चुनाव आप करते है। शरीर प्रकृति के नियमो पर चलता है, पृथ्वी पर आने पर तो ईश्वर को भी इनका पालन करना पड़ता है, चाहे वो उनकी मर्ज़ी ही क्यों न हो।
२. ईश्वर ने मनुष्य को कर्म करने की स्वतंत्रता दी है । वो उसके कर्मों के फलों को ग्रहण नहीं करता। वो तो हमारी हर समय मदद ही करता है। कर्म अच्छे या बुरे दो प्रकार के होते हैं तो इनके फल भी अच्छे या बुरे दो ही प्रकार के होंगे। अब क्योंकि हम पृथ्वी पर हैं तो यहाँ हम पर प्रकृति के नियम लागू होते हैं और हमारे द्वारा किये गये कर्मों का हिसाब -किताब यहीं पर होता है और उसके हिसाब से हमारे पुण्य-पाप निर्धारित होते हैं इसलिये किये गये कर्मों के लिये मनुष्य ही ज़िम्मेदार है ,दूसरा कोई नहीं। साधारणता सभी सांसारिक दृष्टिकोण रखते हुये जीवन जीते हैं। जिसमें स्वार्थ के साथ जीवन यापन करना और अपने बच्चों का पालन पोषण करना और बस उनकी चिंता में जीवन काट देना। हमारा अगला जन्म कैसा होगा ,इस विषय पर ग़ौर ही नहीं करते, इसलिये इतने दुखों को भोगते हैं। ईश्वर और उनके न्याय को ध्यान में रखेगें तो संभवता इतनी ग़लतियाँ भी नहीं होंगीं ।अपने किये गये कर्मों के फल को यदि ईश्वर को समर्पित करदें ( अच्छा बुरा दोनों ) तो फिर कोई अपराध ही नहीं लगेगा ।
३. हमें अपने कर्मो में साक्षी भाव रखना चाहिए। पर ध्यान रखें की हमारे अच्छे एवं बुरे कर्म से जो प्रभावित होता है उसका आशीर्वाद एवं श्राप उसके पुण्यों के अनुसार हमें प्रभावित करता है। इस प्रकार कर्म चक्र आगे बढ़ता जाता है। इसलिए बुरे कर्म करने से बचना चाहिए। श्राप काटने के लिए जन्म लेना ही पड़ता है।
4. कर्म करना बहुत अच्छा है, पर वह विचारों से आता है। इसलिए अपने मस्तिष्क को उच्च विचारों और उच्चतम आदर्शों से भर लो, उन्हें रात-दिन अपने सामने रखो, उन्हीं में से महान कार्य का जन्म होगा।
५. संसार को ईश्वर ने बनाया है। उसकी व्यवस्था एवं संचालन हेतु विधि-विधान भी उन्होंने बनाया है। हर व्यक्ति सुखी रहना चाहता है। इस संसार में सुखपूर्वक रहने हेतु मानव को उन विधि विधानों की व्यवस्था को समझना अनिवार्य है। अनेक ईश्वरीय विधानों में एक महत्वपूर्ण विधान कर्मफल का सिद्धाँत है। कर्मों का फल तुरन्त नहीं मिलता इससे सदाचारी व्यक्तियों के दु:खी जीवन जीने एवं दुष्ट दुराचारी व्यक्तियों को मौज मजा करते देखा जाने पर कर्मफल के सिद्धाँत पर एकाएक विश्वास नहीं होता।
कर्मों का फल तत्काल नहीं मिलने के दो कारण है –
१. फल को परिपक्व होने में समय लगता है।
२. ईश्वर व्यक्ति के धीरज की तथा स्वभाव चरित्र की परीक्षा लेते हैं।
कर्मों का लेखा-जोखा रखने हेतु चित्रगुप्त (अन्त:करण में गुप्त चित्र) गुप्त रूप से चित्त में चित्रण करता रहता है। अन्त:चेतना या ईश चेतना की अवहेलना बड़ा पाप है। कर्म के बन्धन तथा उससे मुक्ति के उपाय-
सुख व दु:ख दोनों ही स्थिति में कोई प्रतिक्रिया न करके उस कड़ी को आगे बढ़ाने से रोकना। सुख को योग एवं दु:ख को तप की दृष्टि से देखें व उसके प्रति सृजनात्मक दृष्टि रखें। सुख के क्षण में इतराएँ नहीं। दु:ख के समय घबराएँ नहीं।
दु:ख या विपत्ति हमेशा कर्मों का फल नहीं होती बल्कि हमारी परीक्षा के लिए भी आती है। इसलिए दु:खों व प्रतिकूलताओं के समय धीरज रखें डटकर उसका मुकाबला करें। इसके बाद ईश्वरीय न्याय के अनुसार आपको अनुकूलता मिलेगी।