बलिदान
आखिर मालवा की प्रजा ने हालात से संतोष कर लिया। प्रजा जो निरीह लोगों का समूह मानी जाती है, अपनी निरीहता दिखाकर अपने प्राण बचाने में लगी थी। विरोध का बुरा अंजाम होता है। प्राणों के अतिरिक्त स्वाभिमान और स्वाधीनता जैसी भी कोई बातें होती हैं, इसे सब भूल गये।
पर एक कन्या जो अभी कोमार्यावस्था को छोड़ युवावस्था की दहलीज पर खड़ी थी, हार मानने को तैयार न थी। लोगों के बीच जाकर स्वाधीनता का पाठ पढाती। यह अलग बात थी कि लोग उसे देखते ही तितर बितर होने लगते। बिन बुलाये मौत को गले लगाना कोई भी नहीं चाहता है।
" अब रहने भी दे बेटी। कितना श्रम करोंगी। मुर्दों में जान नहीं डाली जा सकती।" विश्वकर्मा ने देवसेना को फटकार दिया। पर मन ही मन वह भी मालवा के भविष्य के लिये चिंतित थे। पर एकाकी कन्या का इस तरह घर घर जाकर लोगों को समझाना उन्हें पसंद नहीं था। बेटी का प्रेम कर्तव्य पर भारी पड़ रहा था।
विश्वकर्मा खुद राजपरिवार का अंग थे। कभी मालवा का ऐश्वर्य संसार में प्रसिद्ध था। सम्राट स्कंदगुप्त के राजा रहते उन्नति के शिखर पर था।
पर स्कंदगुप्त अपने मित्रों और शत्रुओं में भेद न कर सके। सौतेली माता व सौतेले भाई से विशेष प्रेम करते थे। परम सुंदरी विजया को अपना दिल दे बैठे। पर वास्तव में सभी स्कंदगुप्त के प्रतिद्वंदी थे। आखिर हूणों से हारकर स्कंदगुप्त कहीं छिप गये।
जनता पर विभिन्न अत्याचार हो रहे थे। पर प्राणों के मोह में विरोध करने बाला कोई न था। ऐसे में देवसेना का साहस वास्तव में काबिलेतारीफ था।
देवसेना एक तरफ प्रजा को जागरुक करती, दूसरी तरफ स्कंदगुप्त को तलाशती। आखिर कोई तो नायक चाहिये। मालवा का हितेषी खुद उदासीन था। पर देवसेना उसे तलाशकर जाग्रत करेगी।
आखिर पिता और बेटी दोनों निकल लिये। देवसेना नाचकर लोगों की भीड़ जुटाती। दोनों गा गाकर राष्ट्रभक्ति की अलख जगाते। पर वास्तव में उन भीड में बहुत कम ही सच समझ पाते । ज्यादातर तो युवा लड़की के नाच पर फिदा होकर आते। एक राजपरिवार की कन्या देश के लिये सब सह रही थी।
स्कंदगुप्त मिले। लंबी दाड़ी। संसार से उदासीन। ईश्वर भक्ति में लीन।
" यह कैसी भक्ति है। एक तरफ देश विदेशियों के अत्याचार से त्रस्त है। भारत माता की इज्जत दाब पर लगी है। और एक क्षत्रिय सन्यासी बना बैठा है। अरे धिक्कार है ऐसे क्षत्रियत्व को जो देश को पीड़ा में देख कर भी शांत रहे।"
स्कंदगुप्त के मन में विचारों का तूफ़ान चल रहा था। माता का धोखा, भाई का धोखा और तो और प्रेमिका से भी धोखा। फिर यह संसार केवल और केवल धोखा ही तो है।
पर मन में एक क्षत्रिय अभी जिंदा था। क्षत्रिय उस तपस्वी को ललकार रहा था।
" नही स्कंद। यह तेरी खुद की बात नहीं। मालवा की बात है। माना सभी ने तुझे धोखा दिया है। पर मालवा तो तेरी मात्रभूमि है। क्षत्रिय को सन्यास उचित नहीं। वह भी तब जब मात्रभूमि उसे पुकार रही हो।"
स्कंदगुप्त के क्षत्रिय मन को देवसेना का समर्थन मिलता।
" उठो क्षत्रिय उठो। इस तरह मत बैठो। मालवा का मान रखो। "
". हाॅ मैं बचाऊंगा मालवा को। चाहे खुद के प्राण भी दाव पर लगा दूं। मेरे जीवन के अंत तक मालवा की आजादी के लिये लड़ूंगा मैं। "
आखिर सो रहा सिंह जग गया। प्रजा से अनेकों शूरवीरों का साथ मिला। मालवा फिर से आजाद हुआ।
एक कमरे में देवसेना अपना सामान तैयार कर रही थी। स्कंदगुप्त आ गये।
". कहाॅ जा रही हो देवसेना। "
" मेरा कार्य पूर्ण हुआ कुमार। अब मालवा से दूर जा रही हू। "
" इस तरह मुझे अधर में छोडकर नहीं। देवसेना। क्या यह सत्य नहीं कि तुम मुझसे प्रेम करती हो। यह सत्य है कि मेने तुम्हारे प्रेम का सम्मान नहीं किया। अब मुझे एक मौका दो।"
" रुको कुमार। यह संभव नहीं है। मालवा को आपसे आशा हैं। हमारा प्रेम कभी भी आपके कर्तव्यों में बेड़ियाँ नहीं डाल सकता है। मुझे माफ कीजिये कुमार। हम मिलें या न मिलें। हमारा प्रेम पूर्ण हो या अपूर्ण। महत्व की बात नहीं। महत्व है कि मालवा आगे बढे। देश आगे बढे।"
बलिदान तो बहुत देखे हैं। पर देश पर अपना प्रेम भी लुटाने बाली देवसेना का बलिदान देख स्कंदगुप्त भी आंखों में नीर ले आये।
" रूको कुमार। अब आप मालवा का भविष्य हैं। आंखों में आंसू नहीं लाना। हमारे अश्रु महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है हमारा देश मालवा। इस पर प्रेम भी बलिदान करना होगा और आंसू भी।"
फिर स्कंदगुप्त ने देश के लिये अपने आंसू भी बलिदान कर दिये। अनेकों रातों में जब अकेलापन सताता होगा तो निश्चित ही दो प्रेमियों की आंखों से अश्रु वर्षा होती होंगीं। पर कर्तव्य की बेदी केवल बलिदान चाहती है। खुशियों की, प्रेम की और आंसुओं की भी।
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'