कैसे जताऊ मैं अपने अंतस के अभिप्राय का आशय,जब दिगंत पर का क्षयी सूरज मेरी परछाई को मेरे कल्पना से भी लम्बा कर देता है।तब मैं उस परछाई की चादर पर लेट यह सोचता हूँ कि काश तुम को बता पाता कि,मैंने अचिर अनंत व्योम से भी बृहद स्वप्न को अपने करतल के बौने बालिश्त से मापा है।हाँ यह बात इतर है कि युग को बांधने की कोशिश में काल मुट्ठी से सूखे रेत की तरह फिसलता गया।और मैं पड़ा रहा इस आस में कि तुम मिलोगी वहीं मुझे एक दिन जहाँ मैं तुम से छूटा था।