रत्ना
जब मन में किसी से प्रेम हो जाये तो एक पल का विरह सहना भी अति कठिन होता है। बचपन से माता पिता के साथ रहती आयी कन्या जब अपने पति के प्रेम में खुद को मिटा देती है तो फिर उसके मन में और कोई नहीं रहता। माता, पिता, भाई, बहन सब पीछे छूट जाते हैं। वास्तव में तो ईश्वर से प्रेम भी पति से प्रेम से कुछ पीछे ही रह जाता है।
वर्तमान जनपद कासगंज में पौराणिक तीर्थ सौरों वह स्थान है जहाॅ भगवान वराह ने भूदेवी को उपदेश दिये थे। सोरों के निकट ही गांव बदरिया में रत्ना के पिता दीनबंधु विद्वान ब्राह्मण थे। रत्ना को पढाई का बड़ा चाव था। पिता के साथ रहकर बचपन से ही सारी पंडिताई उसने सीख ली। अनेकों धर्म शास्त्रों को पढ लिया। ज्योतिषि जैसे विषय में उससे बढकर दूसरा न था।
शहर में एक नवयुवक ब्राह्मण पढ लिखकर आया था। उसकी विद्वत्ता की चहुंओर चर्चा थी। ऐसे विद्वान ब्राह्मण बहुत मुश्किल से मिलते हैं। ब्राह्मण की जीविका मुख्य रूप से विद्या से ही चलती है। दूसरा वह अनाथ था। तो रत्ना खुद से दूर नहीं होगी। यह सोचकर दीनबंधु ने तुलसी को अपना दामाद बनाना चाहा। पर रत्ना के मन की बात भी जाननी थी।
जीव खुद ईश्वर का रूप है। माया के कारण वह खुद बंधन में फसा हुआ है। फिर बंधन युक्त की भार्या बनना रत्ना को पसंद नहीं था। अनेकों युवकों के रिश्ते वह ठुकरा चुकी थी। रत्ना ने जब तुलसी को चुना तो दीनबंधु जी को जो खुशी हुई, उसे लिख पाना मेरे लिये संभव नहीं है। आखिर एक कन्या का पिता तो यही चाहता है कि उसकी पुत्री का घर बस जाये। फिर तुलसी तो घर जंवाई बनने को भी तैयार है। एक अनाथ लड़के को माता पिता मिल जायेंगें और रत्ना को उसका पति। इससे बडकर खुशी की क्या बात हो सकती है।
सभी की खुशी के अलग कारण होते हैं। रत्ना इस रिश्ते से बहुत खुश थी। उसने अपने अकाट्य ज्योतिषि ज्ञान से वह जान लिया था जो यदि उसके पिता को ज्ञात हो जाता तो शायद ही तुलसी के साथ रत्ना का विवाह करते। तुलसी की कुंडली के कुछ योग उसे सन्यासी बता रहे थे। सन्यासी जो ईश्वर को पाने की चाह में संसार को त्याग देता है। सन्यासी बंधन से मुक्त होता है। एक बंधन मुक्त की सेविका बनकर रत्ना अपना जीवन धन्य करना चाहती थी। महान लोगों का संग कुछ समय के लिये भी हो, कल्याण का कारण होता है। पर रत्ना शायद अब तक यह नहीं जानती थी कि तुलसी की मुक्ति का मार्ग रत्ना के त्याग से ही निकलेगा। महान लोगों के जीवन में कुछ भी बेबजह तो नहीं होता। रत्ना का विवाह तुलसी के साथ हो गया।
विवाह के दूसरे दिन
" स्वामी। विवाह के बाद स्त्री का स्थान उसका पतिगृह होता है। यही धर्म शास्त्रों का सिद्धांत है। ससुराल में रहना न तो पुरुष के गौरव की बात है और न स्त्री के लिये मायके में रहना सम्मान की बात।"
रत्ना की बात सुनकर तुलसी चुप रह गये। वास्तव में उनका क्या घर। वह तो जन्म से ही अनाथ थे। माता हुलसी उन्हें जन्म देते ही चल बसी। पिता ने उन्हें बचपन में ही त्याग दिया। फिर रत्ना के लिये किसी अन्य स्थान पर रहना, पिता के घर रहने से ज्यादा ही कठिन होगा।
वैसे तुलसी खुद बहुत स्वाभिमानी थे। गृहजंवाई बनने की उनकी कोई इच्छा न थी। शायद विवाह करने की भी उनकी इच्छा न थी। पर एक दिन कथा कहते समय जब एक सुंदर कन्या को देखा तो मन में आकर्षण पैदा हो गया। जब उसने कथा के कुछ विंदुओं पर तुलसी का प्रतिवाद किया तथा अपने तर्क प्रस्तुत किये तो तुलसी उसकी विद्वत्ता देखकर मंत्रमुग्ध हो गये। ईश्वर की कृपा थी कि उसी कन्या के पिता दीनबंधु उसका रिश्ता लेकर तुलसी के पास आ गये। फिर तुलसी अपनी कोई बात नहीं कह पाये।
" लेकिन रत्ना। मैं खुद अनाथ हूं। यह बात आपके पिता और आपको भी बतायी थी।"
" स्वामी। आप कैसी बात कर रहे हैं। इस संसार में अनाथ वही है जो श्री राम के आश्रय से रहित है। संसार के सारे रिश्ते एक न एक दिन साथ छोड़ ही देते हैं। पर श्री राम जी कभी भी अपने भक्तों का साथ नहीं छोड़ते। "
यदि कोई स्त्री जिद ठान ले तो भला कौन उसे समझा सकता है। रत्ना को तुलसी के अलावा उसके पिता और माता समझा समझा कर हार गये। पर अंत में हुआ वही जो रत्ना ने चाहा था। यह अच्छी बात थी कि सोरों ज्यादा दूर नहीं था। दीनबंधु जी जब इच्छा होती, रत्ना से मिल आते। पर रत्ना अपने पति गृह में पूरी तरह रम गयी।
सभी लड़कियों की इच्छा कभी न कभी पीहर जाने की होती है। सावन के मोसम में स्वाभाविक ही मायके की सखियां याद आ जाती हैं। पर रत्ना सावित्री का दूसरा रूप थी। फिर अब वह केवल पत्नी नहीं रह गयी। तारक के आगमन के साथ उसकी जिम्मेदारी बहुत बढ गयी।
तुलसी सुबह ही कथा कहने निकल गये थे। अनेकों यजमानों की जन्म कुंडली घर में बनने को रखी थीं। जन्म कुंडलियां ज्यादातर रत्ना ही बनाती। तुलसी को भोजन कराकर विदा कर, तारक को नहला धुलाकर, उसे दूध पिलाकर सुलाकर रत्ना कुंडलियों को देखने बैठ गयी। अभी कुछ ही कुंडलियों पर विचार कर पायी थी कि पंडित दीनबंधु जी आ गये। पिता को देख रत्ना खुशी के कारण उनके गले से लग गयी।
" रत्ना। कभी अपनी माॅ का भी विचार कर लिया करो। जिस माॅ ने तुम्हें इतना प्रेम किया, वह तुम्हारी सूरत देखने को भी तरस रही है। मैं तो तुम्हारे पास घूम जाता हूं। पर तुम्हारी माॅ भी तुम्हारी तरह हठी है। कन्या के घर का जल पीना भी उसकी नजर में पाप है। फिर एक बार अपनी माॅ से मिल आओ। "
इस बार रत्ना पिता का अनुरोध ठुकरा न पायी। पुत्र तारक को लेकर पिता के साथ चल दी। पर चलने से पूर्व एक पत्र तुलसी के लिये लिख दिया।
" आदरणीय स्वामी
आज आपको बिना बताये पिता के घर जा रही हूं। माॅ मुझे बहुत याद कर रही हैं। सच बात तो यह है कि मैं भी माॅ को बहुत याद कर रही थीं। शाम तक वापस आ जाऊंगी।
आपकी रत्ना।"
सावन के मोसम में भगवान इंद्र अद्भुत लीला करते हैं। जब रत्ना घर से निकली, आसमान साफ था। पर बदरिया तक पहुंचते पहुंचते हल्की बूंदाबांदी होने लगी। थोङी देर में मूसलाधार बारिश होने लगी।
तुलसी वापस घर आये तो रत्ना दिखाई नहीं दी। उसका पत्र मिल गया। पर ऐसी बारिश में रत्ना की वापसी की कोई उम्मीद न थी। फिर भी प्रेमी मन शंकालु होता है। कहीं रत्ना मायके से निकल ली हो। कहीं मार्ग में फस गयी हो। तुलसी खुद भी रत्ना की तलाश में चल दिये।
वैसे सोरों से बदरिया ज्यादा दूर नहीं है। पर मार्ग में सर्वत्र जल ही जल था। मार्ग व गड्ढों का पता नहीं था। फिर गंगा की एक धारा सोरों और बदरिया के मध्य बहती है। हरि की पोढी का जल कुंड और मार्ग सब मिल रहे थे। सौभाग्य से तुलसी ने बचपन से ही इतने दुख देखे थे कि वह इन स्थितियों से पार पाना जानते थे। आखिर वह बदरिया पहुंच गये।
" अरे दामाद जी। इतनी बारिश में क्यों आये। आपको कुछ हो जाता तो।"
" तारक की याद आ रही थी। अब उसके बिना एक दिन भी नहीं कटता।"
वैसे तारक का तो नाम लिया था। रत्ना समझ गयी कि तुलसी मेरे लिये ही आये हैं। फिर क्या वह ज्योतिष ज्ञान झूठ है जिसके भरोसे उन्होंने तुलसी को अपना पति चुना था। कामना के वश में साधारण पुरुष होते हैं। सन्यासी के तो यह लक्षण नहीं।
ज्योतिष सही है या गलत। अब यह प्रश्न गौड़ है। मुख्य प्रश्न है कि एक स्त्री का क्या कर्तव्य है यदि उसका पति संसार बंधन में ही सुख तलाश रहा है। क्या वह अपने पति को सही राह न दिखाये।
निश्चित ही धर्म शास्त्रों में पति को स्त्री का ईश्वर कहा है। पर निश्चित ही अपने पति की चाटुकारिता करना स्त्री का धर्म नहीं है। स्त्री अपने पति के धर्म की संगनी होती है। यथार्थ में साथ केवल धर्म का ही हो सकता है। अन्यथा सभी एकाकी पथिक ही हैं। जब पति अपने धर्म को त्याग रहा है तो स्त्री का कर्तव्य उसे उसका धर्म याद दिलाना ही है।
तभी रत्ना के मन के कोने में छिपा डर भी प्रत्यक्ष हो गया। अच्छाई और बुराई साथ साथ निवास करती हैं। सभी के मन में तीनों तत्व हमेशा रहते हैं। बस अंतर इतना है कि महान लोग अपने सत्व का साथ पकड़ते हैं।
" रुक रत्ना। यह क्या करने जा रही है। भूल मत तुलसी की कुंडली में तूने क्या पढा था। जब तक मोह में है तभी तक बंधन में है। सत्य ज्ञान होते ही वह बंधन मुक्त हो जायेगा। फिर बंधन मुक्त को कौन रोक पाया है। न स्त्री का रूप और न पुत्र का स्नेह। याद कर एक कहानी। राजा शुद्धोदन के पुत्र सिद्धार्थ को सत्य ज्ञान की ललक उठी थी। वह अपनी सुंदर स्त्री और पुत्र को छोड़ चला गया। फिर तू तो अपने पति को सत्य ज्ञान देने जा रही है। अर्थात अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जा रही है। "
तम के चेताने पर मन का सत्व थोङी देर शांत रहा। पर सत्व वही है जो अपना अहित जानते हुए भी दूसरे का हित करे। फिर प्रेम तो त्याग का दूसरा रूप है" खुद के कष्टों की चिंता कर तुलसी को रोकना...।नहीं नहीं। यह तो ठीक नहीं। "
" अपने लिये तो ठीक है रत्ना। पर अपने पुत्र की तो सोच। एक पिता हीन बच्चे का क्या भविष्य।"
तम ने आखरी दाव खेला। तम जानता था कि एक माॅ की ममता अपने पुत्र का अहित नहीं होने देगी।
पर सत्व के पास इसका भी उत्तर था।
" यह भी क्या विचार का प्रश्न है। सभी के पिता तो खुद श्री राम हैं। वही सभी का पालन करते हैं। यदि तुलसी को बचपन में ही पिता ने त्याग दिया तो क्या उनका अहित हो गया। श्री राम जी ने तो कभी भी उन्हें नहीं त्यागा। फिर तारक के साथ मैं तो हूं ही।"
" तुम... एक स्त्री । " तम अट्टहास कर हसने लगा।
" क्यों क्या हुआ यदि मैं एक स्त्री हूं। क्या सीता स्त्री नहीं थीं जिन्होंने अपने पुत्रों को खुद बिना सहयोग पाल पोस कर बड़ा किया। क्या यशोधरा स्त्री नहीं थी जिसने राहुल को सारी शिक्षा प्रदान की। मदालसा भी एक स्त्री थी जिसने लोरी सुनाते सुनाते पुत्रों को बृह्म ज्ञान दिया। स्त्री तो पूर्ण रचना है। स्त्री को किसी सहारे की क्या आवश्यकता। "
वैसे शायद इतनी बात न होती। पर रत्ना का सत्व, तम का उलाहना बर्दाश्त न कर पाया। तम का प्रतिउत्तर रत्ना तुलसी को देने लगी।
" यह शरीर हाड़ और मांस का बना है। उसपर आपकी इतनी प्रीति। यदि थोङा भी श्री राम से कर ली होती तो जीवन तर जाता। भक्ति का पाखंड करने से बेहतर खुद भक्ति करना है। जिसके मन में श्री राम से प्रेम हो, उन्हें फिर किसी अन्य से क्या प्रयोजन। पवित्र गंगाजल के समक्ष पोखर के जल से जिसे प्रेम हो, उसे अज्ञानी ही कहा जायेगा।
यह आपका सौभाग्य था कि आपको बचपन में किसी का प्रेम नहीं मिला। श्री राम जिन्हें प्रेम करते हैं, उसे बंधन मुक्त करते हैं। आप तो बचपन से ही बंधन मुक्त थे। फिर इस तरह बंधनों में आपका बंधना उचित नहीं। अपने सच्चे प्रेमी श्री राम से प्रीति करो। "
दीनबंधु समझ ही नहीं पाये कि रत्ना क्या बोल रही है। जब तक समझ में आया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। आजाद परिंदा जो कुछ समय के लिये माया मोह के पिंजरे में बंध गया था, फिर से आजाद हो गया। श्री राम भक्ति के अनंत आकाश में उडान लगाने को तैयार हो चुका था।
यदि त्याग ही सच्चा प्रेम है तो रत्ना ने तुलसी से सच्चा प्रेम किया। तुलसी शायद तुलसी न बनते यदि उनके जीवन में उन्हें रत्ना का साथ न मिलता। और उन्हें जीवन में रत्ना का साथ क्यों न मिलता। आखिर उनके भक्ति के अनंत गगन में उडान लगाने के लिये किसी को तो त्याग के महायज्ञ में आहुति देनी थी। और वह आहुति रत्ना ने दी।
समाप्त
महिला दिवस पर विशेष प्रस्तुति
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'