आजकल चारों तरफ असहिष्णुता का शोर मचा रखा ह । मिडिया के पास जैसे और कोई मुददा ही न बचा हो । हर दूसरे तीसरे दिन कोई एक साहित्यकार, लेखक या कोई फ़िल्मकार मैडल लौटने की कह देता ह और मिडिया उस पर पूरा हो-हल्ला मचा देता । जिससे अल्प संख्यकों में असुरक्षा का माहोल पैदा होता है। विदेशों मेँ देश की छवि खराब होती है।
इन लोगो से पूछा जाना चाहिए की जब 1984 के दंगो में सिक्खों का कत्ले आम किया गया था तब इन लोगोँ आवाज क्यों नहीं उठाई। दोषियो को अच्छे पद देकर पुरस्कृत गया। असम में निर्दोषो का खून बहाया गया तब क्यों आवाज़ क्यों नहीं उठाई। कलबर्गी की हत्या की गयी। तब किसकी सरकार थी। पुरि दुनिया मे धर्म के नाम पर निर्दोषो का खून बहाया जा रहा है। यजदी औरतों को सरेआम बेचा जा रहा है। क्या उनके खिलाफ आवाज़ नहीं उठानी चाहिए। क्या ये दोगलापन है या फिर कुछ और है।
अगर ये वास्तव में समाज के शुभ चिंतक हँ तो इन्हें अपनी बात सही तरीके से रखनी चाहिए थी। कहीं ऐसा तो नहीं की ये लोग नई सरकार को ना पचा प् रहे हो या जिस राजनीतिक पार्टी के सहारे इनकी रोजी रोटी चल रही थी उसका नमक अदा कर रहे है। कुछ भी है इनका ये तरीका सही नहीं है। देश की छवि को धूमिल करने का अधिकार किसी को भी नहीं है