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इतिहास के पन्नों में गुमनाम इश्क की दास्तान

25 नवम्बर 2021

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  चारों तरफ शहजादे इखियादुद्दीन के जयकारे लग रहे थे। जिन डाकुओं का खात्मा शहजादे ने किया था, वे कोई मामूली डकैत नहीं थे। व्यापार के सिलसिले में व्यापारी दूर दूर तक जाते थे। उनके पास बहुत धन भी होता। तो अपनी सुरक्षा के लिये निजी सैनिकों का जखीरा भी रखते थे। पर डकैतों की टोली इतनी बहादुर थी कि व्यापारियों के सैनिकों को भी मौत के घाट उतार कर व्यापारियों से धन लूट जाती।व्यापारियों में दहशत थी। न तो बाहर के व्यापारी राज्य में आते और न राज्य के व्यापारी बाहर जाते। राज्य की अर्थव्यवस्था चरमरा रही थी। आखिर शहजादे को आगे आना पङा। शहजादे की वीरता के कारण कितने ही डकैत मारे गये। कुछ घायल होकर शहजादे की कैद में आ गये। जिनमें डकैतों की सरदार भी थी।लगता है कि लेखक ने व्याकरण की भूल कर दी है। सही वाक्य "डकैतों का सरदार भी था" होना चाहिये। पर लेखक फिर से अपने पुराने वाक्य पर कायम है।

    जिन डकैतों ने जनता का जीना मुश्किल कर रखा था, आज बंधे हुए, बङे पिंजरों में बंद राज्य की गलियों में घुमाये जा रहे थे। आखिर जनता से अपनी जय जयकार सुनना किसे अच्छा नहीं लगता। एक पिंजरे में एक बला की खूबसूरत लङकी बंद थी। यों तो चेहरे पर नकाब लगाये थी। पर हाथ और पैरों की गोरी चमङी, आंखों की मदहोशी उस लङकी की सुंदरता बखान कर रहे थे। यों घंटों धूप में घुमाकर डकैतों को कैदखाने में डाल दिया। सभी पर जितना हो सकता था, उतना लोहा लदवा दिया गया। शहजादे की कङी हिदायत थी कि आज रात इन्हें सोने और बैठने न दिया जाये। खाने की छोङो, पीने को भी पानी नहीं मिलना चाहिये। थोङे बहुत कोङे तो लगाने ही चाहिये। और जनता भी इन डकैतों की बदहाली की घोषणाएं सुन ज्यादा खुश होकर जयकारे लगाने लगी।

    यों उन दिनों दंड विधान बङे कठोर थे। पर आज शहजादे का मन बैचेन था। इतनी बङी जीत पर बादशाह ने भी शावासी दी। पर शहजादा न जाने कहाॅ खो गया। मुठभेड़ के दौरान ही डकैतों की सरदार लङकी का नकाब शहजादे के सामने हटा तो उसकी तस्वीर शहजादे के दिलों दिमाग पर बस गयी। शहजादे ने जैसे ही पानी पीना चाहा, प्यासी लङकी उसके ख्यालों में आ गयी। पानी कङबा लगने लगा। इतना कङबा कि शहजादे ने उसे कुल्ला कर दिया। आज रात उसने खाना नहीं खाया। गर्मागर्म कंबल में भी शहजादे को ठंड में तङपती लङकी की ठंड महसुस हुई। लङकी के साथ शहजादा भी नहीं सो पाया। अचानक शहजादे को अपने शरीर पर कोंङों की मार का दर्द भी महसूस हुआ। पता नहीं यह क्या जादू था। पर सच्चाई थी कि शहजादा इश्क के आग के दरिया में डूब चुका था। इश्क ऊंच ओर नींच कुछ नहीं देखता। इश्क कभी किया नहीं जाता, बस हो जाता है। शहजादा इखियादुद्दीन को उस डकैत लङकी से इश्क हो गया था। पर यह इश्क आसान नहीं था। पर जिन्हें इश्क हो जाये, उनके लिये मुश्किल भी क्या है।

    दूसरी सुबह ही शहजादा कारागार में पहुंच गया। रात भर की यातनाओं के बाद भी लङकी की आंखों में वही अजब तेज था। उसकी मदमस्त आंखें अच्छे अच्छों का शिकार कर सकतीं थीं।

   "लङकी। क्या नाम है तेरा।"

शहजादे के पूछने पर भी लङकी चुप रही।

" लगता है कि रात भर में तेरी अक्ल ठीक नहीं हुई है। क्या और पीङा चाहती है।"

   "पीङा और मुझे।" लङकी बदहाश हसती रही। " शहजादे। पीङा तो उनको होती है जो जिंदा हैं। कुछ मर कर भी खास उद्देश्य से जीते रहते हैं। जिसे खुद के ही भाइयों से धोखा मिले, वह कहाॅ जिंदा है। जिंदा तो बस उसका इंतकाम है। "

   शहजादा ज्यादा समझ नहीं पाया। एक अभागानी लङकी की कल्पना उस के बारे में शहजादे के मन में आयी। अब इश्क तो होता ही ऐसा है। कुछ दिनों पूर्व जिस डकैत में सारे दोष दिख रहे थे, अब वह मजबूर लङकी नजर आने लगी। बरहाल लङकी के शरीर का लोहा शहजादे ने हटाया तो खुद का बोझ कम लगने लगा। लङकी को पानी पिलाकर खुद की प्यास बुझायी। फिर एक दासी को बुलाकर दबाई का लेप करने को बोला।

   " लङकी। अभी जा रहा हूं। पर अगर तूने सहयोग किया तो सजा में राहत दिला सकता हूं। नहीं तो पूरी जिंदगी इस काल कोठरी में निकल जायेगी तेरी।" शहजादे की आबाज अभी भी कठोर थी।

  ...........

   आखिर लङकी भी नरम पङी । सुल्ताना की कहानी कुछ अलग जुल्मों की कहानी थी। आखिर लङकी ने जुर्म का रास्ता अख्तियार कर लिया। शहजादे ने खुद सुल्ताना की पैरवी की। पर जुल्म की सजा तो मिलती ही है। पर यह कैद सुल्ताना को अखरी नहीं। शहजादा अपनी तरफ से जो मुमकिन होता, वह करता। और शहजादे के लिये क्या नामुमकिन। जेल में भी सुल्ताना को वह सुख प्राप्त थे जो बहुतों को नहीं मिलते।

  " सुल्ताना। कारावास की सजा पूरी कर कहाॅ जाओंगीं।"

   "शहजादे। मेरा क्या ठौर ठिकाना। कहीं बङीं दूर निकल जाऊंगी।"

   शहजादे की आत्मा ही सुल्ताना से दूरी की कल्पना में तङप उठी।

   " नहीं सुल्ताना। हम तुम्हें पुनः स्थापित होने का मौका देंगें। तुम्हारी जैसी बहादुर लङकी की इस देश को बङी जरूरत है। हमारे यहां रहकर लङकियों और महिलाओं को हथियार चलाने का प्रशिक्षण दे सकती हो।"

   " शहजादे। अब सम्मान की जिंदगी जीना चाहती हूं। पर मेरा अतीत मुझे वह सम्मान नहीं दिलायेगा। "

" सुल्ताना। तुम मुझपर संदेह कर रही हो। किसी की जुर्रत इतनी नहीं होगी कि तुम्हारी बेइज्जती कर सके। तुम्हारी बेइज्जती मेरी बेइज्जती होगी। "

   शहजादे ने अपना बायदा पूरा किया। शहजादे और उसमें भी इतने बहादुर शहजादे के खिलाफ कौन जा सकता है। महल में सुल्ताना आजाद घूमती। नगर की लङकियों को अस्त्र शस्त्रों की दीक्षा देती। सरकारी कोष से अच्छा वेतन पाती।

    सालों निकल गये। शहजादा अपने दिल का हाल नहीं सुना पाया। दिल की तङप को भीतर ही पीता रहा। पर आखिर एक दिन उसने हिम्मत की। और हिम्मत का फल भी मिला। सुल्ताना ने इखियादुद्दीन की मोहब्बत कबूल की। कभी डकैत के रूप में नगर आयी सुल्ताना, देश की बेगम बन गयी। बङी सुंदर बग्गी पर सवार शहजादे ने उसे पूरे नगर का भ़मण कराया। आज जनता उसकी जयकारे लगा रही थी। स्थित बदलते ही लोगों का व्यवहार बदल जाता है।

   सुल्ताना जनता के लिये बहुत उदार रही। सुल्ताना की नीतियों के जनता के साथ साथ बादशाह भी कायल हो गये। अब सुल्ताना की अपने राज्य पर पूरी कमान थी। अब वह शहजादे के साथ जंग में भी जाने लगी। शहजादे इखियादुद्दीन और बेगम सुल्ताना की प्रेम कहानी घर घर में सुनी जाती। पर बेगम सुल्ताना एक अपराध बोध के भ्रमर में फसी थी। जो स्थिति शहजादे की सालों थी, सुल्ताना भी उसी स्थिति में सालों बिता गयी। मन में अजीब छटपटाहट थी। सच्चाई बताने की। पर भीतर ही भीतर डरती भी कि सच्चाई जान शहजादे का नजरिया बदल जायेगा। आखिर कैसे शहजादे को बताये कि उसने केवल शहजादे का इस्तेमाल किया है। इश्क तो वह किसी और से करती है। जिसकी मौत का बदला लेना ही अब उसके जीवन का उद्देश्य है।

   आज मौसम में कुछ ज्यादा उमस थी। बेगम सुल्ताना झूठ के नकाब को हटाने बाली थीं। यह सचमुच बहुत मुश्किल काम था। पर हर मुश्किल काम को करना होता है।

  "शहजादे। अब आपको धोखा नहीं दे सकती। आज ही आपके राज्य से बहुत दूर चली जाऊंगी। मेरे जीवन का उद्देश्य केवल बदला है। पर जाने से पहले आपको सब सच बताऊंगी।"

   शहजादा इखियादुद्दीन समझ न सका। पर जब बेगम सुल्ताना ने बताया तब समझा कि सुल्ताना नाम से तो सुल्ताना नहीं है पर वास्तव में सुल्ताना है। दूर दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश की लायक बेटी रजिया दिल्ली की इकलौती सुल्ताना रही है। उसके भाई पिता का विरोध तो कर न सके पर रजिया के जीवन में कांटे जरूर बोते गये। सरदार बगावत पर उतारू थे। एक स्त्री को अपनी शासिका मानने को कोई तैयार न था। दिल्ली में केवल याकूत ही ऐसा था जिसपर रजिया भरोसा करती थी। भरोसा छोटी बात है, बल्कि इश्क करती थी। दिल्ली की सुल्ताना एक गुलाम से इश्क करती थी। सचमुच इश्क बला ही वह है जो ऊंच और नीच को मिटा दे। आखिर याकूत ने भी अपनी मोहब्बत साबित की। यदि रजिया जिंदा है तो केवल याकूत की शहादत की बदौलत। पर अब रजिया के जीवन का एक ही उद्देश्य है कि याकूत की शहादत का बदला लेना। रजिया ने इस बार यह भी नहीं छिपाया कि उसने शहजादे का उपयोग अपने फायदे के लिये किया है।

   जैसे किसी बच्चे का प्रिय खिलोना टूट जाये, एक  स्त्री का पति मर जाये, एक व्यापारी का सारा माल लुट जाये, कुछ वही हाल इखियादुद्दीन का था। जिस इश्क की कश्ती पर शहजादा सवारी कर रहा था, उसकी पेंदीं में तो पहले से ही छेद था। रजिया उसे धोखा देती आयी है, यह जानकर सचमुच आपे से बाहर हो गया। इसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं था । पर अप्रत्याशित फिर हुआ। कुछ ऐसा अप्रत्याशित जिसपर यकीन कर पाना भी किसी के लिये मुमकिन नहीं है।

   अपने मन के प्रवाहों को रोक शहजादे इखियादुद्दीन ने जब बोलना शुरू किया तो सचमुच उसकी वाणी पर साक्षात प्रेम की देवी ही बैठी थीं।

   "रजिया। तुम्हारी प्यास मेरे कंठ को सुखा देती है। तुम्हें जल पीता देख मेरी प्यास बुझती है। तुम्हारी एक खुशी के लिये मैं कुछ भी और तो और अपना जीवन लुटा सकता हूं। मैं नहीं जानता कि यह इश्क है या कुछ और। पर यह सही है कि तुम्हारी हिफाजत में अपनी जान भी दे सकता हूँ। तुम्हारे जीवन का उद्देश्य ही मेरे जीवन का उद्देश्य होगा। "

  अक्सर लोग बङी बङी बातें कहते हैं पर करते नहीं। पर इखियादुद्दीन ने जो कहा, वह करके दिखाया। अपनी पूरी शक्ति जो वास्तव में दिल्ली की शक्ति के सामने कुछ भी नहीं थी, इकट्ठा कर शहजादे इखियादुद्दीन ने रजिया के साथ दिल्ली पर हमला बोला। भयानक युद्ध का परिणाम भयानक हुआ। जहाॅ एक तरफ रजिया ने याकूत की मौत के जिम्मेदार सरदारों और अपने भाइयों से याकूत की मौत का बदला लिया। वहीं शहजादा इखियादुद्दीन भी रजिया की हिफाजत करते हुए इश्क में कुर्वान हुआ। आखिर में रजिया भी याकूत का नाम लेते हुए जीवन त्याग गयी।

   इतिहास के पन्नों में रजिया का नाम दिल्ली की इकलौती महिला सुल्ताना के रूप में दर्ज है। रजिया और गुलाम याकूत का प्रेम भी लोगों के मध्य अपनी पहचान बनाये है। पर शहजादे इखियादुद्दीन की रजिया के प्रति इश्क की दास्तान सचमुच गुमनाम हो गयी।


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