भिक्षा : ऐतिहासिक फिक्सन कहानी
कपिलवस्तु के राज्य में आज एक सन्यासी भिक्षा मांगता घूम रहा था। मुखमंडल पर अनोखा तेज कि उसके चेहरे को भी देख पाना असंभव था। फिर भी सभी उन्हें पहचान कर उनके चरणों में झुक रहे थे।
" है कोई इस राज्य में जो एक ज्ञान मार्ग के साधक को भिक्षा दे सके।"
" राजकुमार। यदि हमारे जीवन की सारी कमाई देकर भी आपको संतुष्ट कर पायें तो हमारा अहोभाग्य होगा।
अनेकों आवाजें आतीं। पर सन्यासी किसी की भिक्षा से संतुष्ट न होता। एक ज्ञानी का सुख अलग ही होता है। उस तक सोच पाना भी साधारण लोगों के वश की बात नहीं है। यदि सन्यासी को धन दौलत से ही सुख मिलता तो कपिलवस्तु का राजकुमार उन्हें त्यागकर सन्यासी क्यों बनता। रातों रात ज्ञान प्राप्त करने के लिये क्यों चुपचाप निकल गया। न तो राज्य का सुख उसे रोक पाया और न सुंदर स्त्री और दूध पीते बच्चे का मोह। जिस पुत्र को राजा शुद्धोधन व रानी माया अपने प्राणों से भी बढ़कर समझते थे वह राजकुमार सिद्धार्थ अनेकों वर्षों बाद बुद्ध बनकर कपिलवस्तु आये थे। सत्य ही है कि किसी के पास वह भिक्षा न थी जो बुद्ध जैसे ज्ञानी को संतुष्ट कर सके।
" महाराज की जय हो।" मंत्री ने राजा शुद्धोधन को प्रणाम किया। " महाराज। एक अति आवश्यक बात बतानी है।"
" क्या बात है अमात्य। क्या हमारी प्रजा को कोई दुख है। अपने सीने में पुत्र वियोग को रखे हुए भी अभी हम अपने कर्तव्यों से विमुख नहीं हुए हैं। आज भी सिद्धार्थ की याद में मन विचलित होता है। पर राजा को विचलित नहीं होना चाहिये। इसी लिये निभा रहे हैं। "
मंत्री शांत रहा। मानो विचार कर रहा हो कि महाराज और महारानी को किस तरह बतायें। भले ही राजकुमार कपिलवस्तु में आ गये हैं। पर वह राजकुमार तो नहीं। ज्ञान प्राप्त कर अब वह बहुत सी मान्यताओं से ऊपर उठ चुके हैं। बुद्ध भला किसके पिता और किसके पुत्र।
" आप शांत क्यों हैं महामात्य।"
" महाराज। हमारे राज्य में एक तपस्वी आये हैं। कोई भी उन्हें भिक्षा नहीं दे पा रहा है।" महाराज के पूछने पर मंत्री बस इतना बता पाये।
यह भी क्या बात है। तपस्वी को कोई भी भिक्षा से संतुष्ट नहीं कर पा रहा है। महाराज शुद्धोधन खुद उस तपस्वी को तलाशने चल दिये। और जब वह तपस्वी उन्हें मिला तो खुशी से उनकी आंखें गीली हो गयीं।
" पुत्र। घर चलो।"
" कौन किसका पुत्र। सभी तो मिलते और बिछड़ते हैं। पर महाराज। आपके राज्य में कोई भी मुझे भिक्षा देकर संतुष्ट नहीं कर पाया।"
महाराज शुद्धोधन समझ गये कि अब सिद्धार्थ को वह रोक नहीं सकते। जब सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्ति की चाह हुई, उस समय भी वह उन्हें रोक न सके। सारे प्रयास विफल हुए। ज्योतिषियों की भविष्यवाणी सत्य निकली। अब तो सिद्धार्थ ज्ञान प्राप्त कर बुद्ध बन चुके हैं।
" मेरे पास क्या है। जो आपको समर्पित कर सकूं। यह राज्य है। उसके आप ही मालिक थे। पर आप तो उसे लात मार चुके हैं। पिता और पुत्र की भावना से ऊपर उठ चुके हैं। निश्चित ही मेरे पास आपको देने के लिये उचित भिक्षा नहीं है। पर राजमहल में कोई है। जो अनेकों वर्षों से आपके लिये उपयुक्त भिक्षा तैयार कर रहा है। उसका विश्वास कि एक दिन आप आयेंगे, आज सत्य हुआ। एक बार महल चलिये। आपकी भिक्षा वहीं मिलेगी। "
बुद्ध आश्चर्य में। क्या राजमहल में भी कोई उन्हें ज्ञान की भिक्षा दे सकता है। पर पुराना अनुभव था। तप करते हुए भी बोध प्राप्त नहीं हुआ तो एक कन्या के गीत ने दिशा दिखाई थी। क्या बोल थे गीत के।
". वीणा के तारों को
मत खेंच खींचकर
तार टूट जायेंगें "
बुद्ध याद कर रहे थे। फिर सम्यक सिद्धांत की उन्हें प्राप्ति हुई। तो असंभव कुछ भी नहीं है। जो वन में नहीं मिलता, वह भी घर में मिल जाता है। पर ऐसा कौन है। उसे पहचान नहीं पा रहे थे।
बुद्ध राजमहल की तरफ बढ लिये।
" बेटी यशोधरा। "
महाराज ने आवाज दी। सिद्धार्थ की पत्नी यशोधरा बाहर आयी। बुद्ध को प्रणाम कर खड़ी रही। पर यह प्रणाम उनके पति को न था। ज्ञान की चमक से बुद्ध बने महातपस्वी को था।
" देवी। क्या आप मुझे मेरी पसंद की भिक्षा दे सकती हैं।"
" बिल्कुल तपस्वी। नारी की इच्छाशक्ति ऐसी होती है कि उसके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं। बहुत समय पूर्व मेरे स्वामी ज्ञान की खोज में चले गये थे। उन्होंने मुझपर विश्वास नहीं किया। यदि मुझे बताते तो उन्हें वह ज्ञान मैं खुद देकर विदा करती। "
बुद्ध को यशोधरा की बात में अतिशयोक्ति ही लगी। अक्सर स्त्रियां बातों को बढा चढाकर प्रस्तुत करती हैं। यशोधरा भीतर गयी और फिर एक हाथ पकडकर एक युवा को बाहर लेकर आयी। बुद्ध उसे पहचान न सके।
" तपस्वी। यही आपकी उपयुक्त भिक्षा है। "
" देवी। इस तरह आप कैसे कह सकती हैं कि यह मेरी उपयुक्त भिक्षा है।"
" तपस्वी। यह मेरा पुत्र राहुल, मेरे संस्कारों से शिक्षित ज्ञान और वैराग्य की आप के समक्ष ही स्थिति पर है। आप भली प्रकार जांच लें।"
बुद्ध के लिये यह दूसरे आश्चर्य की बात थी। विभिन्न तरीकों से राहुल की परीक्षा लेते रहे। राहुल को किसी भी तरह डिगा नहीं पाये। जो ज्ञान उन्होंने तपस्या से अर्जित किया था, राहुल को पूरा ज्ञात था।
" यह सब कैसे। देवी। "
" तपस्वी। एक स्त्री की इच्छाशक्ति। स्त्री के मन में बात उठी। जिस ज्ञान की प्राप्ति के लिये पति वनों में तपस्या कर रहे हैं, वह ज्ञान पुत्र को प्राप्त हो। मन में इच्छा हुई कि पुत्र भी पिता के पदचिन्हों पर चले। मन में इच्छा हुई कि पुत्र किसी भी तरह पिता से कम न रहे। तपस्वी। संकोच न करें। इसे आपकी भिक्षा के लिये ही तैयार करती आयी हूं। आज वह सुअवसर आया है। "
प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता। राहुल निश्चित ही बुद्ध के समान ही था। तथा उसे सारा ज्ञान उसकी माता ने ही दिया था।
" देवी। एक बार भिक्षा देने से पूर्व फिर से सोच लो। इस तरह अपने पुत्र को किसी तपस्वी को सोंप फिर आप दुखी तो नहीं होंगीं। "
". फिर वही अविश्वास। तपस्वी। स्त्रियों पर विश्वास करना सीखिये। जो ज्ञान एक स्त्री अपने पुत्र को देकर उसे वैरागी बना सकती, उसके खुद के ज्ञान पर संदेह। सच्चा ज्ञान तो यही है कि कौन किसका पुत्र और कौन किसकी माता। "
बुद्ध यशोधरा के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये। पर यह हाथ जोडना किसी पति का अपनी पत्नी को हाथ जोड़ना न था। अपितु एक तपस्या से बुद्ध बने ज्ञानी का स्वतः ज्ञानी नारी के लिये नमन था।
समाप्त
दिवा शंकर सारस्वत ' प्रशांत'